January 31, 2009

अमेरिका.....हमारा दोस्त या दुश्मन- दूसरा भाग

अमेरिकी शताब्दी का ब्लूप्रिंट
तो जिन दोस्तों ने मुझे पढ़ा उनका शुक्रिया। बात गंभीर थी इसलिए गंभीर लोगों ने ही इसे पढ़ा होगा ऐसी आशा है....
तो बात अमेरिका की हो रही थी और उसके ब्लूप्रिंट की...दुनिया को अपनी तरह से देखने और मोल्ड करने में जुटे अमेरिका ने अभी कुछ समय पहले भारतीय पाले में परमाणु समझौते की गुगली फैंकी थी....हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जिद करके उस समझौते को मंजूर भी कर लिया और अब यह जल्दी ही लागू होगा। उस समझौते में ऐसा बहुत कुछ था जो आम लोगों को नहीं पता था। मैंने इस संबंध में वैबदुनिया पोर्टल के विचार मंथन कॉलम में दो लेख लिखे थे....जिनके लिंक मैं आप लोगों को नीचे दे रहा हूं। इन्हें कॉपी-पेस्ट करके इंटरनेट पर पढ़ा जा सकता है। इनमें से एक का विषय -परमाणु समझौते का काला सच- और दूसरे का -पहले भारत अपने परमाणु संयंत्र तो सुधारे- था।..... अगर समय मिले तो जरूर पढ़िएगा....और अपना नजरिया भी बताइएगा.....
http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0708/02/1070802049_1.htm http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0708/08/1070808138_1.htm
दूसरी बात.... मैंने अमेरिका द्वारा दुनिया की आबादी को डिप्लीट करने संबंधी बात भी कही थी। मुझे इस संबंध में २७ पेज का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज मिला है। यह मेरे पास है। जिस किसी को इसमें रुचि होगी उसे ये मेल किया जा सकता है क्योंकि ये अंग्रेजी में है। इसे अमेरिका के ही एक पत्रकार ने तैयार किया है। इससे पता चलता है कि भोपाल गैस कांड क्यों हुआ था। या अमेरिका अपने रासायनिक हथियारों और जहरीली गैसों का किस प्रकार अल्पविकसित या विकासशील देशों की आबादी पर प्रयोग करता है।
तो आगे अपनी बात जारी रखता हूं...... अमेरिका एक बहुत ही रोचक देश है। २५० साल पुरानी सभ्यता....... और वहां ५० साल पुरानी वस्तुओं को एंटीक का दर्जा दे दिया जाता है, जबकि इतनी पुरानी वस्तुएँ तो आपके-हमारे घरों में मिल जाती हैं। तो...इस देश ने बहुत ही तरीके से दुनिया को कब्जे में किया है....मुख्यतः धन और फिर बल के जरिए....सबसे ज्यादा धन वह अपनी सेना को दुनिया भर में तैनात करने में लगाता है। जापान अभी तक अपनी भूमि पर उसको सहने के लिए मजबूर है। जर्मनी में भी अमेरिका की सेनाएँ तैनात हैं। तीन महासागरों में उसके सैकड़ों वार-शिप्स घूम रहे हैं। वह अफगानिस्तान में है, पाकिस्तानी सीमावर्ती इलाकों में है। नाटो के जरिए रूस के आस-पास जमा है। अफ्रीका में है और आस्ट्रेलिया में तो उसके बड़े-बड़े बेस हैं। कुल मिलाकर उसने दुनिया को घेर रखा है। अंतरिक्ष में घूम रही उसकी सेटेलाइट रूपी आंखें सभी पर नजर रखे हुए हैं। बातें पलटने में कितना माहिर है यह बताने की जरूरत नहीं..... जब पाकिस्तान के साथ था तो उसके साथ हुए हमारे युद्ध में उसकी क्या मदद नहीं की....आज उसे हमारी जरूरत है तो ऐसे बयान देता है कि भारत को लगने लगता है कि वह उसकी गुडबुक में शामिल है।
तो अमेरिकी शताब्दी के ब्लूप्रिंट वाली बात पर आते हैं...... जब अमेरिका के ट्रेड सेंटर की इमारतें गिर गई तो कुछ लोगों के मन में शक उत्पन्न हुआ कि स्टार वार्स प्रोग्राम और एंटी मिसाइल सिस्टम (इनमें कोई भी मिसाइल अमेरिका की एयरस्पेस में एंट्री करते स्वतः ही खत्म हो जाएगी) विकसित करने वाला देश कुछ हवाईजहाजों के घेरे में कैसे आ गया.....उन लोगों को बुश की नियती पर शक पहले से ही था.....तब एक ऐसी बात बाजार में आई जिसको मुस्लिम दुनिया आज भी अपने लेखन और बोलचाल में इस्तेमाल कर रही है.....कि अमेरिका ने खुद ही उन ट्रेड सेंटरों की इमारतों पर हमला करवा लिया.....उन्हें गिरवा दिया... ताकि इसके बाद उसे मुस्लिम दुनिया को घेरने और उनकी बढ़ती ताकत को कुचलने का मौका मिल जाए.....क्योंकि गिनती में इस र्धम की पालना करने वाले देश ५६ हैं.......यह बात मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं......इन तथ्यों को बताने और इनका खुलासा करने के लिए अमेरिकी बाजार में एक किताब आई और बाद में तो उसपर हॉलीवुड ने फिल्म भी बनाई.... उस किताब और फिल्म का नाम एक ही है यानी -फैरेनहाइट ९-११ (नाइन इलेवन)...... इसमें उन सभी बातों को खुलकर बताया गया है और ऐसे कई तथ्य बताए गए हैं जो बुश की ऐसी सोच के प्रति मन में संशय पैदा करते हैं।...हालांकि मुझे इस बात में संशय है लेकिन जब अमेरिकी खुद ही संशय जता रहे हैं तो क्या किया जा सकता है।
यह तो दुनिया मानती है कि सितंबर नौ-ग्यारह के बाद दुनिया बदली है.....यह सही भी है क्योंकि उस दिन ने विश्व में अमेरिका को अपनी मनमानी करने का मौका मुहैया कराया है......उसके बाद वो अपनी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर जो चाहे वो करता है.....और निश्चित तौर पर दुनिया पर हावी हुआ है....... भारत को अमेरिका इस समय मित्र के तौर पर इसलिए देख रहा है क्योंकि आतंकवाद के भुगतभोगी हम लंबे समय से रहे हैं......और उसे लग रहा है कि हम उसका साथ देंगे.....लेकिन उन इमारतों के गिरने से पहले क्या उसे हमारी बातें झूठी लगती थीं????? भारत से काम निकलने के बाद उसका हमारे प्रति क्या नजरिया रहेगा, तय नहीं है.......इस बारे में बातें बहुत हैं....अमेरिका के निशाने पर भी अभी बहुत कुछ है...हालांकि बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद लोग मान रहे हैं कि अमेरिका की नीतियों में बदलाव आएगा लेकिन सनद रहे कि अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति क्यों ना बन जाए उसकी नीतियाँ वही होती हैं जो अमेरिका के हित में हों। फिर भले ही वो राष्ट्रपति डेमोक्रेट हो या रिपब्लिकन....बिल क्लिंटन और जार्ज बुश का शासन काल हम देख चुके हैं और हमने ये भी देखा है कि उन्होंने कितनी लॉलीपॉप भारत को चूसने के लिए दी थीं। दोस्तों, इस मुद्दे पर बात आगे भी की जा सकती है....बताने के लिए अभी बहुत कुछ है। लेकिन यह सब बातें करना तभी अच्छा लगेगा जब आप लोग इस विषय में मेरा साथ देंगे......अभी बस इतना ही......बाकि बातें बाद में
आपका ही सचिन.....।

January 30, 2009

अमेरिका....हमारा दोस्त या दुश्मन-पहला भाग

२१ वीं शताब्दी को अमेरिकी शताब्दी बनाने का ब्लूप्रिंट
दोस्तों, मेरी तरफ से सब लोगों को बधाई, आखिर तमाम प्रचार के बाद बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए हैं। भारतीय भी खुश हैं क्योंकि उनकी चमड़ी के मिलते जुलते रंग का कोई व्यक्ति अमेरिका में पहली बार राष्ट्रपति बन गया है। इस बात से खुश होकर अमेरिका के एक भारतीय राजनीतिज्ञ ने आखिर ये तक कह दिया कि अगले दो दशकों में कोई भारतीय अमेरिका का राष्ट्रपति बन सकता है.....मेरी तरफ से डबल बधाई.....।
अमेरिका....अमेरिका...अमेरिका....यह शब्द सुन-सुनकर ही हमारे और आपके बच्चे बड़े हो रहे हैं...उनके ख्वाबों में है अमेरिका....सब के सब वहां जाकर आईटी इंजीनियर जो बनना चाहते हैं ( अगर यही हालत रही तो थोड़े दिन बाद भारत से चित्रकार, कलाकार, संगीतकार और अन्य विधाओं के लोग बनना बंद हो जाएंगे और हम सिर्फ अमेरिकियों के लिए आईटी चाकर पैदा करने वाला कारखाना भर बनकर रह जाएंगे)....... लोग कह रहे हैं कि अमेरिका एक ऐसा देश है जो सबको मौका देता है...वहां बिना भेदभाव के आगे बढ़ने के अवसर मिलते हैं...आप तुरत-फुरत अमीर बन सकते हैं....और....और....और भी बहुत कुछ (मेरे पास शब्द नहीं हैं).....
लेकिन भारतीय अमेरिकियों की बदौलत ही नहीं बल्कि वैसे भी बहुत हिम्मती हैं.... अमेरिका में लगभग ३२ लाख भारतीय रहते हैं....यानी अमेरिका की लगभग एक प्रतिशत आबादी भारतीय मूल की है। इनमें से ज्यादातर संपन्न हैं और भारत का नाम कर रहे हैं... लेकिन अगर आप भारतीयों की दुनिया भर में स्थिति देखें तो वे जहां भी हैं संपन्न हैं। विश्व के विभिन्न कोनों में कुल ढाई करोड़ भारतीय रहते हैं... अमेरिका और केनेडा तो हैं हीं.... इसके अलावा इनमें यूरोप के आईसलैण्ड, स्काटलैण्ड, स्पेन से लेकर अफ्रीका के केन्या, फिजी......नीचे न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया....बगल में थाईलैण्ड, मारीशस, हांगकांग, सिंगापुर, से लेकर रूस और सबदूर भारतीय मौजूद हैं.... मुख्यरूप से गुजराती, मारवाड़ियों, पंजाबियों और सिखों ने बाहर जाकर काम करने की हिम्मत दिखाई है.....मुस्लिम अरब देशों में बहुतायत में गए हैं....आखिर किस देश ने भारतीयों को बढ़ने में मदद नहीं की...वे जहां हैं अपनी दम पर हैं और संपन्न हैं...तो भाईयों इस मामले में अमेरिका के गुण गाने हमें इसलिए बंद कर देने चाहिए......क्योंकि हमने वहां अपनी उपयोगिता सिद्ध करके दिखाई है... वह देश हमें ऐसे ही तरक्की नहीं दे रहा है...... अब तस्वीर के दूसरे रुख की बात करते हैं..इनमें से शायद कुछ बातें आप जानते हों तो शायद कुछ आपके लिए नई होंगी......अमेरिका भारत के लिए दोस्त है या दुश्मन.....यह तो काफी बाद का है....पहला सवाल है कि अमेरिका विश्व का दोस्त है या दुश्मन...???? यह क्यों कहा....? तो पहले कुछ तथ्यों पर नजर....
यह तो आपको पता ही होगा कि विश्व में सबसे रईसी और सबसे ज्यादा रईसों की संख्या भी अमेरिका के पास है.....यूएन की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका के पहले पांच खरबपतियों की संपत्ति विश्व के १४९ अविकसित देशों की कुल जीडीपी से भी ज्यादा है.....धन्य है यह गोरा देश....पूरी पृथ्वी पर इतनी चौड़ी खाई तो आपको अंतरिक्ष से भी दिखाई नहीं देगी जितनी इन माइग्रेटेड लोगों ने बना रखी है.... दुनिया भूख से मर रही है और वहां दौलत का अंत ही नहीं..... अब दूसरा तथ्य........अमेरिका जब-तब दुनिया से गरीबी मिटाने का संकल्प लेता रहता है....वह गरीबी नहीं गरीबों को मिटाने की बात कर रहा है.....मेरे पास कुछ अमेरिकी विशेषज्ञों के डाक्यूमेंट्स हैं जिनसे पता चलता है कि वह दुनिया की आबादी को डिप्लीट यानी कम करने की जुगाड़ में है (इन डाक्यूमेन्टस का उल्लेख मैं अपने ब्लाग की अगली कड़ी में करूंगा और हो सका तो उसकी लिंक भी यहां उपलब्ध कराऊंगा)......आप लोगों ने शायद वाइट मैन्स बर्डन थ्योरी सुनी होगी.....इस थ्योरी का आशय है कि दुनिया को चलाने और सुधारने का भार या कहें जिम्मा इन गोरे लोगों पर है। भाई लोगों इसीलिए तो हालीवुड फिल्मों में अक्सर ये अमेरिकी (और उनके साथ ब्रिटिश) दुनिया को बचाते हुए अमूमन मिल जाते हैं.....मानसिक रूप से दिवालिए लोग हैं ये.....
अब एक और बात......ध्यान दीजिएगा.... सन २००१......जब महात्मा जार्ज डब्ल्यू बुश (जो शक्ल से भेड़िए जैसे हैं और जिन्हे बीमारी भी वहीं है जो भेड़िए को होती है यानी डिस्लेक्सिया) ने एक गोपनीय ग्रुप बनाया.....(वैसे ये और इनके बाप सीनियर बुश पहले से ही एक गोपनीय ग्रुप यानी सीक्रेट सोसायटी स्कल्स एंड बोन्स के मेंबर हैं....यह सोसायटी कितनी वाहियात है यह आपको वीकिपीडिया से पता चलेगा....कृपया जाएं और पता लगाएँ.....उसके बाद मैं उसके बारे में कुछ और भी बहुत रोचक बातें बताउंगा..) ......इस ग्रुप में कॉलेन पॉवेल और पॉल वुल्फोविट्ज (जिन्हे एक महिला के चक्कर में विश्व बैंक की अध्यक्षता खोनी पड़ी थी) शामिल थे। इस ग्रुप ने एक ब्लू प्रिंट बनाया था जिसका मुख्य उद्देश्य था.......द ट्वन्टी फर्स्ट सेंचुरी शुड बीन एन अमेरिकन सेंचुरी.....यानी २१वीं सदी अमेरिका की होनी चाहिए और किसी की नहीं......यह ब्लू प्रिंट वाली बात सामने आई ही थी कि उसके तुरंत बाद अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिर गए......उसके बाद क्या हुआ दुनिया को मालूम है......सबसे पहले अफगानिस्तान.....फिर इराक.....अब इरान पर निगाहें और उत्तरी कोरिया को खुलेआम धमकियाँ......( मैं बता देना चाहता हूं जिस प्रकार हिन्दी फिल्में फ्लाप नहीं होती और संगीत-वितरण अधिकार बेचकर उसका रुपया पहले ही निकाल लिया जाता है....उसी प्रकार अमेरिका को किसी युद्ध में नुकसान नहीं होता.....वह अपना फायदा पहले ही निकाल लेता है....या धमकियां देकर मित्र राष्ट्रों से ले लेता है)..............
तो ट्रेड सेंटर की इमारतें गिर गई.....अमेरिका ने संसार भर के मुसलमानों को आतंकवादी घोषित कर दिया और सारे इस्लामिक राष्ट्रों की ओर निशाना साध दिया.....मुस्लिम राष्ट्र इन्हें जहां इस्लाम के खिलाफ युद्ध मान रहे हैं मेरा नजरिया इसमें दूसरा है.....अमेरिका किसी का सगा नहीं है....सउदी अरब, कुवैत का जहां वो हितैषी बनता है.....पाकिस्तान को जहां वह बगलबच्चा बनाकर रखता है.....वहीं भारत को जब तब गुगली फैंकता रहता है.....इसके बहुत सारे उदाहरण हैं...वर्तमान में चल रहा मुंबई हमले की जाँच भी इसी का उदाहरण है जिसमें हमें लगातार गुगली फैंकी जा रही है।
अब बाकि अगले ब्लाग में नहीं तो लेख की लंबाई से आप लोग बोर हो जाएंगे......विषय में रुचि आ रही है या नहीं...कृपया बताइएगा....उसी प्रकार की मेहनत इसके अगले भाग को लिखने में करूंगा......तब तक आप लोगों से विदा आपका ही सचिन.....।

