June 05, 2009

घटते जंगल, बढ़ती मुसीबतें

विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष


सचिन शर्मा
पिछले वर्ष जब भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने अपनी जाँच रिपोर्ट में खुलासा करते हुए बताया था कि भारत के इतिहास में बाघों की सबसे कम संख्या इस बार दर्ज की गई है तो इस बात पर विशेषज्ञों को जरा सा भी आश्चर्य नहीं हुआ था। इसके अपने कारण भी थे। देश में जिस तरह की स्थितियाँ निर्मित हो रही हैं उसमें बाघ ही नहीं बल्कि सभी वन्यजीवों की स्थिति खतरे में है।

कांग्रेस सरकार अपने पिछले कार्यकाल में जिस 'ट्राइबिल बिल' को पारित करके अपनी पीठ ठोंक रही है वही बिल बाघों और जंगलों के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हो रहा है। 'फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया' की रिपोर्ट बताती है कि भारत में जंगल तेजी से कम हो रहे हैं और भविष्य में ये मौसम परिवर्तन और वन्यजीवों के हिसाब से खतरनाक साबित होंगे।

तेज बढ़ती गर्मी और मौसम परिवर्तन सिर्फ योरपीय या अमेरिकी देशों के लिए ही चिंता का विषय नहीं है। भारत भी इसकी चपेट में है और लगातार कम हो रही वर्षा तथा दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही गर्मी यह बता रही है कि यह हमारे लिए भी उतनी ही चिंता का विषय है। लेकिन अभी भी लोग इस समस्या के मूल में जाने से बच रहे हैं। विकास की कीमत भारत भी चुका रहा है। तेजी से बढ़ रहे शहर जंगल की भूमि लील रहे हैं और देश में 'फॉरेस्ट कवर' निरंतर कम हो रहा है।

देश के जंगलों के बढ़ने-घटने का हिसाब रखने वाले 'फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया' की रिपोर्ट के अनुसार पिछले पाँच वर्षों में भारत में बनने वाले बड़े बाँधों और सुनामी के कहर से 728 वर्ग किलोमीटर जंगली क्षेत्र पूर्णतः नष्ट हो गया। सिर्फ 2003 और 2005 के मध्य में ही 1409 वर्ग किमी जंगल क्षेत्र नष्ट हुआ था। एक समय जहाँ भारत में 50 प्रतिशत से भी अधिक जंगल थे वहीं बाद में ये अपने सबसे निम्नतम स्तर यानी घटकर 20 प्रतिशत के आस-पास पहुँच गए।

भारत सरकार ने विशेषज्ञों की सलाह पर इस मुद्दे को गंभीरता से लिया और अपनी दसवीं पंचवर्षीय योजना में भारत में फॉरेस्ट कवर को 25 प्रतिशत तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा। यह योजना 2007-08 में खत्म हो गई लेकिन सरकार अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई। इसके बाद केन्द्र सरकार ने 11 वीं पंचवर्षीय योजना को लागू किया और इसमें फॉरेस्ट कवर को 33 प्रतिशत करने का लक्ष्‌य रखा। उल्लेखनीय है कि अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से किसी भी देश के कुल भू-भाग का 33 प्रतिशत जंगलों से आच्छादित होना चाहिए।

इस बारे में पिछली केन्द्र सरकार में वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री रहे एस. रघुपति ने दावा भी कर दिया था कि 2012 तक हम देश के फॉरेस्ट कवर को 30 प्रतिशत तक ले जाएँगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया और आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार देश में अभी भी फॉरेस्ट कवर मात्र 23 प्रतिशत है जो आदर्श स्थिति से पूरा 10 प्रतिशत कम है।

'द स्टेट ऑफ इंडियन फॉरेस्ट्स' की रिपोर्ट के अनुसार भारत के जंगलों में 6218 मिलीयन घन मीटर लकड़ी का संग्रह है। इस संग्रह को सब अपने-अपने तरीके से और जल्द से जल्द इस्तेमाल करने की सोच रहे हैं लेकिन कोई भी प्रकृति और पर्यावरण के बारे में नहीं सोच रहा। नजीजतन ग्लोबल वार्मिंग की मार दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और भारत से वन्यजीवों की कई प्रजातियाँ खत्म हो रही हैं, क्योंकि उनके आशियाने जंगल धीरे-धीरे सिमटते जा रहे हैं।

