March 25, 2009

भोपाल का वन-विहार राष्ट्रीय उद्यान

झील किनारे प्रकृति का सुंदर नजारा

सचिन शर्मा
वन विहार सड़क
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यूँ तो किसी भी राष्ट्रीय उद्यान (नेशनल पार्क) का नाम सुनते ही आँखों के सामने दूर तक फैला घना जंगल और खुले घूमते जंगली जानवरों का दृश्य उभर आता है। लेकिन अगर आप कभी मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल जाएँ तो वहाँ शहर के बीचोंबीच बना 'वन विहार' राष्ट्रीय उद्यान इन सब बातों को गलत साबित करता प्रतीत होगा। यह 'थ्री इन वन' राष्ट्रीय उद्यान है।

यह अनोखा उद्यान नेशनल पार्क होने के साथ-साथ एक चिड़ियाघर (जू) तथा जंगली जानवरों का रेस्क्यू सेंटर (बचाव केन्द्र) भी है। 445 हैक्टेयर क्षेत्र में फैले इस राष्ट्रीय उद्यान में मिलने वाले जानवरों को जंगल से पकड़कर नहीं लाया गया है। यहाँ ज्यादातर वो जानवर हैं जो लावारिस, कमजोर, रोगी, घायल अथवा बूढ़े थे या फिर जंगलों से भटक-कर ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में आ गए थे तथा बाद में उन्हें पकड़कर यहाँ लाया गया। कुछ जानवर दूसरे प्राणी संग्रहालयों से भी यहाँ लाए गए हैं जबकि कुछ सर्कसों से छुड़ाकर यहाँ रखे गए हैं।

वन विहार अद्भुत है। पाँच किलोमीटर लंबे इस राष्ट्रीय उद्यान के एक तरफ पूरा पहाड़ और हराभरा मैदानी क्षेत्र है जो जंगलों तथा हरियाली से आच्छादित है। दूसरी ओर भोपाल का मशहूर तथा खूबसूरत बड़ा तालाब (ताल) है। ये संगम अपने आप में बहुत सुंदर लगता है। वन विहार विस्तृत फैला हुआ चिड़ियाघर है। यह प्रदेश का एकमात्र 'लार्ज जू' यानी विशाल चिड़ियाघर है। इससे पहले यह मध्यम श्रेणी के चिड़ियाघर में आता था। यह प्रदेश का एकमात्र ऐसा चिड़ियाघर भी है जिसकी देखरेख वन विभाग करता है।

प्रदेश में दो अन्य चिड़ियाघर भी हैं। ये इंदौर और ग्वालियर में स्थित हैं। लेकिन ये दोनों ही चिड़ियाघर 'स्मॉल जू' यानी छोटे चिड़ियाघरों की श्रेणी में आते हैं और इनकी देखरेख स्थानीय नगर-निगम करता है। ये दोनों ही चिड़ियाघर किसी भी मामले में वन विहार के आस-पास नहीं ठहरते। वन विहार की शानदार खासियतों की वजह से ही इसे 18 जनवरी 1983 को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया जो अपने आप में एक उपलब्धि है।

वन विहार हिरण
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वन विहार के अंदर घुसने से पहले लगता ही नहीं है कि आप एक खूबसूरत जंगल में प्रवेश करने वाले हैं। इस राष्ट्रीय उद्यान का मुख्य द्वार बोट क्लब के पास से है। इसका नाम रामू गेट है। इस गेट से दूसरी ओर भदभदा क्षेत्र स्थित चीकू गेट तक की कुल दूरी 5 किलोमीटर है। इस रास्ते को पार करते हुए आपको कई खूबसूरत तथा कभी ना भूलने वाले दृश्य दिखाई देंगे। आप इस विहार में इच्छानुसार पैदल, साइकिल, मोटरसाइकिल, कार या फिर बस से भी घूम सकते हैं। आपको इसके लिए वन विभाग द्वारा निर्धारित किया गया शुल्क चुकाना होगा।