January 28, 2009

उत्तर आधुनिकतावाद और विखंडन का सिद्धांत

अब संसार का समाज किसी को बड़ा नहीं बनने देगा
मित्रों, १९८० के दशक में एक किताब आई थी, उसका टॉपिक वही है जो मैंने इस लेख का रखा है यानी उत्तर आधुनिकतावाद और विखंडन का सिद्धांत...इस किताब में संसार के कई बड़े विचारकों के विचार थे, अलग-अलग देशों के समाज को लेकर...मसलन फ्रांस के देरदा उल्लेखनीय हैं क्योंकि उन्होंने कुछ बेहद ही सटीक बातें कही थीं जो आजकल हूबहू सही उतर रही हैं....
तो भाईयों इस किताब में था कि धीरे-धीरे संसार के सारे समाज ऐसा रूप धारण कर लेंगे कि वे किसी को बड़ा ही नहीं बनने देंगे यानी अब कोई बड़ा आदमी नहीं बन पाएगा...दूसरे शब्दों में आगे कोई भारत का नेता नहीं होगा...मध्यप्रदेश या उत्तरप्रदेश का नेता भी मुश्किल से ही कोई होगा....मतलब ये नेता किसी जाति विशेष का हो सकता है..मसलन यादवों का नेता उभर कर सामने आ सकता है ( आ भी रहा है), दलितों का नेता बन सकता है या किसी अन्य समुदाय या संप्रदाय विशेष का नेता बन सकता है लेकिन देश का नेता होना अब संभव नहीं जान पड़ता क्योंकि सामाजिक ढाँचा टिपिकल होगा और वो किसी को बड़ा बनने में सपोर्ट नहीं करेगा...।
तो दोस्तों उन सभी विचारकों ने १०० और २०० साल पहले ही यह अनुमान लगा लिया था कि दुनिया किस दिशा में जाने वाली है...?? वे जान गए थे कि भविष्य में टांग खिंचाई ज्यादा भयानक रूप धारण कर लेगी और तिकड़मी लोग ही आगे जा पाएँगे...नतीजा बड़े लोगों की सैकेण्ड लाइन तैयार ही नहीं हो पाएगी..आपके सामने कुछ उदाहरण रखना चाहूँगा.....
भारतीय साहित्य की बात करते हैं...पिछले कुछ वर्षों में कई बड़े लोग चले गए..निर्मल वर्मा चले गए...अमृता प्रीतम चली गईं...कमलेश्वर चले गए...त्रिलोचन जी चले गए...सब अपने जीवन के ७०, ८० और ९० के दशक में थे..अब थोड़े से कुछ बचे हैं...राजेन्द्र यादव हैं....नामवर सिंह जी हैं...केदारनाथ सिंह जी, काशीनाथ जी, रविन्द्र कालिया जी, दूधनाथ सिंह जी भी हैं...लेकिन अगले २० साल बाद कौन होगा...या कहें कि अगले दशक में ही कौन होगा..कोई सेकेण्ड लाइन ही नहीं है.....
ठीक ऐसा ही भारतीय राजनीति के साथ भी है...बड़े नेता बुजुर्ग हो चुके हैं और उनके बाद सेकेण्ड लाइन में परिवारवाद के पोषक ही सामने हैं..अपने बूते कोई बड़ा नेता बन जाएगा इसकी गुंजाइश कम ही है...ज्योतिरादित्य सिंधिया माधवराव जी के नाम पर खड़े हैं.....राहुल गाँधी क्या हैं बताने की जरूरत नहीं....मुलायम के बेटे हैं....मुरली देवड़ा के बेटे हैं और कांग्रेस की यंग किचन कैबिनेट में सभी बड़े नेताओं के बेटे-बेटियाँ ही हैं ऐसे में अपने बूते उठकर सामने आने वाला भला कौन नजर आ रहा है....??
कमोबेश ऐसी ही स्थिति लगभग सभी क्षेत्रों में है...तो यही विखंडन है और उत्तर आधुनिकता में यह होना भी सुनिश्चित है...तो जिस प्रकार आप और हम सूचना क्रांति को महसूस करते हैं, कि भई वाह पिछले दस सालों में क्या जबरदस्त क्रांति हुई है...सबकुछ बदल गया है...हवाईजहाज में बैठे हों या माउन्ट एवरेस्ट पर....आप दुनिया के संपर्क में रह सकते हैं और वो भी नितांत आसानी से....सब कुछ आपकी अंगुलियों की टिप्स पर है लेकिन जब बात सामाजिक परिवर्तन की होती है तो यह कई सालों में, दशकों में, बल्कि शताब्दियों में यह धीरे-धीरे होता है इसलिए हमें नजर नहीं आता या कहें कि हम समझ नहीं पाते.....
लेकिन मैं अपने सुधि भाईयों से यह अपेक्षा करता हूँ कि यह विखंडन हम जरूर देख-समझ रहे हैं....दुनिया की जिस टेढ़ी चाल को हम रोज कोसते हैं वही परिवर्तन है और शायद आपको और हमको इसे महसूस करना चाहिए क्योंकि इसका कयास तो काफी पहले ही लग चुका है....कई बार हमें इसे समझना चाहिए और इसके मजे भी लेना चाहिए कि हम इस बड़े वक्त के परिवर्तन के साक्षी बन रहे हैं। हालांकि यह वक्त लोगों के लिए उतना अच्छा नहीं होगा...रुपयों से जुड़ी तरक्की के लेवल पर हो सकता है लेकिन सैद्धांतिक और संस्कारित तौर पर तो नहीं ही होगा लेकिन फिर भी हमें इसमें जीना है....
आपका ही सचिन.....।

January 27, 2009

इंसान से ज्यादा कीमती, रईसों के कुत्ते..!!

जिनके पास रुपया है उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि खर्च कहाँ करें? आज एक खबर पढ़ी...कि दिल्ली में डॉग पार्लर यानी कुत्तों को सजाने-संवारने की दुकानों का चलन काफी बढ़ गया है। इस चलन ने पिछले कुछ वर्षों में अधिक जोर पकड़ा है।... इस शहर में रईस अपने कुत्तों को इन पार्लरों में लेकर आते हैं और एक सत्र यानी एकाध घंटे के एक हजार रुपए से लेकर बीस हजार रुपए तक अपने कुत्तों पर खर्च कर देते हैं। कुत्तों के मालिक चाहते हैं कि उनका कुत्ता किसी रॉक स्टार से कम ना दिखे और इसके लिए वो उसे शैंपू से नहलवाते हैं। उनका हेयर कट, मसाज और पॉ यानी पंजों की मालिश आदि करवाते हैं.....??? 
दोस्तों, मैंने जबसे इस खबर को पढ़ा है बैचेनी से बैठा हुआ हूँ.....समझ नहीं आ रहा कि इसपर क्या कहूँ......बीस हजार रुपए अपने कुत्ते पर....... वो भी कुछ घंटों के......इतने रुपए में आपका या हमारा बच्चा सालभर एक अच्छे स्कूल में पढ़ सकता है......किसी गरीब के बच्चे की पूरे जीवन की शिक्षा इतने रुपयों में हो सकती है और किसी गरीब की बेटी का ब्याह भी इतने रुपयों में हो सकता है.......तो हमारे देश को तो देखिए और देखिए उस नवधनाढ्य पीढ़ी को जो अपने कुत्तों पर हजारों-लाखों रुपया खर्च कर रही है........उस भारत देश में जिसमें आज भी २६ करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने को मजबूर हैं.....गरीबी की रेखा यानी वो लोग जो अपना रोज का खर्चा एक डॉलर यानी ५० रुपए से भी कम रुपए में चला रहे हैं.......उस देश में जहाँ आज भी कई जानें ठीक से पेट ना भरने और छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज ना करवा सकने के कारण चली जाती हैं...अब हमारे देश में कुत्तों की कीमत इंसानी जान से ज्यादा हो गई है......अब यह भी तय होता जा रहा है कि स्थितियाँ अगर ऐसी ही रहीं तो देर-सबेर यहाँ मैक्सिको जैसी हालत होगी और रईसों के घर बुरी तरह लूटे जाएँगे......
आप लोग कह सकते हैं कि मैं कुछ ज्यादा ही निगेटिव बातें कर रहा हूँ.....लेकिन क्या करूं, जान जलती है जब पता चलता है कि हमारे देश में अर्थ की असामनता बढ़ती ही जा रही है.....यह खाई इतनी गहरी और चौड़ी होती जा रही है कि आम आदमी इसे ना तो कभी लांघ पाएगा और ना ही पाट पाएगा....इसके बाद क्या होगा, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में नक्सली गतिविधियाँ सात राज्यों में फैल चुकी हैं....नक्सलियों का ध्येय क्या है यह आप लोगों को बताने की जरूरत नहीं.....बस इतना ही कि वे अतिसंपन्न लोगों के जान के दुश्मन हैं....माओ को मानते हैं और बंदूक की नली से क्रांति किए जा रहे हैं....मैं उस आंदोलन को बिल्कुल उचित तो नहीं ठहरा रहा हूं लेकिन यह तय है कि अगर हालात ऐसे ही चलते रहे तो एक समय देश का बेरोजगार युवा भूखा मरने के बजाए उनके साथ मिलकर बंदूक उठाने से नहीं चूकेगा और फिर हमारे अतिप्राचीन समाज का क्या होगा यह डिबेटेबेल बात हो सकती है......
बात कुत्तों से शुरू हुई थी तो उन्हीं पर खत्म करूंगा कि आजकल बाजार में एक हजार से लेकर पाँच लाख रुपए तक के कुत्ते के पिल्ले आ रहे हैं, रईस उन्हें झूरकर खरीद भी रहे हैं......आम आदमी अपने आशियाने का सपना पूरा नहीं कर पा रहा है और इस देश की एक पीढ़ी उतनी कीमत के कुत्ते के पिल्ले खरीद रही है.....ये कुत्ते के पिल्ले इंसानों पर इतने ज्यादा भारी पड़ेंगे पता नहीं था.....क्या ही अच्छा होता कि ये रईस किसी गरीब का बच्चा गोद लेकर उसका जीवन संवार देते...शायद वो उनके लिए कुत्ते से तो अधिक बेहतर सिद्ध होकर दिखा ही देता...लेकिन मुझे नहीं लगता कि रईस ऐसा करेंगे, उन्हें गरीबों से ज्यादा कुत्तों में रुचि है....!!!!!!
आपका ही सचिन......।

January 24, 2009

डेली सोप्स और भारतीय महिलाएँ

एकता कपूर जैसे धारावाहिक निर्माता देश को बर्बाद कर रहे हैं
कुछ दिन पहले अपने एक रिश्तेदार के घर जाना हुआ, दोपहर का समय था इसलिए घर की महिलाएँ टीवी के सामने जमी थीं..थोड़ी देर मैं भी बैठ लिया....चूंकी मैं दोपहर में अमूमन घर के बाहर रहता हूं इसलिए टीवी पर आने वाले भयावह धारावाहिकों (डेली सोप्स) से बचा रहता हूं...लेकिन उस दिन कुछ देर टीवी के सामने बैठना पड़ा....देखता हूं कि धारावाहिक में खूब सजी धजी महिलाएं जहर उगल रही हैं......कुछ ही देर में दो-चार सुंदर चेहरे षडयंत्र रचते हुए दिखे....आदमी परेशान हो रहे हैं इन धारावाहिकों में.....चूंकी टीवी चैनलों को पता है कि दोपहर में महिलाएँ ही घर में रहती हैं इसलिए सारे डेली सोप्स महिला प्रधान होते हैं...वे ही पुरुषों को लीड करती हैं, षडयंत्र रचती हैं, पुरुषों को अपनी अंगुलियों पर नचाती हैं और डरावने रोल भी करती हैं....कुल मिलाकर घर-घर की कहानी के नाम पर एक डरावना खेल खेला जा रहा है जो हर रोज नियमित टीवी पर दिखाया जाता है....
तो बात कहने का प्लेटफार्म तैयार हो गया है....क्या हमारे देश की महिलाओं को अपना ज्ञान बढ़ाने की जरूरत नहीं है....डिस्कवरी की वैबसाइट पर जाइए...उसके कई प्रकार के चैनल्स हैं....मिलट्री, साइंस, हैल्थ, किड्स और ना जाने क्या-क्या...ठीक है आप कहेंगे कि महिलाएँ इन्हें देखकर क्या करेंगी...तो ट्रेवल एंड लिविंग है......लाइफस्टाइल है......उसका जनरल चैनल है......नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी के तमाम चैनल हैं...अच्छी बात है कि ये सब आपको अंटार्कटिका भी घर बैठे दिखा देंगे.....अब कोई ये कह सकता है कि इन सबको देखने से क्या फायदा...खासकर महिलाओं के लिए.....तो साहब जिस पृथ्वी पर हम पैदा हुए उसके बारे में थोड़ा देखने और समझने में बुराई ही क्या है....दुनिया के इतने देश...इतनी सभ्यताएँ....इतनी बोलियाँ...इतनी संस्कृतियाँ...क्या कुछ नहीं है देखने-समझने को......और इन धारावाहिकों में क्या हो रहा है....कई पति..कई-कई प्रमिकाएँ...अवैध संबंध इस कदर, की बूझो तो जानें....जिसे देखो महल जैसे घर में रह रहा है....जो परिवार तंगी वाला दिखाते हैं वो भी आलीशान घर में रह रहा मिलता है जबकि आम भारतीय को दो कमरे नसीब नहीं हो रहे हैं.......और कुछ नहीं तो ये सोप्स भारतीय महिलाओं को अपने पतियों पर शक करना और खुद की फरमाइशों को बढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं सिखाते...
कोई कह सकता है कि क्या महिलाएँ इतनी बचकाना होती हैं जो यूं ही भड़क जाएंगी...वे तो मनोरंजन के लिए देख रही हैं....तो साहब जो चीज आपको लगातार कई घंटे कई साल तक रोज दिखाई जाती रहे उसका असर दिमाग पर होना तो अवश्यंभावी है....विज्ञान भी कहता है और मनोविज्ञान भी.....संगति का प्रभाव है.....एकता कपूर अपने सोप्स में कई मिसाल पेश करती मिल जाएँगी लेकिन असल जिंदगी में वो बददिमाग और घमंडी औरत है.....फिल्मों के सितारे फिल्मों में मिसाल पेश करते हैं.....प्यार की, ईमानदारी की और ना जाने किस-किस की.....लेकिन असल जिंदगी में इसे छोड़ा और उसे पकड़ा का खेल चलता रहता है....एक-एक, कई-कई से फ्लर्ट कर रहा है...तमाम शादियां हो रही हैं....ऐसे में इनको देख-सुनकर कोई कैसे अच्छा बना रह सकता है....मनोरंजन का जीवन में महत्वपूर्ण रोल है लेकिन यह तो शो-बिजनिस है...सिर्फ व्यापार...आप पर इसका क्या असर पड़ रहा है इससे किसी को मतलब नहीं...सब सिर्फ रुपया बना रहे हैं...
मुझे ऐसा लगता है कि घर में दोपहर को रुकने वाली महिलाएं माँ हैं जिन्हें अपने बच्चों को बहुत ऊंचाइयों तक ले जाना है....कहते हैं कि मां बच्चे की पहली शिक्षक होती है....अगर वे ज्ञान या कहें सकारात्मक ज्ञान प्राप्त करेंगी और उसे अपने बच्चों को देंगी तो निश्चित ही हमारे देश की आगे आने वाली पौध जोरदार होगी...ज्ञानवान होगी...इसलिए वे सिर्फ ये ना सोंचें कि वे घर में बैठकर और क्या करें... हो सकता है कि उनका बच्चा उनके ज्ञान से पोषित होकर दुनिया जीते.....शिवाजी बने..जैसा कि जीजाबाई ने उन्हें बनाया था..
आपका ही सचिन......।

January 23, 2009

गोरेपन और सफलता के बीच संबंध..!!