उक्त रिपोर्ट के अनुसार अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी और हरे-भरे इलाकों में भी 1 लाख 83 हजार 135 वर्ग किमी क्षेत्र में जंगल नहीं हैं। भारत के जंगलों का सबसे बड़ा प्रतिशत हमालयी क्षेत्र में है जहाँ कुल भू-भाग के 54 प्रतिशत क्षेत्र पर जंगल हैं। इनमें वो पूर्वोत्तर राज्य भी शामिल हैं जहाँ बहुतायत में जंगल हैं। ये हमारे देश के फैंफड़े साबित हो रहे हैं। लेकिन मैदानी इलाकों में जंगल तेजी से घट रहे हैं। जहाँ भी आबादी बढ़ रही है वहाँ जंगल और जानवर दोनों कम हो रहे हैं। इंसान अपने वजूद के सामने बाकी सबके वजूद को नकार रहा है। अगर जंगलों को बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया गया तो हमारा साँस लेना मुश्किल हो जाएगा, यह तय है।

कितने प्रकार के होते हैं जंगल?
1. सघन (डेंस फॉरेस्ट)- यह ऐसा जंगल होता है जिसमें धरती भी मुश्किल से ही दिखती है। यह जंगल प्रकृति द्वारा हमें प्रदत्त फैंफड़े की तरह होते हैं जो कारबनडाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैस को सोखकर जीवनदायिनी ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं। ये बादलों को आकर्षित करके बारिश के भी कारक बनते हैं। ये ज्यादातर ऐसी जगहों पर होते हैं जहाँ इंसानी दखलंदाजी ना के बराबर होती है।

2. सामान्य (मोरडरेट फॉरेस्ट)- ये सामान्य प्रकार के जंगल राष्ट्रीय उद्यानों या रिजर्व फॉरेस्ट में मिलते हैं। यहाँ इंसानी दखलदांजी एक सीमा तक ही मान्य रहती है।

3. खुला जंगल (ओपन फॉरेस्ट)- ऐसे जंगल शहरी क्षेत्रों में होते हैं और शहर के बीचोंबीच या आस-पास की पहाड़ियों पर पाए जाते हैं। यहाँ पेड़ छितरे हुए से लगे होते हैं।

4. कच्छ या गरान (मेनग्रूव्ज फॉरेस्ट)- इस प्रकार के जंगल समुद्री जल के आस-पास पनपता है। पश्चिम बंगाल का सुंदरबन इसका उदाहरण है। ये जंगल भी काफी घना होता है लेकिन इसमें ज्यादातर वो पेड़-पौधे उगते हैं तो नमकीन पानी में अपने को जीवित बनाए रख सकते हैं।

भारत के कुछ सबसे घने जंगलों वाले इलाके (कुल भू-भाग के प्रतिशत में)
1. मिजोरम : 87 प्रतिशत
2. अंडमान और निकोबार : 84 प्रतिशत
3. नागालैण्ड : 82 प्रतिशत
4. मणिपुर : 77 प्रतिशत
5. मेघालय : 75 प्रतिशत
6. लक्ष्‌यद्वीप : 71 प्रतिशत
7. अरुणाचल प्रदेश : 68 प्रतिशत
8. सिक्किम : 45 प्रतिशत
9. उत्तांचल : 45 प्रतिशत
10. केरल : 40 प्रतिशत

भारत के कुछ सबसे कम जंगलों वाले इलाके (कुल भू-भाग के प्रतिशत में)
1. हरियाणा : 3 प्रतिशत
2. पंजाब : 3 प्रतिशत
3. राजस्थान : 4 प्रतिशत
4. बिहार : 6 प्रतिशत
5. उत्तर प्रदेश : 6 प्रतिशत
6. दमन और दीव : 7 प्रतिशत
7. गुजरात : 7 प्रतिशत
8. पोंडेचरी : 8 प्रतिशत
9. जम्मू-कश्मीर : 10 प्रतिशत
10. दिल्ली : 11 प्रतिशत

June 03, 2009

कुछ सूखती-चटकती-तड़कती धरती के बारे में भी पढ़िए

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June 02, 2009

भारतीयों पर आस्ट्रेलिया में हमला..आखिर क्यों..??