गोरे रंग का भूत अभी तक हमारे सिर पर सवार है
पिछले काफी समय से टीवी पर एक विज्ञापन देख रहा हूं..यह एक विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापनों की पूरी एक सीरीज है...औरतों और मर्दों दोनों के लिए है....फेयर एंड लवली वालों ने बनाई है.....वे खुशखबरी दे रहे हैं कि अब वे मर्दों के लिए भी गोरेपन वाली क्रीम ले आए हैं.....यानी अब मर्दों को काले रहने की जरूरत नहीं है......वे भी दूसरे गोरों की तरह इस रंग को अपनाकर शानदार सफलता पा सकते हैं...दूसरी ओर लड़कियों वाला विज्ञापन तो है ही जिसमें इस क्रीम को लड़कियां सात दिन तक लगाती हैं और उसके बाद उनमें से कोई एयरहोस्टेस बन जाती है तो कोई फिल्म स्टार बन जाती है.....कोई टीवी स्टार बनती है तो कोई न्यूज एंकर बन जाती है....इन क्रीम वालों का बस चले तो यह पूरे हिन्दुस्तान को ही गोरा बना दें और सबको सफल...!!!!!!
तो भाईयों और बहनों (माफ किजिए यह शब्द सब के लिए नहीं कह रहा हूं.......जो गोरी होंगी उनके लिए बहन करने से पहले सोचूंगा.....हा...हा) खैर भारत पिछले पांच हजार सालों (इतिहासविदों की नजरों में) और लाखों सालों (हमारे धर्म के अनुसार) से कई रंग-रूपों वाले लोगों का घर रहा है.....काश वे लोग यह जान पाते कि फेयर एंड लवली इस समय सबको गोरा किए दे रही है तो उन्हें तब पैदा होने का अफसोस जरूर हुआ होता।
तो एक किस्सा....किसी ने पं. नेहरू से एक पार्टी में पूछा था (यह पार्टी ब्रिटेन में हो रही थी) कि जिस तरह हमारे देश में सब लोगों का रंग एक ही है वैसा ही आपके देश में क्यों नहीं है.....या आपके देश में इतने रंगों के लोग कैसे मिलते हैं......तो नेहरूजी ने कहा था कि गधे सब जगह एक ही रंग के होते हैं जबकि घोड़े कई रंगों में पाए जाते हैं.......तो भई यह तो हो गई मजाक वाली बात लेकिन असलियत उल्टी है......हम भारतीय गोरे रंग वालों को घोड़ा और काले, हल्के या भूरे रंग वालों को गधा मानते हैं.......यह गोरा रंग हमारे ऊपर इस कदर हावी है कि लोग शादी के लिए भी लड़की में गोरापन ढूंढते हैं जैसे गोरी होकर वह क्या निहाल कर लेगी....?????? आश्चर्य है कि हमारे इस आदर्शों वाले देश को यह क्या हो गया है......माना कि अंग्रेज हमारी छाती पर २५० साल चढ़े रहे.......लेकिन उनके उतरने के बाद उनकी भाषा और उनका रंग इतने सालों तक चढ़ा रहेगा यह किसी ने नहीं सोचा था.....अगर आप लंबे हैं और गौरांग है तो अपनी सफलता की गारंटी मानिए....और अगर कोई लड़की गोरी है तो माता-पिता को उसकी शादी और दहेज की समस्या से मुक्त मिल गई समझो....हद हो गई.....गुणों की कद्र करने वाले इस देश में यह क्या.....और इस बात को इस क्रीम बनाने वाली कंपनी ने लपक लिया और अब वो हमारी कमजोरी पर प्रहार कर-करके कह रही है कि जल्दी से गोरा बन जाओ नहीं तो असफलता हाथ लगेगी..।
वैसे गोरे रंग का इतिहास लंबा है.....इस रंग के लोग दुनिया को बचा रहे हैं और वाइट मैन्स बर्डन थ्योरी का बाजा पिछले कई सौ सालों से बजा रहे हैं...लेकिन हम भारतीयों के सिर पर यह बाजा इतना असर करेगा कि लोग गोरा होने के लिए क्रीम का इस्तेमाल करने लगेंगे तो क्या होगा सोचो.....कोई कह सकता है कि एक विज्ञापन को लेकर इतनी लंबी-चौड़ी बात क्यों....तो साहब यह विज्ञापन कई सालों से सिर्फ इसी बूते चल रहा है कि इस देश की युवतियां इस क्रीम को खरीद रही हैं (गोरा होने के लिए)...अन्यथा किसी कंपनी में दम नहीं है कि अपने ना बिकने वाले ब्रांड का ऐसा प्रचार करे...तो अंत में सिर्फ यही कि इस क्रीम को नहीं खरीदना है...इसके पीछे दो बातें हैं.....एक यह की वाकई में इसे लगाने से कोई गोरा-वोरा नहीं होता.....और दूसरा यह कि क्रीम और उसका विज्ञापन भारतीय समाज की कुंठा को दर्शा रहे हैं......इसलिए इसे बंद होना चाहिए.....और एक बात यह भी कि अगर मैं उन भारतीयों (और वो भी गोरे नहीं)...का उदाहरण दूं जो महान हुए....सर्वकालिक महान.... तो समझो इस पन्ने जैसे कई पन्ने भरेंगे.....इसलिए उन्हें खोजने का काम आपका रहा.....।
आपका ही सचिन......।

January 22, 2009

रियलिटी शो और मशहूर होने की ललक!



सिर्फ नाच-गाकर या गालियाँ देकर ही नामचीन हो जाना चाहती है नई पीढ़ी

दोस्तों, आजकल देर रात कभी टीवी खोलकर देखता हूँ तो वहाँ एमटीवी पर एक नंगा रियलिटी शो खड़ा मिलता है जिसका नाम है एमटीवी रोडीज। इस शो में भाग लेने के लिए हमारे देश के खूबसूरत और जवाँ युवा कतार में लगे खड़े मिलते हैं। जब वे आडिशन देने अंदर जाते हैं तो दो गंजे उनका गालियों से स्वागत करते हैं, भला बुरा कहते हैं। ये युवा जो अपने घरवालों को अपनी पेंट की जिप से लगाकर रखते हैं इन गंजों की बातें खून का घूँट पीकर और मुस्कुराते हुए सिर्फ इसलिए सह जाते हैं क्योंकि वो मशहूर होना चाहते हैं। पूरे सीरियल के दौरान अब ये गाली देने और सुनने का सिलसिला चलता रहेगा। मैंने उसकी फाड़ दी और उसने मेरी फाड़ दी। ये शब्द वहाँ लड़कियों से सुनने को मिलते रहेंगे। ये है हमारी नई पीढ़ी जो मशहूर होने की ललक में अपनी फड़वा रही है। दूसरी ओर एक जमात ऐसी भी है जो नाच-गाकर मशहूर होना चाहती है। नाच और गाना भी खुद का नहीं। किसी फिल्मी का। मतलब फिल्मों के गानों और नृत्यों की नकल पेश करके जजों का इम्प्रेस करने का सिलसिला चल रहा है। दोस्तों दुख होता है इस भांडपने को देखकर, आज आपके सामने इसी विषय पर अपने विचार रखूँगा। तो शुरू करता हूँ...।
वर्तमान दौर इलेक्ट्रॉनिक मी़डिया का है। यह टीवी मीडिया लोगों का चेहरा बना और बिगाड़ रहा है। लोग खुश हैं क्योंकि वे मशहूर हो रहे हैं, उन्हें लग रहा है कि दुनिया उन्हें देख रही है और खुशी और गम में उनका साथ दे रही है। इन बातों को भुनाने के लिए टीवी चैनल रियलिटी शो के भ्रम रच रहे हैं...इस मायाजाल में फँसकर हमारे युवा और बच्चे लगभग पगलाए जा रहे हैं....वे जोर-जोर से नाच रहे हैं....सुरीले बनकर गा रहे हैं....और अगले राउंड में ना पहुँच पाने पर आँखों में आंसू भर-भर कर रो रहे हैं....उनका साथ उनके माता-पिता भी दे रहे हैं....माएँ प्रतियोगिता के दौरान भगवान से आर्शीवाद माँगती हुई नजर आती हैं....सलेक्ट ना होने पर भीगी पलकों को अपने पल्लू से पोंछती नजर आती हैं....आखिर हो क्या गया है हमारे इस महान देश को......यहाँ के लोगों की आकांक्षाएँ इतनी छोटी तो ना थीं......वो कभी इतनी आसानी से तो जीवन की जंग जीतना नहीं चाहते थे.....????????
टीवी चैनलों पर कई प्रकार के रियलिटी शो हमेशा चलते रहते हैं....बच्चों के लिए इसपर लिटिल चैंप्स चला...इंडियन आईडल...फेम गुरूकुल.....सारेगामापा.....नच बलिए.....बिग बॉस......कितने ही हैं जिन्होंने इस भ्रम को जिलाए रखा......सबमें क्या फर्जीवाड़ा हुआ आप लोगों को पता है.......और कितने रियलिटी शो के विजेता स्थापित सितारा बन पाए यह भी पता है......इन शो के बहाने करोड़ों रुपए बटोरने वाले टीवी चैनलों ने उन विजेताओं के साथ क्या किया यह भी पता है.......कई विजेता गुमनामी के अंधेरे में खो गए तो कई इस बात की रिपोर्ट लिखाते फिरे कि उनके साथ किए गए वादे पूरे नहीं किए गए......जो हारे उन्होंने बेइमानी की शिकायत की.....और उन जजों को क्या कहूं जो पूरे शो के दौरान सब प्रतियोगियों के लिए कहते रहे कि वो महान कलाकार बनने वाले हैं........पानी पर चढ़ा-चढ़ाकर डुबो दिया बच्चों को......
देश की भोली जनता रात को टीवी के सामने बैठ जाती है और जिसकी शक्ल, सूरत, नाच या गाना पसंद आता है उसे हाथ में मोबाइल लेकर एसएमएस करने लग जाती है.....टीवी चैनल भी दर्शकों से एसएमएस करने की माँग बहुत भावुक अंदाज में करते हैं....भोली जनता उनकी बातों में आ जाती है बिना यह बात जाने की इन एसएमएस की कीमत वो क्या चुकाने वाली है......बीच में अखबारों में एक खबर भी आई थी कि इसी प्रकार के एक कार्यक्रम में एसएमएस करते रहने से एक घर में मोबाइल का बिल ३० हजार रुपए आ गया था........इन कार्यक्रमों की सच्चाई का आलम यह है कि बिग बॉस को भी लोगों ने लाखों एसएमएस किए और बाद में उसी सीरियल की एक प्रतियोगी ने (यह एक मॉडल थी) ने अपने एक साक्षात्कार में कह दिया था कि वे लोग इस कार्यक्रम की शूटिंग की रिहर्सल ठीक वैसे ही करते थे जैसे किसी नाटक की होती है.....यानी सबकुछ पहले से सेट था, निर्धारित था और हम समझते रहे कि सब ओरिजनल हो रहा है........
अब उन जजों की भी बात करते हैं जो इन कार्यक्रम में प्रतियोगियों को चने के झाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं......जावेद अख्तर को मैं पसंद करता हूं.....वो टू द पाइंट बात करते हैं इसलिए कई लोग उन्हें पसंद करते हैं......लेकिन समझ नहीं आता कि वो इस भीड़ में बैठकर क्या कर रहे हैं.......धीरे-धीरे इन रियलिटी शो की रियलिटी खुलने लगी है......इस पर खुद मीडिया में भी काफी कुछ छप चुका है.......ऐसे में जावेद अख्तर जैसे गंभीर लोगों को इन शो से हट जाना चाहिए.......जो अन्य बड़े नाम इन शो से जुड़े दिखते हैं वो टीवी चैनलों की ताकत को सिर्फ नमन करने आते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि वो इन्हीं चैनलों की बदौलत स्टार हैं.....इस छोटे परदे की वजह से ही उनके चेहरे हर घर में पहचाने जाते हैं....ये अलग बात है कि उन जजों को यह नहीं पता होता कि उनकी नकली बातें कितने युवाओं और बच्चों के मन में गंभीर महत्वाकांक्षाएँ पैदा कर देती हैं और कई बार इन कोमल मनों पर हार का बोझ जरूरत से ज्यादा दबाव बना देता है....
हमारे महान देश के माता-पिता को चाहिए वे बच्चों को जीवन के भावी संघर्ष के लिए तैयार करें.....उन्हें जिंदगी के कठोर पथ के बारे में जानकारी दें....उन्हें ताकतवर और मजबूत बनाएं....लेकिन वें हैं कि अपने बच्चों को अदनान सामी और हिमेश रेशमिया के सामने ले जाकर खड़ा कर देते हैं......फेम गुरूकुल के विजेता काजी तौकीर का क्या हुआ.......उसे ४० लाख एसएमएस मिले......अब वो कहीं नहीं है क्योंकि हम सब जानते थे कि वो ढंग से गाना ही नहीं जानता था.......उसे भावानात्मक बहाव ने जिताया.......इस बारे में बाद में चर्चाएं भी हुई थीं.....हम हमेशा श्रेष्ठ प्रतिभा को ही जिताएँ ऐसा जरूरी नहीं......और जो श्रेष्ठ प्रतिभा होगी वो खुद ही जीवन में सफलता का रास्ता बनाएगी....जैसे नदी अपना रास्ता बनाती है.....
आपका ही सचिन......। 

January 17, 2009

फिल्मी सितारे और भारतीय राजनीति

राजनीति को ग्लैमर के तौर पर आजमाने वालों की कमी नहीं


दोस्तों, आज सुबह से टीवी चैनल वालों ने फिर से अपने खटकर्म शुरू कर दिए थे और लगातार दिखाए जा रहे थे कि संजय दत्त लखनऊ से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की अपनी घोषणा के बाद वहाँ पहुँच गए हैं और कैसे उनका धुँआधार स्वागत किया जा रहा है। लोग पागल हो रहे हैं संजय को देखकर, वे खुश हैं कि संजय लखनऊ से चुनाव लड़ रहे हैं आदि-आदि। तमाम प्रकार की फालतू की अटकलें लगाई जा रही हैं। उस नायक (?) के लिए जो १.५ साल जेल में एके ५६ राइफल रखने के कारण बंद रहा और जिसपर टाडा और फिर पोटा लगाया गया। हालांकि आजकल राजनीतिज्ञों के लिए तो ये क्वालिफिकेशन ही है लेकिन मैं फिल्मी सितारों और राजनीति की बातें करना चाहता हूँ। इस वाक्ये से मेरे मन में एकदम से कई सारी बातें आईं....दोस्त लोगों से बाँटना चाहता हूँ.....
तो गोविंदा सांसद हैं साहब.....फिल्मी सितारे धर्मेन्द्र भी सांसद हैं बीकानेर से.....अपने बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा भी सांसद हैं.....बीच में स्वास्थ्य और फिर जहाजरानी मंत्री बन गए थे एनडीए सरकार में....स्वर साम्राज्ञी लतामंगेशकर राज्यसभा सांसद हैं..... हेमा मालिनी सांसद हैं...... स्मृति इरानी ( सास भी कभी बहू थी वाली) भी सांसद हैं......नवजोत सिंह सिद्धू भी सांसद हैं.....विनोद खन्ना भी लोकसभा सांसद हैं.... अमिताभ बच्चन भी लोकसभा का स्वाद चखकर देख चुके हैं.....

यह तो हुए फिल्मी सितारे....... अब दूसरी ओर देखें..... तो अनिल अंबानी सांसद थे....उन्होंने इस्तीफा दे दिया था....विजय माल्या भी सांसद हैं.... और..और कितने गिनाऊँ.....यह बात आगे बताता हूं कि यह सब क्यों हैं जबकि राजनीति और आम जनता से इन्हें कोई लेना-देना नहीं है.......

तो अब आप कहेंगे कि यह ज्ञान क्यों, यह सबको पता है......... लेकिन मैं आप सबसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं (युवक और युवतियों दोनो के लिए है) कि अगर आपको किसी लड़के या लड़की की आवाज पसंद आई या फिर किसी के सिर के बाल पसंद आए या किसी की टाँगे या घुटने पसंद आए तो क्या आप उससे शादी कर लेंगे??????? शायद नहीं....शायद इसलिए लगाया क्योंकि सबकी सोच एकसी नहीं होती....

तो इन फिल्मी सितारों को लोकसभा में चुनकर हम क्यों अपना मजाक बनवाते हैं जबकि हमें पता है कि ये लोग जब तक नाच-गाना नहीं कर लेंगे इन्हें जीवन जीने में मजा नहीं आएगा......एशो-आराम से फुर्सत नहीं निकाल पाएँगे....फिर भी भावनाओं में बहकर हम इन्हें चुन लेते हैं.....धर्मेन्द्र बीकानेर में शोले के डायलॉग सुना-सुनाकर चुनाव जीत गए जबकि बाद के पाँच साल में एक बार भी वहाँ झांकने नहीं गए.... अब वहां के लोग उन्हें गालियां दे रहे हैं.....इसी प्रकार गोविंदा भी ठुकमे लगा-लगाकर चुनाव जीते लिए अब उन्हें फिल्मों में सलमान के साथ ठुमके लगाने से फुर्सत नहीं है। उनके संसदीय क्षेत्र की जनता उन्हें अब तक का सबसे नाकारा सांसद घोषित कर चुकी है.....शत्रुघ्न सिन्हा भी चुने जाने के तुरंत बाद फिल्म की शूटिग में व्यस्त हो गए थे......हेमा मालिनी और अन्य पुरानी अभिनेत्रियाँ संसद में हैं जरूर लेकिन वे क्या रोल निभाती हैं यह बताने की जरूरत नहीं है......लताजी भी राज्यसभा में चुने जाने के बाद अभी तक सिर्फ एक ही बार वहाँ गई हैं.....

ऐसा नहीं है कि फिल्म में काम करने वालों को राजनीति नहीं आती.....जयललिता अभिनेत्री थीं.... एमजी रामचंद्रन भी अभिनेता थे.....स्व. सुनील दत्त अभिनेता थे......और तो और अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन भी हॉलीवुड अभिनेता थे.....कैलीफोर्निया के वर्तमान गर्वनर आरनोल्ड श्वाजनेगर मशहूर हॉलीवुड एक्शन हीरो थे........लेकिन एक बार राजनीति में आने के बाद उन्होंने अपना सबकुछ राजनीति और देश को दे दिया......कम से कम समय तो दिया ही यानी पूर्णकालिक रहे.....लेकिन दूसरी ओर कई अभिनेता फिल्मों में व्यस्त रहकर अपने क्षेत्र की जनता को छलते रहते हैं.......उन्हें राजनीति से जुड़ने में सिर्फ एक प्रकार का ग्लैमर नजर आता है।

असल में ग्लैमर या उद्योग क्षेत्र के लोग राजनीति में आते क्यों हैं.....समझने वाली बात है......एक बार मैंने खबर पढ़ी थी कि अमेरिका में बुद्ध धर्म को ग्रहण करने वालों की संख्या बढ़ी है......लेकिन साथ ही यह भी बताया गया था कि अमेरिकी लोग उस धर्म के मूल को कुछ नहीं मानते....सारी बदमाशी करते हैं (वो शिल्पा शेट्टी वाला भूरा रिचर्ड गेरे भी याद है ना आपको, वो भी बौद्ध है) बस थोड़ा चेंज के लिए उन्होंने अपना धर्म बदल लिया.....बस अपनी राजनीति वाली बात में भी वहीं चेंज है.........संसद में जाने का शौक है, दुनिया के सारे ऐश कर लेते हैं तब सोचते हैं क्यों ना संसद में भी चक्कर लगाके देख लिया जाए.....और हमारे देश की जनता तो चकरघिन्नी है ही..... जो इनके चक्कर में आ जाती है....

विजय माल्या के लिए तो इंडिया टुडे ने छापा भी था कि उन्होंने रुपए देकर अपने लिए राज्यसभा की सीट बुक करवा ली और जद को रुपयों का ढेर दे दिया....इसी प्रकार का काम अनिल अंबानी ने भी किया था लेकिन बीच में उनका जमीर जाग गया और उन्होंने अपनी संसदीय सदस्यता से इस्तीफा दे दिया (वो लाभ के पद वाले मामले के दिनों में)....

इस प्रकार की तमाम बातें हमारे सामने आती रहती हैं लेकिन हम उनपर रिएक्ट ही नहीं करते......और लोकतंत्र की इस खामी का फायदा इस प्रकार के लोगों को मिल जाता है....हमें अपने को राष्ट्रीय परिदृश्य में इतना परिपक्व दिखाने की जरूरत है कि कोई राजनैतिक पार्टी किसी लफ्फाज या नौटंकी छाप व्यक्ति को पार्टी का टिकट देने की जुर्रत ना करे और संसद में पहुँचाने की तो कम से कम सोचे भी नहीं.....तभी हमें और हमारे लोकतंत्र को सही मायनों में परिपक्व माना जाएगा.....हमारी राजनीति पहले से ही उस नौटंकी छाप अमर सिंह को झेल रही है और वो पगला राजनेता अपने जैसे नौटंकीछापों का ही संसद में मजमा लगाए दे रहा है। आज तो संजय दत्त के साथ वो जिस जीप में सवार था उसमें भोजपुरी फिल्मों का प्रसिद्ध हीरो मनोज तिवारी और पूर्व अभिनेत्री तथा सांसद जया प्रदा और उनकी नामराशि की दूसरी सांसद जया बच्चन भी सवार थीं। हद है, पूरी फिल्म इंडस्ट्री ही संसद में पहुँच जाएगी तो वहाँ गंभीर राजनीति होगी या फिर नाच-गाना। दोस्तों से मेरा आव्हान है कि इन नचैयों को राजनीति से उखाड़ फैंको, हम तो इन्हें शो बिज में ही देख-देखकर बोर हो चुके हैं, अब संसद में नहीं देखना चाहते।

आशा है दोस्त मेरी बातों से सहमत होंगे.....

आपका ही सचिन....।

January 16, 2009

चाँदनी चौक टू चाइना बनाम भारतीय सिनेमा

फूहड़ मनोरंजन की फिल्में बनती हैं हमारे यहाँ

दोस्तों, आज अक्षय कुमार की चाँदनी चौक टू चाइना रिलीज हुई। इससे पूर्व उनकी हिट फिल्म सिंग इज किंग रीलीज हुई थी। हालांकि चाँदनी चौक.... फिल्म के लिए लोगों ने आज अच्छी प्रतिक्रियाएँ नहीं दी हैं लेकिन मैं दिन भर इस फिल्म के बारे में टीवी पर सुनता रहा। ऐसा नहीं है कि मैं ऐसा चाह रहा था बल्कि टीवी चैनल वाले ही जबरदस्ती यह सब दिखाए जा रहे थे। मुझे लगता है कि बाजार के चलते ये फिल्म सड़ी होने के बावजूद चल जाएगी क्योंकि हमारे भारत में ऐसा ही होता है। हालिया कई फिल्में इसकी उदाहरण हैं........क्या हम इस बात को समझ रहे हैं.....??
अब मुझे पढ़ने वाले दोस्त फिर कहेंगे कि बासी विषय पर लिखने बैठ गया ( मैंने सिंग इज किंग फिल्म किसी की जिद पर इत्तेफाक से ही देखी इसलिए जिक्र कर रहा हूँ)....लेकिन प्लीज मुझे माफ करिएगा मैं अमूमन फिल्मों को नहीं देखता....खासकर हिंदी फिल्मों को.....नहीं-नहीं....मैं हिन्दी फिल्मों या हिन्दी भाषा का विरोधी नहीं हूं....काफी देशभक्त हूं...और अपनों तथा अपने देश को बहुत प्यार करता हूं लेकिन छोटी-छोटी बातें मुझे कई बार बहुत परेशान कर देती हैं....आप नहीं समझ रहे ना...??? .... समझाता हूं...
एक बार किसी ने गंभीर फिल्मकार श्याम बेनेगल से पूछा कि आखिर कान (फ्रांस) जैसे विश्व विख्यात फिल्म फेस्टिवल में भारतीय फिल्मों का नंबर क्यों नहीं लगता??.... तो उनका जवाब था कि जिस देश के सिने दर्शक हर १० मिनट बाद फिल्मों में नाच-गाना देखना चाहते हों उस देश में गंभीर विषयों पर फिल्म कैसे बन सकती है..खासतौर से ऐसी फिल्मे जिन्हें कान फिल्म फैस्टिवल में जगह मिले और अवार्ड भी....... गंभीर बात है साहब लेकिन आप-हम नहीं समझ रहे....।
सिंग इज किंग या अक्षय कुमार की अन्य फिल्मों की स्टोरी ऐसी होती है कि आप-हम किसी को सुना भी नहीं सकते..... ऐसी फिल्में समाज को क्या संदेश देती हैं मुझे समझ नहीं आता लेकिन हां, ऐसी फिल्में हिट खूब होती हैं।
यहाँ मैं सिर्फ अक्षय कुमार का नाम ही नहीं ले रहा हूँ। आप शाहरुख खान की पिछली कुछ हिट फिल्मों का जिक्र कीजिए। करण जौहर के मानसिक दिवालिएपन के अलावा उन फिल्मों में कभी कुछ नजर नहीं आता। ओम शांति ओम एक बहुत ही बासे टॉपिक पर बनी फिल्म थी। .मैं ये भी देखा है कि शाहरुख रीमेक पर विश्वास करता है। क्यों ये मैं नहीं कह सकता लेकिन उसकी सारी फिल्में कुछ दशक पहले हिन्दी में ही बन चुकी होती हैं। और अगर नहीं तो अंग्रेजी में तो वो जरूर पहले से ही बनी होती है। इस बार तो बंपर हिट गजनी की भी चोरी पकड़ी गई। अपने विजन के लिए जाने जाने वाले आमिर की यह फिल्म अंग्रेजी फिल्म मोमेंटो की नकल थी। 
तो दोस्तों, हमारे देश में फिल्म निर्माता और फिल्म निर्देशक हम लोगों के तीन घंटे छीनकर हमें सिर्फ मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोसते हैं और खुश होते हैं कि साल में इस बार इतनी फिल्में हिट हो गईं..... इतने करोड़ रुपए का व्यवसाय हुआ लेकिन समाज को क्या मिला इसपर कोई बहस नहीं होती.....हिंदी फिल्मों में हिराईनों के रोल के बारे में भी जरा चर्चा कीजिए.....आजकल निर्माता उन्हें सिर्फ नंगा करने पर ही ध्यान दे रहे हैं और ये हम जानते हैं कि इस देश में मजबूर, और मशहूर होने की लालसा वाली कितनी लड़कियाँ हैं और इसके लिए वो क्याकुछ कर-गुजरने के लिए तैयार रहती हैं.......
हॉलीवुड फिल्मों का उदाहरण दूंगा तो लोग देश-द्रोह का आरोपी बना देंगे......लेकिन ज्यादा बात ना करते हुए सिर्फ एक फिल्म का उदाहरण दूंगा......विश्व प्रसिद्ध मैट्रिक्स सीरीज की मूवीज तो आपमें से ज्यादातर लोगों ने देखी होंगी लेकिन किसी ने एक बात पर ध्यान नहीं दिया होगा......फिल्म की सीरीज की आखिरी मूवी मैट्रिक्स-३ जब खत्म होती है तो उसकी स्टारिंग के साथ जो धुन बजती है उसे सुनिएगा..... वह भारत के शास्त्रों से उठाए गए श्लोक हैं.... सर्वे संतु सुखिनः...सर्वे संतु निरामय...सर्वे भद्राणी पशयन्तु..... मा कश्चित दुखभाग भवेत....
जब मैंने मेट्रिक्स पहली बार देखी थी तभी लग रहा था कि यह हिन्दू आइडियलिज्म के ऊपर है लेकिन कोई सुबूत नहीं था......लोगों से चर्चा होती थी बस.....लेकिन अंतिम भाग ने मेरा साथ दिया और उसकी पूरी कहानी ने भी..... मैं कहना चाहता हूं कि अरबों डॉलर की फिल्म भारतीय सोच पर बन सकती है लेकिन हम विदेशी हुए जा रहे हैं.....फिल्मों में लड़कियों को ऐसे कपड़े पहनवा कर नचवा रहे हैं कि अपनी पत्नी, बच्ची या अपनी मां के साथ फिल्म नहीं देख सकते। करण जौहर की फिल्मों में आधी अंग्रेजी घुसी रहती है.....एक आदमी के कई चक्कर और एक औरत के भी कई चक्कर आम हैं.....ऐसी दो कौड़ी की लव स्टोरियों से हम अपने समाज को क्या-कुछ दे देंगे।.........??
कुछ दिनों पहले एक अन्य फिल्म रिलीज हुई थी आमिर खान की तारे जमीन पर.... इसने बहुत तारीफ बटोरी। ये प्रयास अच्छे हैं। ऐसी फिल्में बनते रहनी चाहिए लेकिन एक बिन मांगा सुझाव मेरी तरफ से भी.......
भारतीय सभ्यता और संस्कृति पांच हजार साल पुरानी है.....कई दिग्गज और जबर्दस्त लोगों की दास्तानें इससे जुड़ी हुई हैं..... अगर इन्हीं पर फिल्में बनाई जाएं तो अगले कई साल तक भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को आइडिया चुराने के लिए हॉलीवुड का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा। दूसरी ओर लव स्टोरी भी चलती रहें.... भई नहीं तो युवा मुझे गाली देंगे लेकिन कम से कम कुछ तो सार्थक हो......
हमारा १०० करोड़ लोगों का देश ओलंपिक में अपने आकार के हिसाब से अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाता (हालांकि इस बार हमने अच्छा प्रदर्शन किया) ...और ना ही आस्कर या कान में कोई अवार्ड बटोर पाता है.....तो इसके लिए दोषी हम-आप हैं.......हम जब तक ऐसी फिल्में हिट करवाते रहेंगे तब तक गंभीर प्रयास नहीं होंगे और याद रखिएगा मैं यह हर विषय पर कह रहा हूं.....खेल,फिल्म और राजनीति भी.....क्योंकि इन सबमें हमारी पसंद बहुत फूहड़ है इसलिए अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर हम पिछड़ जाते हैं......हमें अपनी पसंद सुधारनी होगी.....बस आप लोगों से सिर्फ इतना ही.....
(नोटः कृपया यहाँ स्लमडॉग मिलियनेयर की अपेक्षा नहीं करें। उस फिल्म ने दुनिया के सामने भारत की फूहड़ और गरीब छवि पेश की है। अमिताभ इसपर बोल चुके हैं। विदेशियों को हमें गरीब देखना ही पसंद है। इससे खुश होकर वो हमें अवार्ड भी टिका देते हैं। नहीं तो उस तारे जमीं पर क्यों आस्कर से बाहर कर दिया गया। इस विषय पर अलग से लिखूंगा। स्लमडॉग का निर्देशक एक ब्रिटिश है और उसने फिल्म के नाम के अनुरूप कुत्ते जैसा ही काम किया है)
आपका ही सचिन....।