दुनिया से रंगभेद कभी समाप्त नहीं हो सकता

मित्रों, आज का विषय मन को टीस मारने वाला है। मन को चुभने वाला है। मन तो करता है कि इन पूरे दो करोड़ आस्ट्रेलियाईयों को चुन-चुन कर जूते मारूँ। घूँसे नहीं चाँटे मारूँ (क्योंकि चाँटा खाकर आदमी घूँसे के बजाए ज्यादा बेइज्जती महसूस करता है) लेकिन जब मैं दुनिया के परिप्रेक्ष्य में इस घटना को देखता हूँ तो लगता है कि मानव की मिट्टी ही काली है। वो यह सब किए बगैर रह ही नहीं सकता। दुनिया से रंगभेद कभी समाप्त नहीं हो सकता।

मित्रों, जब आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की पिटाई, उनपर जानलेवा हमले और पुलिस द्वारा उन्हें गिरफ्तार किए जाने की खबर आई तो एक बारगी तो खून खौल उठा। लगा कि धिक्कार है हमारे देश की नपुंसक सरकार पर, जो फिर से एक बार चुप बैठी है। फिर मन को संभाला कि भाई सचिन, ज्यादा नाराज नहीं होते, जब पता है कि मुंबई में 10 आतंकी हमारे घर में घुसकर हमारी पेंट उतारकर चले गए और हम तब कुछ नहीं कर पाए तो अब क्या कर लेंगे क्योंकि इस बार तो मामला दूर देश का है, सात समुन्दर पार का है। मैंने सोचा कि मुंबई घटना के समय मैंने भारत सरकार को बहुत कोसा था। लेकिन जनता ने उस शांत और शालीन सरकार (?) को दोबारा सत्ता में आने का मौका दिया है तो इस बार मैं सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलूँगा। क्योंकि मनमोहन सिंह और सोनिया पर देश की जनता ने विश्वास जता दिया है। तो ये सरकार महान (?) साबित हो चुकी है इसलिए इस बार आपकी, हमारी, संसार की और मानव जाति की बात होगी।

दोस्तों, आस्ट्रेलिया कैसे बना और क्यों बना इसे बताने की जरूरत नहीं, ये तो ब्रिटेन वाले हर एशेज टूरनामेंट के पहले खुद ही बता देते हैं। मेरी तरफ से सिर्फ इतना ही, कि वो गुंडे और मवालियों से बना देश है और धन-संपदा आने के बाद वहाँ के लोगों का दिमाग काफी पहले खराब हो गया था। आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम का घमंडी व्यवहार यह बताने के लिए काफी है और अब इन घटनाओं से यह भी सिद्ध हो गया है कि रंगभेद की टिप्पणी करने में हम भारतीय आगे हैं या वो आस्ट्रेलियाई (मैंने हरभजन और साइमंड्स मामले में यह कहा)। खैर, आस्ट्रेलिया में यह सब जो हो रहा है इसके लिए मैं किसे दोष दूँ इस बारे में फिलहाल असमंजस में हूँ। मानव जाति है ही ऐसी, कि उसे जब भी मौका मिलता है वो अपने सामने वाले को ना सिर्फ नीचा दिखाने की कोशिश करती है बल्कि खाने को भी दौड़ती है। पूरे संसार में इसके उदाहरण हैं। रंगभेद एक शालीन शब्द है, लेकिन जातिभेद और धर्मभेद को भी मैं इसी संदर्भ में देखता हूँ द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर ने 60 लाख यहूदियों को सिर्फ इसी धर्मभेद के नाम पर मरवा दिया था। जिस अमेरिका की आज पूरे संसार में तूती बोलती है उसने अपने यहाँ के मूल निवासी करोड़ों रेड इंडियंस को मरवा-गड़वा दिया और आज उनकी संख्या घटकर 15 लाख के आस-पास पहुँच गई है। इसी प्रकार अफ्रीकी मूल के जो लोग अमेरिका में रहते हैं उनमें से एक भले ही अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया हो लेकिन आज भी वो वहाँ दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं। उन्हें आपराधिक प्रवृत्ति वाला ही माना जाता है।