January 15, 2009

राजनीति तो करनी ही पड़ेगी यारों

युवाओं को इसके लिए मानस बनाना ही पड़ेगा
दोस्तों, कल बात राजनीति पर चल रही थी इसलिए लोगों को बोझिल लगी होगी। लेकिन मैं अपनी बात जारी रखूँगा क्योंकि उसमें बिंदु अभी बाकी रह गए थे। तो कल अपनी बात वैकल्पिक राजनीति पर चल रही थी.....
दोस्तों, वे सब निर्णय जिनसे हम या हमारा समाज प्रभावित होता है अगर कहीं अटकते हैं तो बस राजनीति पर जाकर.......अगर अच्छे निर्णय नहीं हो पाते तो समझो जाहिल राजनेताओं के कारण और अगर हो पाते हैं तो समझो इने-गिने अच्छे राजनेताओं के कारण.....कांग्रेस शुरूआत कर रही है युवा नेताओं को आगे बढ़ाने की.......राहुल गांधी के किचन कैबिनेट में दाखिल करवाकर.......उसपर वैसे लंबी बहस हो सकती है कि २०१४ में सोनिया जी राहुल को प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहती हैं....इसलिए राहुल को ताकतवर बनाया जा रहा है..फिर इस मामले में परिवारवाद पर भी बहस हो सकती है....अब ज्योतिरादित्य सिंधिया को केन्द्र में ले जाया गया है। कुछ माह पहले मप्र के कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर भी सिंधिया का नाम चला था.....खैर, ऐसी कई बातें हैं.....लेकिन ध्यान देने पर पता चलता है कि जो भी युवा राजनीति में जा रहे हैं सब संपन्न या स्थापित राजनैतिक घरानों या खानदानों से हैं......इस ग्रुप में भी मुरली देवड़ा के बेटे हैं.... जितेन्द्र प्रसाद के बेटे हैं.... माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट के बेटे हैं.......मुलायम सिंह यादव के बेटे हैं...राजीव गांधी भी ४० साल में प्रधानमंत्री बन गए थे लेकिन वह इसलिए कि वो इंदिरा गांधी के बेटे थे... 
तो सवाल है कि ऐसे में हम कहाँ हैं.......हमारी भी आकांक्षा होनी चाहिए क्योंकि देश में राजनेताओं की जरूरत है और फुल टाइम राजनेताओं की.....इसे कैरियर के तौर पर भी अपनाया जा सकता है.....मुंबई के एक विश्वविद्यालय का इस संबंध में विज्ञापन छपा था...वहाँ बाकायदा प्रोफेशनल पोलिटिक्स का कोर्स शुरू हो रहा था.......अब यह देश के युवाओं पर निर्भर करता है कि वे आईआईटी और आईआईएम से बाहर निकलकर खालिस मिट्टी की गंध सूंघना चाहते हैं या नहीं.......। अब जमाना काफी बदला है समाज सेवक भी राजनीति में आ रहे हैं क्योंकि यह भी एक तरह की समाजसेवा ही है......उदाहरण दे रहा हूं......एक समय वकील झूरकर राजनेता बनते थे......आडवाणी जी..अटलजी...कपिल सिब्बल...अरुण जेटली...रामजेठमलानी...कितने ही बने....पुरानों में तो काफी हैं....... फिर दौर चला जब पत्रकार राजनीति में आए.......अटलजी पत्रकार भी रहे, लखनऊ स्वदेश के संपादक थे..... अरुण शौरी भी विनिवेश मंत्री रहे.....और भी कई रहे....राज्यसभाओं में भी पहुँचे....दैनिक जागरण के मालिक और प्रधानसंपादक भी राज्यसभा सांसद रहे.... पॉयनियर के चंदन मित्रा हैं.....हिन्दू वाले एन राम हैं, लोकमत समाचार के विजय डरडा हैं.....वर्तमान में भाजपा राष्ट्रीय कार्रकारिणी के सचिव और राज्यसभा सांसद प्रभात झा स्वदेश ग्वालियर में १६ साल पत्रकार रहे....लंबी लिस्ट है........
वर्तमान चलन समाजसेवियों का है.....अब नाम क्या गिनाऊं लेकिन दिल्ली के इंडियन इंटरनेशनल सेंटर और इंडिया हैबिटाट सेंटर में आपको इस कांबिनेशन के हजारों लोग मिल जाएँगे, आप वहां जाकर देख सकते हैं...... लेकिन कमी सिर्फ युवाओं की है, हालांकि उनकी संख्या बढ़ रही है लेकिन पूरी नहीं है.....पढ़े-लिखे लोग तो मिल रहे हैं लेकिन राजनीति से घृणा करना हमें खत्म करना होगा...। लेकिन यह घृणा है कि खत्म ही नहीं हो रही है। लोग पॉलिटिकल कैरियर की ओर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। पोलिटिक्स कैरियर भी हो सकता है यह हम सोचते तक नहीं। हालांकि मैं मानता हूँ कि इस देश में फिलहाल यह मुश्किल कार्य है लेकिन असंभव नहीं। वैकल्पिक राजनीति की ओर हमें देखना ही होगा। बॉलीवुड इस इश्यू पर फिल्म बना रहा है, युवाओं की आवाज उठा रहा है लेकिन हम युवा फिलहाल राजनेताओं को गाली देने में व्यस्त हैं। जब मौका आता है तो हम फिल्म स्टार या स्पोर्ट्स स्टार तो बनना चाहते हैं लेकिन पोलिटिकल स्टार बनना अछूत शब्द सा लगता है। जब तक हम इस विकल्प की ओर ध्यान नहीं देंगे ये देश नहीं सुधर सकता क्योंकि फिलहाल जो सत्ता में हैं वो इस देश को वैसा कतई नहीं बनने देंगे जैसा कि हम चाहते हैं। इस अपेक्षा को पूरा करने के लिए तो मैदान में हमें ही उतरना होगा। 
नोटः (प्रसिद्ध पुस्तक जीत आपकी के लेखक शिव खेड़ा ने हाल ही में अपनी पॉलिटिकल पार्टी बनाकर एक सकारात्मक शुरुआत की है, कई और भी बुद्धिजीवी हस्तियाँ ये दुस्साहस कर रही हैं, मैं आशा करता हूँ कि आप और हम में से भी लोग ऐसा दुस्साहस करने के लिए राजी होंगे)
आपका ही सचिन....।

January 14, 2009

देश की राजनीति और हम युवाओं का धर्म

इसे भी विकल्प के तौर पर आजमाना होगा

दोस्तों, जैसा कि मैंने आप लोगों से वादा किया था कि बात अब दूर तलक जाएगी। तो सत्यम से बात शुरू हुई थी, स्वरोजगार एक पड़ाव आया और अब पोलिटिकल कैरियर की बात करूँगा। मतलब मंथन के इस दौर में क्या हम युवाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए। इस बात पर कुछ तर्क....

मुंबई आतंकी हमले के बाद पिछले एक माह से देश की जनता को राजनीतिज्ञों के ऊपर उबलते हुए देख रहा हूँ। महीने भर इन सब बातों को पढ़कर ख्याल आया कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन हम क्या कर रहे हैं इस देश की राजनीति को सुधारने के लिए...आखिर हम युवा हैं...हमारे पास काफी समय है तो हम क्यों नहीं उठाते यह सब ठीक करने का जिम्मा......

राजनीति चोर...उचक्कों...बदमाशों....बाहुबलियों के लिए है....हम शरीफों के लिए नहीं है..... हम सिर्फ बैठकर कोसेंगे और कहेंगे कि राजनेता होते ही बदमाश हैं........लेकिन सोचने वाली बात है कि हमारी मदद के बिना नेताओं द्वारा मनमानी किया जाना क्या वाकई संभव है???????........कुछ माह पहले इंदौर के जाल सभाग्रह में एक व्याख्यान सुनने गया था......देश के मशहूर राजनीतिक विश्लेषक श्री योगेन्द्र यादव वहाँ आए थे.....एक स्मृति व्याख्यान दिया था उन्होंने...उन्होंने क्या कहा था यह बताने की जरूरत नहीं क्योंकि वह सब अखबारों में छपा था.......लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि इन लोगों को चुनकर तो हम ही भेजते हैं तो फिर दोष तो हमें भी अपने ऊपर लेना होगा ना.......श्री यादव ने इस व्याख्यान में वैकल्पिक राजनीति की चर्चा की थी....कई अच्छी बातें हुई लेकिन हम में से कितने युवा आज राजनीति में जाने की सोचते हैं??????.........और क्यों नहीं सोचते इसपर एक लंबी बहस हो सकती है। हालांकि आज की युवा पीढ़ी को रुपया कमाने और विपरीत लिंगी को फुसलाने में ज्यादा आनंद आता है लेकिन जो युवा देश के लिए सोचने का दावा करते हैं वो भी क्या कर रहे हैं, इस बात पर मंथन होना चाहिए। अपना एक अनुभव सुनाऊंगा......५-६ साल पहले एक बार ग्वालियर में अपने अखबार के लिए साध्वी रितंभरा का इंटरव्यू कर रहा था.....कुछ बातों पर उनसे बहस हो रही थी....वे अचानक कहने लगीं कि अगर तुम इतने ही चिंतित हो तो देश की राजनीति में क्यों नहीं आ जाते.......उस समय अटलजी प्रधानमंत्री थे......साध्वी ने कहा कि अब अटलजी के हाथ बूढ़े हो चुके हैं, देश को तुम्हारे जैसे युवा नेताओं की जरूरत है.....मैंने उनसे कहा कि साध्वी जी मेरा कोई बैकग्राउण्ड नहीं है राजनीति में आने के लिए....तब उन्होंने कहा था कि एक बार आगे तो बढ़ो सब अपने आप साथ आ जाएँगे.......

दोस्तों मैं हालांकि तब से अभी तक पत्रकारिता में ही हूँ और राजनीति में नहीं गया लेकिन मैंने कोई हार नहीं मानी है.....मेरे एजेंडे में यह आज भी शामिल है लेकिन अपने जैसों की तलाश कर रहा हूं जो इस दावानल में कूदने की साथ में जुर्रत कर सकें...क्योंकि अगर हम ही आगे नहीं बढ़ेंगे तो देश का क्या होगा वर्तमान नेताओं के भरोसे....आजकल सभी राजनीतिक पार्टियों के नारे समान ही हैं.....ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस ४० साल से गरीबी भगाने का नारा दे रही है और भाजपा अयोध्या में पिछले १६ साल से मंदिर बनवाने का नारा दे रही है.......तो साहब राजनेताओं को पता है कि यह नारे चल जाते हैं इसलिए ही तो वे लगातार साल-दर-साल यह नारे दे रहे हैं और सफल भी हो रहे हैं.......तो हम क्या कर रहे हैं......

हम लोग खासकर युवा और पढ़े-लिखे युवा राजनीति को अछूत मानते हैं। किसी को लगता है कि इस देश में रहकर ताश खेलने से ज्यादा अच्छा है बाहर जाकर मोटी कमाई की जाए, क्योंकि यहाँ डिग्रियाँ काम नहीं आतीं। तो भइया काम तो तभी आएँगीं ना जब हम इस देश को उस लायक बनाएँगे। हम क्रांति तो चाहते हैं लेकिन यह भी मानते हैं कि यह काम कोई और कर देगा......वही कहावत कि हर माँ चाहती है कि भगतसिंह पैदा हो लेकिन मेरे घर नहीं पड़ौसी के घर पैदा हो.....यानी कुल मिलाकर हम भारतीय चमत्कार पर विश्वास करते हैं.......महात्मा गाँधी ने राजनीति को लोकनीति कहा था....सही था क्योंकि तब उसे लोक यानी जनता की सेवा का कार्य माना जाता था और अब इसे राज करने की तिकड़म माना जाता है इसलिए इसका नाम बदलकर राजनीति हो गया है......तो यही काम आजकल के नेता कर रहे हैं.....वो जानते हैं कि जनता भावुक है उसे भड़काया जा सकता है.......... तो देश-दुनिया-विकास तो सब गए भाड़ में, बस चला देते हैं भावात्मक कोई सा मुद्दा....और हम पढ़े-लिखे लोग हैं कि राजनीति में जाते नहीं और जाहिल लोग अपने तरीके से टुच्चे नेताओं को राजनेता बना देते हैं........

वीर सावरकर २७ वर्ष जेल में रहे.....महात्मा गाँधी कई बार जेल गए......नेहरू जी तीन-चार जेलों में रह लिए.......मीसा के समय कई बड़े नेता जेल में रहे......चन्द्रशेखर आजाद ने १५ साल की उम्र में देश के लिए कोड़े खा लिए थे और २५ साल में शहीद हो गए थे......भगतसिंह २४ साल की उम्र में फाँसी के फंदे से झूल गए थे...लेकिन साहब हम तो रुपया कमाएँगे, अगर देश छोड़कर जाने की नीति आज से २५० साल पहले अमेरिकियों ने अपना ली होती तो उस देश का तो हो गया था बंटाधार....भला हो उन अब्राहीम लिंकन का जिन्होंने कह दिया था कि अब इस देश में वही रहेगा जो अपने को अमेरिकी मानेगा और हम इस देश को ऐसा बना देंगे कि लोग यहाँ आने के लिए तरसेंगे......और देखो उन्होंने ये कर दिखाया, हम वहाँ जाने के लिए तरस रहे हैं, दुनिया वहाँ जाने के लिए तरस रही है लेकिन इस देश के लिए कोई अब्राहीम लिंकन बनने को तैयार नहीं..??
....खैर यह चर्चा चलती रहेगी क्योंकि राजनीति को विकल्प के तौर पर देर-सबेर देखना ही होगा....हम युवा इससे यूँ ही अछूते रहकर देश का बेड़ा गर्क होते नहीं देख सकते......चर्चा जारी रहेगी।

आपका ही सचिन.......।

January 13, 2009

स्वरोजगार की ओर जाना होगा हमें..

दोस्तों, बात सत्यम से शुरू हुई थी लेकिन थोड़ी लंबी जा रही है। कुछ मित्रों को मेरा बोलना बुरा भी लग रहा है। उन्हें लगता है कि मैं उनकी तरक्की से जल रहा हूँ। लेकिन ऐसा नहीं है भाई, आप लोग खूब रुपया कमाओ मेरी बला से। मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन मैं देश हित में अपनी बात कह रहा हूँ। और यह भी कि कुछ लोगों के अच्छा कमाने से इस देश का कोई भला नहीं होने वाला। खैर, 

अपनी बात शेखर पाठक की बात से शुरू करूंगा......आप पूछेंगे शेखर पाठक कौन...???? ....भई, पाठक साहब प्रसिद्ध समाजसेवी और घुमक्कड़ हैं, हिमालय के कई चक्कर लगा चुके हैं.....उत्तराखंड के विकास के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं और इसके लिए समय-समय पर कई जनआंदोलनों का हिस्सा बने हैं.....उन्हें एनसाइक्लोपीडिया आफ हिमालया भी कहा जाता है.......तो पाठक साहब से किसी ने रोजगार से संबंधित प्रश्न पूछ लिया था, उत्तराखण्ड के संदर्भ में...... जवाब प्रस्तुत है.....

सरकार के पास रोजगार की समस्या का पूरा समाधान नहीं है। उत्तराखण्ड में कम से कम 10-12 लाख शिक्षित बेरोजगार हैं। किसी क्रान्तिकारी / गांधीवादी सरकार के लिए भी यह असंभव है कि सबको रोजगार मिल जाय। हमारी सरकारें तो बेरोजगार भत्तों की कल्पना भी नहीं करती है। हमारे यहां तो अग्निदाह में युवाओं के मरने, भूख-हड़ताल कर प्राण त्यागने, बलात्कार का शिकार होने या दुर्घटना में मारे जाने या कुछ जाल-फरेब करने पर आर्थिक या अन्य मदद आती है। अत: हमारे समाज को रोजगार के वैकल्पिक रास्ते ढूंढने के साथ स्वरोजगार के प्रयोग करने होंगे। उद्यमिता का विकास हमारी अपरिहार्य जरूरत है। पर्यटन, तीर्थाटन, परिवहन, पर्वतारोहण, वृक्षारोपण, पौधशाला-जड़ी-बूटी कार्य आदि ऐसे रास्ते हैं। लकड़ी-पत्थर, ऊन, धातु आदि से जुड़े कुटीर उद्योग भी ऐसे रास्ते खोलते हैं….. सोद्देश्य और उदार शिक्षा कितने ही रास्ते खोल सकती है।

......तो दोस्तों मैं भी बस यही बात कहना चाहता हूं जो पाठक साहब ने कही.....हम अपनी सरकारों के द्वारा दी गई सब्सिडी का लाभ उठाकर ऊँची-२ डिग्रीयां करके विदेशों में नौकरियां करने चले जाते हैं.....भारत हाथ मलता रह जाता है.....तो यह ब्रेन ड्रेन कब तक चलेगा..??? हमें विदेश जाना तो चाहिए लेकिन घूमने-समझने नाकि पूरी तरह से वहीं बस जाने के लिए....नहीं तो हमारी भूमि को कौन सुधारेगा.....यह ससुरी आईटी तो बेटों को अपनी माँ से अलग किए दे रही है......अगर भारत में रहकर करो तो ठीक है लेकिन इतनी दूर जाकर मातृभूमि का ऋण कैसे चुकाओगे..??

बात हो रही थी सत्यम के व्याभिचार की, और यही कि इस दौर में टीसीएस और विप्रो ने छंटनी कर दी, माइक्रोसॉफ्ट भी करती रहती है.....इनके तिमाही के लाभ पूरे नहीं हो पा रहे हैं लिहाजा गाज कर्मचारियों पर गिर रही है......हालांकि ऐसा लगभग सभी सेक्टर्स में होता है लेकिन लीजेंड्री आईटी में हो रहा है तो खबर बन रही है.............फिर तो सोचना होगा। हालांकि आज इंफोसिस ने लाभ दिखाया है लेकिन सत्यम वाले कांड के बाद अब लोग लाभ वाली बात पर थोड़ी देर में विश्वास कर पाएँगे। 

भारत विश्व की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है.......लेकिन अंतरराष्ट्रीय सर्वे बता रहे हैं कि संसार में फिलहाल चीन ही ऐसा देश है जो दो-चार दशकों में तरक्की के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा.......भारत की विकास दर जहां ९ फीसदी है वहीं चीन १२-१३ फीसदी की दर से कुलांचे भर रहा है......कारण मालूम है??.......आप बाजार में पटाखे खरीदने जाइए......मेड इन चाइना मिल जाएंगे.......बच्चों के खिलौने लेने जाइए....वे भी चीन के मिल जाएंगे....दीवाली पर लक्ष्मी-गणेशजी और नवदुर्गा में देवी की मूर्तियां तक मेड इन चाइना मिल रही हैं...क्यों??.....वहां बतौर कुटीर उद्योग यह सब लिया जाता है.....अब तो भारत में वहां से फर्नीचर तक बनकर आ रहा है......यानी चीन अपनी तो जरूरत पूरी कर ही रहा है विश्व को भी अपने सामान से पाटे दे रहा है......लेकिन हम हैं कि विदेशी सामानों के दीवाने हैं और खुद कुछ बनाते नहीं....मार्केट फ्री हो रहा है....उद्यम करने के लिए इससे उचित मौका और कोई नहीं.....हमें अपनी नौकरी करने खासकर विदेश में जाकर नौकरी करने की आदत से छुटकारा पाना होगा.......देश की तरक्की कर्मचारियों से नहीं उद्यमियों से होगी.....डॉ. कलाम ने भी यह बात कही है.....कि देश के युवा नौकरी के बजाए उद्यम करें तो देश तरक्की करेगा......मुझे लगता है कि अब जल्दी ही ऐसा समय आने वाला है जब हमारे युवा अमेरिका की ऊँची इमारतों के मोह से छुटकारा पाकर भारत की मिट्टी को महत्व देंगे और उनके स्वागत के लिए ढेरों सेक्टर्स यहीं तैयार मिलेंगे.....

और हाँ दोस्तों, बात अभी खत्म नहीं हुई है, तर्क जारी रहेंगे, पढ़ने वालों का स्वागत, प्रशंसा करने वालों का भी स्वागत और नापसंद करने वालों का भी स्वागत (क्योंकि वो कम से कम मुझे यहाँ आकर पढ़ तो रहे हैं)....बाकी बात अगले पृष्ठ में..

आपका ही सचिन....।

January 12, 2009

क्या फूट गया है आईटी-बीपीओ का फुगावा?

दोस्तों, पिछली बार बात सत्यम की चल रही थी। लेकिन वो बात निश्चित तौर पर अभी खत्म नहीं हुई है। ये बात तो अब लंबी चलेगी। मैं यहाँ थोड़ा फ्लैशबैक में जाना चाहूँगा। लगभग एक साल पहले फिर ताजा बात भी करूँगा। 

तो दोस्तों, लगभग एक साल पहले एक समूह में चर्चा चल रही थी, बात शेयर बाजार और आईटी-बीपीओ सेक्टर की हो रही थी, इनकी ऊँचाइयों को देश की तरक्की बताया जा रहा था, एक बंदा दावा कर रहा था कि उसने अमेरिका की किसी इकॉनामिक मैग्जीन को पढ़ा है, उसमें लिखा था कि भारत का शेयर बाजार ४५००० के अंक को भी एक दिन छुएगा....वह खुश हो रहा था कि भारत तरक्की कर रहा है.....मैं भी वहाँ उपस्थित था....मैंने उससे पूछा कि क्या वाकई ये तीन सेक्टर मिलकर हमारे देश को चमन कर रहे हैं????........और यह भी पूछा कि क्या गारंटी है कि शेयर बाजार के फूलते इस फुग्गे में किसी दिन कोई पिन नहीं पड़ेगी, तब शेयर बाजार २१००० अंक को छू रहा था।......बात चर्चा तक सीमित थी लेकिन अगले ही दिन शेयर बाजार १५०० अंक नीचे गिरा.....छोटे निवेशकों का दिवालिया निकल गया.....और अगले कुछ दिनों में जिन छोटे निवेशकों ने फिशिंग करनी चाही उन्हें हाथ ही नहीं डालने दिया गया....शेयर बाजार भी जानता है कि उसे किसे फायदा देना है........और हां, तब से शेयर बाजार लगातार नीचे गिर रहा है....उस दिन शेयर बाजार २१००० अंक पर था और अब १० हजार के आस-पास चल रहा है.....बाकि शेयर बाजार के ऊपर मैं पहले भी लिख चुका हूँ इसलिए दोहराव से बच रहा हूं.....

दोस्तों, अब उन कुछ बातों को मैं आपके सामने रख रहा हूं जिनपर मुद्दा गरम था......कि क्या वाकई ये तीन सेक्टर देश पर हावी हो रहे हैं.....एक दिन एमबीए की क्लास में बिजनिस एनवायरमेंट के लेक्चर में लेक्चरर ने फिर वही बात दुहरा दी थी.....कि भारत की इंडस्ट्रीज ग्लोबल हो रही हैं....मैंने पूछा उनसे....कौन सी इंडस्ट्रीज ग्लोबल हो गई भारत की.....तो वो बोले साहब आईटी और बीपीओ.....सही बताऊँ...मैं तो पक चुका हूं इनका नाम सुनते-सुनते.......बीपीओ का कैसा काम है मैं बताना नहीं चाहता......आप लोग जानते हैं.......इस इंडस्ट्री के सफरर्स को भी जानते होंगे......और आईटी ने हमारे देश में क्या किया है बताने की जरूरत नहीं.....उदाहरण देना चाहूंगा.....एक दिन मुझे एक सज्जन मिले.....अच्छे रुतबे वाले पद पर हैं.....काफी ज्ञानवान भी.....उम्र ५० के आस-पास.....उनका इकलौता लड़का है......पिछले आठ साल से अमेरिका में है.....इस दौरान सिर्फ दो बार भारत आया.....ये लोग जा नहीं पाए.....पति-पत्नी अकेले रहते हैं.....कारण आप समझ ही गए होंगे....वही आईटी का चक्कर.......हालांकि वे सज्जन गर्व से फूले नहीं समा रहे थे....लेकिन ऐसे इतने लोगों से मिल चुका हूं कि लिखने बैठूं तो कॉपियां भर जाएं......आईटी ने परिवार उजाड़ दिए.....उस अमेरिकी चमक और रुपए-पैसे ने संपन्न घरों के लड़कों को भी सात समंदर पार पहुँचा दिया......अब तो फैशन सा बन गया है यह कहने का हमारा बेटा...अमेरिका में है और आईटी सेक्टर में है

आईटी का रुतबा या हौवा ऐसे ही नहीं बना.......२५ साल के लड़कों को ५० हजार से १ लाख रुपए वेतन मिल रहा है.....यहीं भारत में....विदेशों में वे डॉलर में कमा रहे हैं......तो बस सब अपना कैरियर इसी कंप्यूटर की १७ इंच की स्क्रीन पर खोज रहे हैं.....ह्यूमेनिटिज खत्म, भाषाएं खत्म, आधारभूत विज्ञान खत्म....... समाज शास्त्र और राजनीति विज्ञान बोगस विषय बन गए हैं.....बीए, बीकॉम सिर्फ ग्रेजुएट कहलाने के लिए किए जाने लगे हैं...... सारी फैकल्टीज मर गई हैं.......बच्चा या ता डॉक्टर बनेगा......या आईआईटी में जाएगा.....नहीं तो कैट ब्रेक करेगा और आईआईएम जाएगा..... देश जाए भाड़ में....सिर्फ विदेश में तरक्की करेगा और यहां उसके परिजन उसकी सफलता के किस्से सुनाएँगे....हम जैसे लोगों को.....और गौरांवित होंगे...... अच्छी अंग्रेजी जानने वालों के लिए बीपीओ सेक्टर है........बस वहां एक ही दिक्कत है.....रुपए के अलावा आप कुछ नहीं कमा सकते.....हां तरल लहजे में सर-सर की रट और डांट पड़े तो भी मुस्कुराना भर तो करना ही पड़ता है......(चेतन भगत का वन नाइट एट कॉल सेंटर पढ़ें, इस बीपीओ सेक्टर पर भारी तमाचा मारा है उस युवा लेखक ने)

तो आईटी सेक्टर शानदार चल रहा था....कि अचानक अमेरिकी बाजार की मंदी यहां भी हावी होती दिखी (शेयर बाजार भी इसी के चलते गिरा था).... तो टीसीएस ने अपने हजारों कर्मचारियों को निकाल दिया.....वेतन तो पहले ही काट चुका था....विप्रो ने भी अभी इसी तरह का कदम उठाया.....सत्यम का दिवाला निकला हुआ समझो, सब कंपनियाँ छँटनियाँ कर रही हैं और युवा लोगों का बसा-बसाया घर उजाड़ रही हैं। बस फिर क्या है......अब बहस चल रही है कि आईटी के फुगावे की भी हवा निकल गई है क्या......कहने की जरूरत नहीं है......समीक्षाएँ खुद ही बता रही हैं......लेकिन इस विषय पर अभी बहुत कुछ लिखना बाकी रह गया है.......तो बाकी अगले पृष्ठ में........आशा करता हूं कि दोस्त इसे पढ़ेंगे.....

आपका ही सचिन.........।

January 10, 2009

सत्यम के डूबने के मायने..!!

संस्कृत कहावत है, अति सर्वत्र वर्जयते
दोस्तों, देश की चौथी सबसे बड़ी आईटी कंपनी सत्यम डूबने के कगार पर है। आज हालांकि उसके कर्मचारियों ने दृढ़ता का प्रदर्शन करते हुए कई होर्डिंग्स और बोर्ड के माध्यम से लोगों को समझाया कि वे एकजुट हैं और प्रबंधन पर उनका पूरा भरोसा है लेकिन कहा जा सकता है कि गालिब ये तो दिल समझाने की बात है। दुनिया के आगे बंद मुठ्ठी खुल चुकी है। सत्यम का दिवाला निकलनेवाला है और जो कर्मचारी इन बोर्ड और होर्डिंग को लगाकर अपनी एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे थे वे खुद दूसरी नौकरियाँ ढूँढने लगे हैं। खबर मिली है कि सत्यम अपने ५३००० कर्मचारियों में से १५००० की छंटनी तुरंत करने वाली है जबकि जो रोके जाएँगे उनके वेतन में भारी कटौती होगी। उल्लेखनीय है कि सत्यम को अपने स्टॉफ को प्रत्येक माह वेतन बाँटने के लिए ५०० करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ती है जो इस समय उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। सत्यम ने कल एक लैटर जारी कर सभी कर्मचारियों को ये भी कह दिया था कि उनका दो महीने का वेतन रोका जा रहा है।
दोस्तों, आप बचपन से ही एक कहावत सुनते आ रहे होंगे। यह संस्कृत में है। अति सर्वत्र वर्जयते। यानी सीमा से बाहर जाकर कुछ भी करने में नुकसान है। फिर भले ही वो काम किसी भी देश, काल या परिस्थिति में किया जाए। भारत का सॉफ्टवेयर में जो डंका पिछले एक दशक से बज रहा था वो भी वर्जित ही था और समझने वाली बात है कि इस फुग्गे को एक ना एक दिन फूटना ही था। दुनिया में मंदी आई। इसका सबसे अधिक प्रभाव भी सबसे अधिक फूले हुए फुग्गे यानी अमेरिका पर ही हुआ। उसकी हवा फुस्स से निकल गई। वहाँ के कई लीजेण्डरी बैंक स्वाहा हो गए और सब बड़ी-बड़ी बातें धरी की धरी रह गईं। यही काम कुछ हमारे यहाँ आईसीआईसी बैंक के साथ हुआ। यह फुग्गा भी बहुत फूल गया था। ये बैंक एक साल में २०-३० हजार करोड़ रुपए के हाउसिंग लोन दे रही थी। प्रापर्टी की कीमतें भी आसमान छू रही थीं। जाहिर है सब जगह रुपया बह रहा था और किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन यह सब भी देखना पड़ेगा।
दोस्तों, आपने एक बात महसूस की होगी। जब आदमी के दिन अच्छे चल रहे होते हैं तो सब उसके आगे झुकना शुरू कर देते हैं और वो भी सफलता के मद में कईयों का अपमान या कहें बुरा करने लगता है। उस आदमी को लगता है कि ये दिन चिरजीवी हैं और उसके बुरे दिन कभी नहीं आएँगे...और जब बुरे दिन शुरू होते हैं तो सब साथ छोड़ जाते हैं और कहते हैं कि वो तो बहुत बुरा था उसके साथ तो ऐसा होना ही था। ठीक यही काम भारतीय शेयर बाजार के साथ भी हुआ। जब ये २१००० पर था तो विश्लेषक कहते थे कि ये ४५०००-५०००० पर जाएगा और जब ये नीचे गिरा तो वही विश्लेषक कहने लगे कि ये पाँच हजार तक पहुँच जाएगा। ठीक यही हाल देश में बैंकिंग सेक्टर, प्रापर्टी, जीवन बीमा और आईटी सेक्टर का हो रहा है। दोस्तों, मैं यहाँ ये कहना चाह रहा हूँ कि जब जेब में रुपया होगा ही नहीं तो खर्च करने का सवाल ही कहाँ उठता है। जो आईटी कंपनियाँ अपने यहाँ काम करने वाले एक २५ साल के लड़के को ५०००० रुपया महीना दे रही थीं आज वे उसे १५ हजार रुपए महीने भी नहीं देना चाह रही हैं। क्योंकि उन कंपनियों के फुग्गे में पिन पड़ चुकी है। उन्होंने जरूरत से ज्यादा मुनाफा कमाया और उसे बाँटा भी लेकिन वो काम ठोस नहीं था। जरा सी मंदी में इन सबकी हवा निकल गई। चूँकी लोगों के वेतन कम हो रहे हैं तो उनके वेतन की ताकत पर चलने वाले बैंक, बीमा और प्रापर्टी के सेक्टरों में मंदी क्यों नहीं आएगी...???
सत्यम के राजू ने हर्षद मेहता बराबर स्कैम किया। वो दिखाना चाहते थे कि वे कभी घाटे में नहीं आ सकते। तो उन्होंने औसत से ज्यादा मुनाफा दिखाने के चक्कर में इतना झूठ बोला कि कंपनी की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा ही झूठा दिखा दिया। परिवारवाद यहाँ भी हावी था तो अपने बेटों की कंपनी मेटास का अधिग्रहण करने के चक्कर में घाटा और बढ़ा दिया। लेकिन राजू का ये झूठ चल रहा था और चलता भी रहता अगर ये मंदी ना आई होती। इस मंदी ने राजू का असली रंग सामने ला दिया और वो रंगे हुए सियार साबित हुए। अब सभी देशी-विदेशी कंपनियाँ भारतीय आईटी कंपनियों को संदिग्ध नजरों से देखेंगी क्योंकि जब अमेरिका को डराकर रखने वाले राजू ऐसे निकल सकते हैं तो फिर किसी और के बारे में क्या कहा जाए...?? और दोस्तों, आखिर में चलते-चलते बस इतना ही कि राजू एक छोटे से आदमी थे, फिर अपने पुरुषार्थ के बल पर इतने बड़े आदमी बने....लेकिन भगवान ने इंसान के अंदर जो लालच नाम का कीड़ा बनाया है वो कभी भी किसी को भी काट सकता है। बस राजू इसी का शिकार बन गए नहीं तो इंसान को अंत में क्या चाहिए, बस दो गज जमीन....मंदी ने राजू का झूठ पकड़ में ला दिया।
आपका ही सचिन...।