ब्रिटेन ने एक समय पूरे संसार पर राज किया। आज वो भले ही एक कोने में सिमट कर रह गया हो लेकिन उसने जिस बर्बरता के साथ उसने भारत में भारतीयों को कुचला उस बारे में आप, हम और हमारी पहले की पाँच पीढ़ियाँ भी जानती हैं। दोस्तों, पूरे संसार में रंगभेद के उदाहरण बिखरे हुए हैं। दक्षिण अफ्रीका में भी इसने लंबे समय तक पाँव पसार कर रखा। आज भी यह वहाँ देखने को मिल जाता है जब आपको स्थानीय लोग गोरे लोगों के नीचे दबे हुए नजर आ जाते हैं। अब मैं बात करता हूँ हम शालीन भारतीयों की। हम सब तरफ से सिर्फ पिटते-कुटते ही नजर आते हैं। लेकिन यकीन मानिए कि भारत ने जिस प्रकार से भेद किया वैसा तो संसार में शायद कहीं हुआ ही ना हो। इंसान की प्रवृत्ति में ही भेद है। भारत की वर्णव्यवस्था ने सबसे ज्यादा सत्यानाश किया। हमने कई शताब्दियों तक दलितों को कुचला, उनकी ऐसी-तैसी कर डाली...हमारे बाप-दादाओं ने उन्हें इतना परेशान करके रखा कि वो मोहल्ले के कुएँ की तरफ भी रुख नहीं कर पाते थे। कोई छू जाए तो उसे जिंदा जला दिया जाता था। उनपर इतने जुल्म हुए कि आज वे तंग आकर मायावती जैसी नेता के पीछे खड़े हैं। अंबेडकर के कहने पर उनमें से कईयों ने हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्धधर्म को अपनाया। हम लोगों ने उन्हें बहुत तंग किया जबकि वो सब तो हमारे भाई ही थे, इसी देश के और हमारे ही रंग के....!!!!!!!!!

मित्रों, आधुनिक संसार में रंगभेद जघन्य अपराध है। लेकिन क्या हम ही आपस में रंगभेद नहीं करते....आज भी हमारे मन में गोरी चमड़ी के प्रति खौफ, प्रेम, आकर्षण और रहस्य का मिलाजुला मिश्रण नहीं है..??
हर भारतीय आज विदेश में जाकर बसना चाहता है। मेरे स्कूल के ज्यादातर सहपाठी आज विदेशों में हैं। उन्हें वहाँ जाकर फर्क होता है। विदेशों में पढ़ने जाने के लिए भी छात्र मरे जाते हैं। उनके माता-पिता कहीं से भी लाखों रुपए का कर्ज लेकर उन्हें वहाँ भेजते हैं। ये छात्र वहाँ जाकर मन लगाकर मेहनत भी करते हैं। सफल होते हैं और अपने पेशे में नाम करते हैं। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही स्थानीय लोगों को ये लगने लगता है कि ये हमारी रोटी में से हिस्सा ले रहा है उनके मन में रंगभेद जाग जाता है। रंगभेद की फिलहाल सबसे बड़ी दी जाने वाली मिसाल बराक ओबामा ने भी अपने कार्यकाल के कुछ सबसे पहले निर्णयों में से एक यह किया कि भारत को आईटी क्षेत्र में दिया जाने वाला काम बंद करवा दिया। हमारे देश के हजारों नौजवान बेघर हो गए। तो आपको क्या लगा कि बराक ओबामा या अमेरिका रंगभेद में विश्वास नहीं करता है..??

भेद तो इंसान के मन में होता है। उसका रंग फिर भले ही कुछ भी क्यों ना हो। अगर आपके पड़ौसी के पास अचानक कहीं से रुपया आ जाए तो आप देखेंगे और महसूस करेंगे कि उसने भी अचानक ही रंग बदल लिया है और आप रंगभेद के शिकार हो गए हैं। उसकी आपसे बात करनी की स्टाइल तक बदल जाएगी। वो आपको घास डालना बंद कर देगा और उसे लगने लगेगा कि बस अब उसने दुनिया जीत ली। तो रंगभेद असुरक्षा या अतिसुरक्षा दोनों ही भावनाओं से पैदा होता है। आस्ट्रेलिया में किया जाने वाला रंगभेद असुरक्षा की भावना वाला है जबकि भारत में यह अतिसुरक्षा की वजह से जन्म लेता है। संसार से रंगभेद का खत्म होना मुश्किल है दोस्तों, कभी आप तो कभी हम इसका शिकार बनते हैं या फिर दूसरे को शिकार बनाते हैं।

आपका ही सचिन.......।