January 09, 2009

भारतीय राजनीति और खानदानवाद

क्या राहुल प्रधानमंत्री बनने लायक हैं??
दोस्तों, कल मैं एक खबर बना रहा था। ये आज के अखबारों में भी छपी है। इसमें भारत के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी मुख्य हीरो हैं। वे चैन्नई में आयोजित हो रहे भारतीय प्रवासी दिवस के अवसर पर कह रहे थे कि राहुल गाँधी देश के प्रधानमंत्री बनने की राह पर हैं। उनके पिता राजीव गाँधी ४० साल की उम्र में प्रधानमंत्री बन गए थे और ३८ वर्षीय राहुल भी इसके लायक हैं। प्रणब प्रवासी भारतीयों द्वारा पूछे गए इस प्रश्न के उत्तर में यह बात कह रहे थे जिसमें उनसे पूछा गया था कि भारत में युवा राजनेता महत्वपूर्ण पदों पर क्यों नहीं हैं..??
दोस्तों, मुझसे कल ही एक मित्र ने कहा था कि स्टार सन राहुल गाँधी पर कुछ लिखूँ। हालांकि राहुल मेरे दिमाग में लंबे समय से थे लेकिन मैं फिर भी कुछ लिख नहीं रहा था। मैं उनके द्वारा की जा रही राजनीति के क्रियाकलापों को ध्यान से पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मै राहुल गाँधी द्वारा युवाओं को महत्व दिए जाने की राजनीति से प्रभावित हूँ। मैं इस बात से भी प्रभावित हूँ कि वो राजनीति में ईमानदारी लाने के लिए बहुत प्रयास कर रहे हैं। लेकिन मैं चिंतित भी हूँ कि उनका ये प्रयास कैसे सफल हो सकेगा जबकि कांग्रेस ने डकैतों की पार्टी सपा से संबंध बना रखे हैं, कि उन कम्युनिस्टों से संबंध बना रखे थे जो देश के बजाए अपनी विचारधारा को अधिक महत्व देते हैं। खैर, मैं मुद्दे से भटक रहा हूँ इसलिए कुछ दो टूक बातें करने जा रहा हूँ.....मैंने छोटी उम्र में (राहुल मुझसे लगभग ६ साल बड़े हैं) सुना था कि राजीव गाँधी का बड़ा बेटा (राहुल, प्रियंका से भी बड़े हैं) डिलेड माइलस्टोन है। यह एक प्रकार की दिमागी कमजोरी होती है। फिर मैंने सुना राहुल कोलंबिया की किसी लड़की से ब्याह रचाना चाहते हैं (ये खानदान पहले से ही हाइब्रिड है)...और सबसे बड़ी बात गाँधी फैमिली इस देश की रॉयल फैमिली बन गई है। मतलब प्रथम परिवार जिसने कई प्रधानमंत्री दिए जिन्होंने लगभग ५० साल इस देश पर राज किया और आज इस परिवार की मुखिया सोनिया गाँधी इस देश में अपनी पसंद के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनवा रही हैं। वो देश में पिछले ५ वर्षों से अपरोक्ष रूप से राज कर रही हैं और यह कि कांग्रेस में १० जनपथ तीर्थ है।
दोस्तों, मैं अभी अपनी बात की भूमिका ही तैयार कर रहा हूँ। मूल मुद्दे पर मैं अभी तक नहीं आया। मतलब हम लोकतंत्र में पिछले ६० सालों से रह रहे हैं। राजघराने हमने आजादी के बाद निपटा दिए थे। लेकिन भारतीय राजनीति में ये राजघराने आज भी राज कर रहे हैं। कोई भी अपने परिवार से बाहर निकलकर देखना नहीं चाहता। क्या राहुल से योग्य युवा इस देश में नहीं हैं.....हैं, लेकिन उन्हें मौका नहीं है। मसलन मैं प्रणब मुखर्जी की जिस खबर का हवाला दे रहा था उसमें प्रणब ने कहा था कि देश में कई अन्य युवा राजनीतिज्ञ हैं जो प्रमुख पदों पर हैं। उन्होंने हाल ही में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने ओमर अब्दुल्ला का नाम लिया। कुछ नाम मैं भी ले सकता हूँ, जो राहुल की किचन कैबिनेट के सदस्य हैं। मसलन ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट आदि। लेकिन आपने इन नामों को पढ़ते समय एक बात महसूस की.......कि ये सभी भी राजघराने से ही हैं। मतलब सभी के बाप-दादा राजनीतिक अखाड़ों के राजा ही थे। और ये सभी सपूत उन्हीं की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। ओमर अपने खानदान की तीसरी पीढ़ी हैं। उनके बाप फारुख अब्दुल्ला और उससे पहले शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में लंबे समय तक अपना हरा झंडा लहराया है। मुरली देवड़ा, राजेश पायलट, जितिन प्रसाद और माधवराव सिंधिया का आपने नाम सुना ही होगा....तो जनाब ये सभी राहुल की किचन कैबिनेट के पिता लोग हैं।
दोस्तों, भारतीय राजनीति को गिरते देखना भी एक रोचक अनुभव है। परिवारवाद इतना हावी है कि कुछ कही नहीं जाए। हर आदमी अपने खानदान के किसी उत्तराधिकारी को ही सत्ता सौंपना चाहता है। मुलायम ने अपने लड़के को सांसद बनवाया, मुफ्ती सईद ने अपनी बेटी को तो फारुख ने अपने बेटे को सत्ता सौंपी। सोनिया, राहुल को सौंपना चाहती हैं। तो ये युवा अपने बल-बूते पर कहाँ से सत्ता में आए। ये तो सब मुगलकाल और उससे पहले हिन्दू राजाओं के काल से चला आ रहा है कि राजा, युवराज, राजा, युवराज.......इस बार युवराज राहुल हैं। तो हमने तरक्की किस आधार पर की। बिल क्लिंटन जिस तरह सड़कों से उठकर अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, या ओबामा जिस प्रकार वकालत करते हुए राष्ट्रपति बने उसकी मिसाल हमारे देश में मिलना वर्तमान में कठिन होता जा रहा है। हालांकि अमेरिका ने भी बुश खानदान का उदाहरण देकर खानदानवाद को बढ़ावा दिया और हाल ही में सीनियर बुश ने तो यह तक कह दिया कि वो अपने दूसरे बेटे जैब बुश को भी अमेरिका का राष्ट्रपति बनते देखना चाहते हैं लेकिन फिर भी वो मामला अलग है...उसमें सत्ता सौंपी नहीं गई थी बल्कि योग्यता के आधार पर जार्ज बुश (वर्तमान राष्ट्रपति) चुने गए थे। लेकिन हमारे यहाँ चरण धोने की परंपरा हजारों साल पुरानी है। पहले चारण भाट हुआ करते थे। आजकल अर्जुन सिंह और प्रणब मुखर्जी हैं।
दोस्तों, जब इस देश के युवा को पता चल गया है कि राजनीति में ऊँचे स्थान तक पहुँचने के लिए किसी राजघराने या कहें किसी खानदान विशेष का युवराज होना जरूरी है तो वो क्यों आएगा राजनीति में...???? और हाँ, अंत में चलते-चलते यह कि देश की सभी पार्टियों में अंतिम बिंदु तय है। वो बिंदु कांग्रेस में सोनिया हैं, समाजवादी पार्टी में मुलायम हैं, बहुजन समाज पार्टी में मायावती हैं, अन्नाद्रमुक में जयललिता हैं, द्रमुक में करुणानिधि हैं, तृणमूल कांग्रेस में ममता बेनर्जी हैं, तेलगूदेशम में चंद्रबाबू नायडू हैं। मतलब सभी क्षेत्रीय पार्टियों में उनके मुखिया ही अंतिम बिंदु हैं। लेकिन शुक्र है कि भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी में वो अंतिम बिंदु तय नहीं है। वहाँ आकाश फिर भी खुला हुआ है। मैं अपेक्षा करता हूँ कि इस देश की राजनीति को अंतिम बिंदुओं तथा चारण भाटों से मुक्ति मिलेगी। आपको और हमको इस राजनीति में भाग्य अजमाने का मौका मिलेगा।
आपका ही सचिन....।

अगर भारत पर अभी हमला हुआ तो..!!

हड़ताल की भी तो हद होनी चाहिए ना..??
दोस्तों, पूरा भारत पेट्रोल की किल्लत से जूझ रहा है। सिर्फ पेट्रोल की नहीं बल्कि डीजल और अन्य पेट्रोलियम पदार्थों की किल्लत से भी। शाम तक थोड़ी सी राहत मिली है कि कुछ पेट्रोल कंपनियों के अधिकारी और कर्मचारियों ने अपनी हड़ताल वापस ले ली है लेकिन अधिसंख्य हालात खराब हैं। पेट्रोल पंप सूखे हुए हैं और हमारे जैसे कई नौकरीपेशा और दफ्तर जाने वाले लोग हैरान-परेशान अपने घरों में बैठे हुए हैं। जैसे-तैसे जुगाड़ करके हम दफ्तर पहुँचते हैं। छात्र कॉलेज नहीं जा पा रहे हैं पूरे देश की मशीनरी जाम है। दोपहर में खबर थी कि सरकार झुकने को तैयार नहीं, हड़तालियों को बर्खास्त किया जाएगा और पेट्रोल-डीजल की आपूर्ति का काम सेना संभालेगी। दोस्तों, यह गंभीर बात है। हमें समझ नहीं आ रहा है लेकिन आप सोचिए कि कुछ हजार अधिकारियों और कर्मचारियों की जिद की वजह से हम किस कदर फँसे हुए हैं। ये हालत है हमारे देश की सरकार की। आज दिन में सोच रहा था कि ऐसे मौके पर कहीं कोई देश हमपर हमला कर दे तो क्या होगा...??? हम सब कहीं भागकर जान भी नहीं बचा पाएँगे। लड़ने वाले लड़ नहीं पाएँगे। सेना देश में पेट्रोल बाँट रही होगी। सीमाओं पर गाड़ियाँ कैसे पहुँचेगी..?? देश की बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों के चंद अधिकारियों ने हजारों-हजार करोड़ रुपए का नुकसान कर दिया, हमारे देश को खतरे में डाल दिया और ये हड़ताली कह रहे हैं कि सरकार झुक नहीं रही। इन सब अधिकारियों और कर्मचारियों की पहचान करके उन्हें सख्त से सख्त सजा देनी चाहिए। इन मक्कारों के स्थान पर दूसरे लोगों को नौकरी देना चाहिए क्योंकि इस देश में करोड़ों जरूरतमंद और पढ़ेलिखे युवा बेरोजगार घूम रहे हैं। हमें इन तेल कंपनियों वालों को बताना चाहिए कि उनकी मर्जी से देश नही चलने वाला....इन आए दिन होने वाली हड़तालों से हमारे देश को मुक्ति मिलनी चाहिए नहीं तो किसी दिन इन छोटे कारणों से होने वाली हड़तालों के कारण हम बड़े स्तर पर खामियाजा भुगतने को मजबूर हो जाएँगे...। इस बार का सबक सरकार छाती से लगाए और दोषियों को सख्त से सख्त सजा दे नहीं तो इतिहास बता रहा होगा कि भारत उस लड़ाई में फलाँ देश से इसलिए हार गया क्योंकि वहाँ हड़ताल चल रही थी और सेना देश की सीमाओं पर तैनात रहने की बजाए अंदरुनी स्थिति संभाले हुए थी। आपका ही सचिन...।

January 08, 2009

शेखावत और सोरेन में क्या अंतर..??

वर्तमान राजनीति में हर उम्र के धूर्त भरे हैं
दोस्तों, गुरूवार का दिन भारतीय राजनीति के कुछ चेहरे खोलने वाला रहा। हम कहते हैं कि हमारी वर्तमान पीढ़ी नालायक है। संस्कार भूलती जा रही है। दिशाविहीन और भटकाव वाली हो रही है। लेकिन ये बुजुर्ग रानीतिज्ञों को क्या हो गया। भाजपा के वरिष्ठ एवं कद्दावर नेता भैंरोसिंह शेखावत का दिशा भटकना और बदमाश-मक्कार उस दढ़ियल शिबू सोरेन का चुनाव हारना भारतीय राजनीति के असर चेहरे को सबके सामने ला रहा है। दोस्तों, लोग कहते हैं कि युवा महत्वाकांक्षी होते हैं। लेकिन ये बुड्ढे किस स्तर के महत्वाकांक्षी हैं देखा आपने। एक बुढऊ के पाँव कब्र में लटक रहे हैं लेकिन वो सपने देखना नहीं छोड़ रहा। शेखावत दिल्ली में अपनी प्रेस कांफ्रेस में कह रहे हैं कि देश की जनता चाह रही है कि वे चुनाव लड़े....और हवाला दे रहे हैं कोटा, टोंक, बूँदी आदि जगहों का जो सिर्फ राजस्थान में हैं। दूसरी ओर दढ़ियल शिबू सोरेन है। हत्या का मुकदमा चला, जेल गए, मुंह पर थूका गया लेकिन बाज नहीं आए, सौदेबाजी कर ली और कांग्रेस की केन्द्र सरकार बचाने के एवज में झारखंड के मुख्यमंत्री बनाए गए। लेकिन बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाएगी..?? इस बार जनता ने निपटा दिया....ऐसा निपटाया कि राजनीति के इतिहास में दूसरे ऐसे मुख्यमंत्री बने जो अपनी सीट नहीं बचा पाया और चुनाव हार गया। लेकिन क्या कहें, सोरेन के पिछवाड़े पर फैवीकॉल चिपका हुआ है...मजबूत जोड़ वाला जो आसानी से छूटता नहीं....तो वो बेशर्म दढ़ियल अब भी अपनी कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं.......अरे हद है यार, इस देश में लोकतंत्र है...जनता नहीं चाह रही तो जाओ ना भाई, क्यों अपना मुंह हमें दिखाए जा रहे हो...हम जानते हैं कि तुम मक्कार, घोटालेबाज और हत्यारे हो, हम नहीं चाहते तुम्हें मुख्यमंत्री बने देखना...समझे, भ्रष्ट गुरूजी...। दूसरी ओर शेखावत हैं। इनकी मैं इज्जत करता था। राजस्थान में रहा था तब वहाँ इन्हें लोग चाणक्य कहते थे। एकाएक बुढ़ापे में दिमाग चकरा गया। पाँव कब्र में लटक रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री बनने की इच्छा नहीं छोड़ पा रहे। सक्रिय राजनीति में रहना चाहते हैं भले ही चलते ना बनता हो। अरे उस ओबामा को देखो, नंगे बदन हवाई के समुद्र तटों पर धूम रहा है, फिर भी सुंदर दिख रहा है। एक आप लोग हो, भारतीय आश्रम व्यवस्था को तो मानो....८५ साल की उम्र हो गई, अब तो वानप्रस्थाश्रम भी गया...मोक्ष या कहें सन्यास आश्रम का समय भी १० साल ऊपर बीत गया, लेकिन भगवान का नाम लेना नहीं चाह रहे हो...सीनियरटी की दुहाई दी जा रही है...अरे इस दुहाई की मानें तो देश के सबसे उम्रदराज आदमी को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनाना पड़े। दूसरों के लिए भी काम छोड़ो, जब आपका समय था तो खूब मक्कारी की, जमकर रुपया कूटा, नाम-दाम सब कमाया.....दशकों तक मुख्यमंत्री रहे....देश के उपराष्ट्रपति भी रहे....बाबुजियों इतनी भी महत्वाकांक्षा अच्छी नहीं....नहीं तो नई पीढ़ी को क्या संदेश जाएगा...????? आपका ही सचिन.....।

राजनीति के दबाव में मुस्लिम हित

राकेश सिन्हा
भारत में मुस्लिमों की सामाजिक -आर्थिक अवस्था का मूल्यांकन करने का सांप्रदायिक व औपनिवेशिक फॉर्मूला अपनाया गया है। वह है मुस्लिमों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति की हिन्दुओं से तुलना किया जाना और खास निष्कर्ष पर पहुँचना। फॉर्मूला औपनिवेशिक हुकूमत ने 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद निकाला था। भारतीय राष्ट्रवाद का उभरता उग्र स्वरूप उसके अस्तित्व पर खतरे की तरह मँडरा रहा था।

अतः साम्राज्यवादियों ने हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच अविश्वास, संदेह व प्रतिद्वंद्विता 
  हंटर ने बखूबी मुसलमानों के आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन का दोष सरकारी नीतियों एवं हिन्दुओं के ऊपर मढ़ दिया। उसने निष्कर्ष निकाला कि अँगरेजी शिक्षा हिन्दुओं को लाभ पहुँचा रही है और मुसलमानों को इसके प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह के कारण इससे दूर रख रही है      
को स्थापित करने के लिए सोच-समझकर व्यूह रचना की। इसी की पहली व मजबूत कड़ी थी मुसलमानों के आर्थिक, रोजगार, शिक्षा से जुड़े पहलुओं का अध्ययन कराना। इसकी जिम्मेदारी विलियन विल्सन हंटर को 1871 में सौंपी गई थी। हंटर 'भारतीय' प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं 'बंगाल गजट' के संपादक थे।


हंटर ने बखूबी मुसलमानों के आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन का दोष सरकारी नीतियों एवं हिन्दुओं के ऊपर मढ़ दिया। उसने निष्कर्ष निकाला कि अँगरेजी शिक्षा हिन्दुओं को लाभ पहुँचा रही है और मुसलमानों को इसके प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह के कारण इससे दूर रख रही है। अतः मुसलमानों का हिस्सा भी हिन्दुओं के खाते में जा रहा है। वहाबी आंदोलन ने हिंसात्मक गतिविधियों के द्वारा शासक वर्ग को बेचैन कर रखा था अतः कट्टरपंथियों को विश्वास में लेने की कोशिश में अँगरेज बुद्धिजीवियों के द्वारा रास्ते सुझाए जा रहे थे। इसी में एक कलकत्ता मदरसा के मानद प्राचार्य डब्ल्यूएन लीस की भूमिका महत्वपूर्ण साबित हुई।

उन्होंने 'लंदन टाइम्स' में अक्टूबर-नवंबर 1871 में तीन पत्र लिखकर अँगरेजी शिक्षा पद्धति को मुस्लिमों की धार्मिक भावना के प्रतिकूल बताया और सुझाया कि मदरसा उर्दू-फारसी, इस्लामिक शिक्षा को महत्व देकर मुसलमानों को शांत किया जा सकता है। इस प्रकार लीस-हंटर की जोड़ी ने भारत में मुसलमानों को राज्य के प्रगतिशील हस्तक्षेप से दूर रखने की सलाह दी।

इसे 1883 के शिक्षा आयोग ने स्वीकार कर लिया। ऐसा नहीं था कि इसका विरोध नहीं हुआ। प्रांतों में शिक्षा से जुड़े अधिकारियों ने राजनीति के लिए आधुनिकता को दबाने की इस मुहिम को मुसलमानों के लिए अहितकारी बताया, परंतु राजनीति के सामने यह विवेक परास्त हुआ।

आजादी के बाद भी यही मापदंड और सूत्र अपनाया जा रहा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों को 'संतुष्ट' रखने के लिए अलग से 'मदरसा नीति' चलाई जा रही है। मदरसा शिक्षा का परिणाम भारतीय समाज के लिए कितना लाभकारी है यह प्रश्न पूछना ही मानो अपराध बन गया है। मदरसा के प्रमाण-पत्रों को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के प्रमाण-पत्रों के समान मानने की सिफारिश करना मदरसा शिक्षा को मजबूत करने वाला कदम है।

मुट्ठी भर मुस्लिम कुलीनों ने आधुनिक शिक्षा को बेरोकटोक अपनाया है, परंतु धर्म की पहचान व फतवों के राज ने आम मुसलमानों को मुख्यधारा की शिक्षा से दूर करने का काम किया है। जिन मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने न तो मदरसा में स्वयं अध्ययन किया है न ही वे अपनी संतानों को ही इसमें भेजते हैं वे ही इसके बड़े पैरोकार बने हुए हैं। पाठ्यक्रम मौलवियों के अधिकार में है और दो तिहाई हिस्सा इस्लामिक शिक्षा तक सीमित है। 

भारत में मुसलमानों के बीच औपनिवेशिक काल की मानसिकता को पुष्ट करने के लिए अनेक वैचारिक धाराएँ काम कर रही हैं। जैसे महिलाओं को सह शिक्षा विद्यालयों-महाविद्यालयों में जाने से रोकना एक आम बात बन गई है। यह बात सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं है, रोजगार के क्षेत्र में भी प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। 

मध्य वर्ग मुस्लिम परिवार शिक्षा के दौरान छात्राओं द्वारा विषयों के चयन एवं बाद में 
  मुस्लिम समाज को लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के आईने में अपने आपको देखने का प्रयास करना चाहिए। उनकी सामाजिक,आर्थिक व शैक्षणिक स्थितियों की तुलना हिन्दुओं से करना न सिर्फ बेमानी है बल्कि राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का जाने-अनजाने में किया जा रहा प्रयास भी है      
उनके रोजगार की प्रकृति पर कड़ी नजर रखता है। उस अध्ययन में पाया गया कि यहाँ तक कि गरीब परिवारों की महिलाओं को भी घर से बाहर जाकर रोजगार करने पर रोक लगा दी जाती है। मदरसा शिक्षा का सीधा संबंध आतंकवाद से हो या न हो परंतु यह प्रगतिगामी तो नहीं ही है, मुस्लिम मन को राष्ट्रवाद से अधिक अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक समुदाय से जोड़ने का काम करता है।


1866 में देवबंद मदरसा की स्थापना हुई थी। बाहरी तौर पर यह एक उदारवादी इस्लामिक शिक्षा केंद्र दिखाई पड़ता है, परंतु इसकी भूमिका मुसलमानों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने की कितनी रही है यह एक बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। वर्तमान यूपीए सरकार द्वारा स्थापित प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट ने तो इस बात की पुष्टि कर दी है कि अनियंत्रित मदरसा शिक्षा आतंकवाद को बढ़ाने वाली ही साबित हो रही है। इसने धार्मिक कट्टरपंथी शिक्षा को आतंकवाद की जननी माना है। इस रिपोर्ट के बाद देवबंद भी कठघरे में खड़ा है।

कट्टरपंथी विचारधारा मुस्लिम राजनीति व सामाजिक जीवन पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए बहुआयामी प्रयत्न कर रही है। इसी का एक उदाहरण है इस्लामिक बैंकों की माँग करना। देवबंद की वेबसाइट पर शिक्षित मुसलमानों के द्वारा आर्थिक जीवन संबंधी प्रश्न एवं फतवों का अंबार है। रियल इस्टेट में रोजगार करूँ या नहीं, शेयर बाजार में किस प्रकार की कपंनियों में धन लगाऊँ, शून्य ब्याज दर होने पर भी किस्तों पर मोटरसाइकल खरीदूँ या नहीं, जीवन बीमा कराऊँ या नहीं?

ये प्रश्न मौलवियों के बढ़ते प्रभाव को तो दर्शाते ही हैं, मुस्लिम समाज को पिछड़ेपन की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति के भी सूचक हैं। स्वतंत्र भारत की कथित सेकुलरवादी ताकतों ने मुस्लिमों की तुलना हिन्दुओं से करने का काम किया है। इसी सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया था, जिसने हिन्दुओं व मुसलमानों को दो प्रतिद्वंद्वी समुदायों के चश्मे से देखने का काम कर औपनिवेशिक फॉर्मूले को पुनर्जीवित करने का काम किया है।

वस्तुतः मुस्लिम समुदाय का संवाद लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के जीवंत मापदंडों के साथ किया जाना चाहिए। इसी प्रकार का संवाद हिन्दुओं, पारसियों या इसाइयों के द्वारा होता रहा है। बहुसंख्यक समाज ने तो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ संवाद को जारी रखने और समाज सुधार में राज्य के हस्तक्षेप का भी स्वागत किया, लेकिन भारतीय मुसलमान इससे दूर भागते रहे हैं।

अतः मुस्लिम समाज को लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के आईने में अपने आपको देखने का प्रयास करना चाहिए। उनकी सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्थितियों की तुलना हिन्दुओं से करना न सिर्फ बेमानी है बल्कि राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का जाने-अनजाने में किया जा रहा प्रयास भी है। 
(लेखक इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक हैं) - साभार- वैबदुनिया

January 07, 2009

हाय, क्या ये पंढेर भी बरी हो जाएगा..??

अब तो लगता है कि अपराध में कैरियर बनाना ज्यादा सुरक्षित है
दोस्तों, अब तो लग रहा है कि हमारे देश में रोजाना ही दिन काले होना लिखा है। एक बात से उबर नहीं पाते कि दूसरी बात सामने आ जाती है। इस समय देश में सबसे ज्यादा चाँदी अपराधियों की हो रही है। वो समझने लगे हैं कि अब कोई भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। कुछ ऐसी खबरें सुर्खियों में चल रही हैं जो बता रही हैं कि भाई अब यहाँ कोई भी सुरक्षित नहीं....और हाँ जो सुरक्षित हैं वो सब बदमाश हैं। दोस्तों, मेरे कुछ साथियों को आजकल लग रहा है कि मैं भटक गया हूँ। किसी को भी कोसने से पीछे नहीं हट रहा। या कहें कि मुझमें (या मेरे लेखन में) भटकाव आ गया है। लेकिन यहाँ मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि समस्या मुझमें कम है और परिस्थितियों में ज्यादा.....क्या करें जब रोजाना निराशाजनक खबरें हमारे सामने आ जाती हैं। क्योंकि प्रोफेशन कुछ ऐसा ही है कि हर रोज हजारों शब्द और सैंकड़ों पन्ने और खबरें पढ़नी पड़ती हैं इसलिए मानसिकता भी बदलती रहती है। किसी एक बात से चिपके रहने की मेरी आदत नहीं है। यूँ तो मेरा विश्वास भारत की खुफिया एजेंसियों पर कभी से नहीं है लेकिन सरकार के लिए बिकाऊ सीबीआई के लिए भी मुझे यही लगता है कि इसे सिर्फ सरकार ही नहीं कोई भी बाहुबली-धनबली खरीद सकता है। व्यवस्था भी बिकाऊ है। न्यायपालिका भी है (लेकिन इसपर बहस की जा सकती है क्योंकि कई लोगों को इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होगा, लेकिन ये सच है)। आज सुबह पढ़ा कि घनघोर बदनाम और चर्चित निठारी कांड के सतेन्द्र उर्फ मैक्स मामले में भी सीबीआई ने मोनिन्दरसिंह पंढेर को क्लीनचिट दे दी है। पंढेर को अभी तक उसपर लगे १९ मामलों में से १६ मामलों पर क्लीनचिट दे दी गई है। और मुझे लगता है कि बाकी बचे तीन मामलों में भी सीबीआई उसे क्लीनचिट दे देगी। आखिर अपने अभी तक के इतिहास में सीबीआई कितने बड़े मामलों में सजा करवा चुकी है। मुझे तो याद नहीं आता शायद आपको याद आए..। दोस्तों, निठारी मामला देश में अभी तक का अपनी तरह का पहला मामला था। इस केस में हमें पता चलता है कि इंसान कितना निष्ठुर और कमीना हो सकता है। वो अपनी हैवानी इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। दिसंबर २००६ में राजधानी दिल्ली से सटे औद्योगिक क्षेत्र नोएडा (इसे उत्तरप्रदेश का सिंगापुर भी कहा जाता है) में एक आलीशान घर से कई बच्चों के कंकाल बरामद हुए थे। यह मकान मोनिन्दर सिंह पंढेर का था जिसका व्यापार काफी फैला हुआ था और उसकी मासिक आय ३० लाख रुपए से ज्यादा थी। इस शैतान की बीवी इसको छोड़कर जा चुकी थी और ये बच्चों के साथ सैक्स करने का शौकीन था। इसका साथ उसके नौकर सुरेन्द्रसिंह कोली ने दिया जो खुद भी इस व्यसन का शिकार बन चुका था। इस मामले में पुलिस ने ढिलाई बरती और मामले पर परदा डालने की कोशिश की। जाहिर है कि यहाँ भी रुपया चल रहा था। मामले में दर्जनभर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई। लेकिन फिर भी उत्तरप्रदेश सरकार इस मामले को सीबीआई को सौंपने को तैयार नहीं थी। इस पर लोग सड़कों पर उतर आए और राज्यपाल की ओर से दबाव पड़ने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने इस मामले को सीबीआई को सौंपा। सीबीआई ने पंढेर के खिलाफ १९ मामले दर्ज किए और इसे कोर्ट में घसीटा। पंढेर को कोर्ट में वकीलों ने बुरी तरह जूते-चप्पलों से पीटा और उसका केस लड़ने से मना कर दिया। पंढेर को सरकारी वकील मिला। अब फिर से सीबीआई हर बार की तरह पिट रही है और पंढेर बरी होने की कगार पर है। सीबीआई तो शुरुआती जाँच में ही मान गई थी कि पंढेर ने कुछ नहीं किया और किया है वो उसके नौकर कोली ने किया है। दोस्तों, पंढेर नरपिशाच है। उसके घर के आस-पास से मानव अवशेषों से भरे ४० पैकेट जब्त किए गए थे। उसके बारे में आसपास के क्षेत्र में माना जाता था कि वह बच्चों से यौन संबंध बनाता था और उसके बाद उसका नौकर सुरेन्द्रसिंह कोली उनकी हत्याएँ कर देता था। इस पूरे मामले में ३० से ज्यादा महिलाओं और बच्चों की हत्या की गई थी जिसमें से १७ के अवशेष उसके घर के पास से मिले थे। पंढेर पर वैश्यावृत्ति के आरोप भी लगे थे। हालांकि उसने इनसे इंकार किया लेकिन ये माना था कि वो वैश्याओं को घर पर बुलाता था (क्या आरती उतारने).....।। पंढेर बच जाएगा। ये सवाल मेरे मन में सुबह से कौंध रहा था। तो फिर सजा किसको होगी। किसी को भी नहीं। हमारा देश ना तो पाकिस्तान को सजा दे सकता है और ना ही एक अदने से आदमी को। पिछले दो दिनों से आप और हम नोएडा की कुछ और खबरें भी देख रहे हैं। कल ही वहाँ एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार (गैंग रेप) हुआ और आज एक नाबालिग लड़की का बलात्कार करने की कोशिश की गई। अपराधियों को पता चल गया है कि इस देश में जब नर पिशाच बच सकते हैं तो वे तो सिर्फ बलात्कार ही कर रहे हैं। क्या होगा हमारे समाज का.....क्या हम, या हमारी माताएँ, बहने और बेटियाँ भयमुक्ति रह पाएँगी....?? अब कितनी आशाएँ करें इस देश की नपुंसक सरकार और उसकी न्याय व्यवस्था से....ये पुलिस प्रशासन, खुफिया एजेंसियाँ और हर अपराधी को बरी करने वाली न्यायव्यवस्था पर मुझे तो विश्वास नहीं है....क्या आपको है..?? आपका ही सचिन....।