इसके बाद आपकी बाँई ओर जानवरों के खुले तथा विशाल बाड़े मिलते जाएँगे जहाँ उनको उनके प्राकृतिक आवास में देखा जा सकता है। शुरुआत सियार तथा हाइना (लगड़बग्घे) के बाड़ों से होती है। इसके बाद भालू, शेर, हिमालयी भालू, तेंदुए और बाघ के बाड़े आते हैं। इन सब बड़े जानवरों को देखने के लिए पार्क में सुबह या शाम का समय सबसे अधिक मुफीद रहता है। दोपहर के समय ये सब जानवर धूप से बचने के लिए कहीं छाँव तलाशकर आराम करते रहते हैं। पानी वाले क्षेत्र में आपको पहाड़ी कछुए, मगरमच्छ और घड़ियाल देखने को मिलेंगे। पार्क के बीचोंबीच स्नेक पार्क भी मिलेगा वहाँ विभिन्न प्रकार के साँप देखने को मिलते हैं।

हिरण के बाड़े बच्चों को बहुत आकर्षित करते हैं और मुझे तो वहाँ हिरण सड़क पर हमारे साथ-साथ चलते-घूमते दिखे। इतना ही नहीं वन विहार में बहुतायत में सांभर, चीतल, नीलगाय, कृष्णमृग, लंगूर, लाल मुंह वाले बंदर, जंगली सुअर, सेही और खरगोश हैं। विहार में पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियों को चिन्हित किया गया है। यहाँ कई प्रकार की वनस्पति है जो यहाँ के जंगल को समृद्ध बनाती है। भोपाल के बड़े तालाब का 50 हेक्टेयर हिस्सा वन विहार के साथ-साथ चलता है। यह पूरे भूदृश्य को बहुत मनोरम बना देता है। शाम को यहाँ पक्षियों की चहचहाहट देखने लायक होती है। पर्यटकों के लिए यहाँ ट्रेकिंग का भी इंतजाम है जिसे करके पूरे उद्यान की भौगोलिक स्थिति को पास से देखा तथा महसूस किया जा सकता है।

रुकिए, अगर इतना सब घूमकर आप थक गए हैं, थोड़ा विश्राम करना चाहते हैं और आपको भूख भी लगी है तो यहाँ आपके लिए शानदार 'वाइल्ड कैफे' मौजूद है। इस खूबसूरत कैफे में बैठकर आप प्रकृति के साथ लजीज भोजन या नाश्ते का लुत्फ ले सकते हैं। बारिश के समय तो लकड़ियों की ऊँची बल्लियों पर बने इस कैफे के नीचे से पानी भी बहता है जो एक मनोरम वातावरण पैदा कर देता है। नाश्ता कर चुकने के बाद आप कैफे के साथ ही बने 'विहार वीथिका' में जा सकते हैं। वहाँ आपको चित्रों तथा कुछ वास्तविक चीजों के माध्यम से जंगलों तथा जंगली जानवरों के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलेंगी।

छुट्टियों के दिन :
- पार्क सभी शुक्रवार बंद रहता है।
- इसके अलावा होली तथा रंगपंचमी को भी पार्क बंद रहता है।

महत्वपूर्ण जानकारियाँ :
- कब जाएँ : उद्यान पूरे साल भर खुला रहता है।
- समय : 1 अप्रैल से 30 सितंबर तक सुबह 7 से शाम 6:30 तक
1 अक्टूबर से 31 मार्च तक सुबह 7 से शाम 6 बजे तक

March 14, 2009

प्यासी रह जाएगी मानव जाति!

- 2032 : आधी दुनिया रह जाएगी प्यासी - यह शताब्दी खतरे की घंटी - फिलहाल कोई उपाय नहीं


सचिन शर्मा
दुनिया में पानी की मात्रा सीमित है। हालाँकि हमें हमेशा से यही सुनने को मिलता रहा है कि पानी असीमित है। संसार में पानी की बहुतायत है और इसलिए मानव जाति ने पानी का हमेशा दुरुपयोग ही किया। लेकिन यह बात गलत साबित हो गई और 20वीं शताब्दी के अंत तक
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हमें पता चल गया कि पीने योग्य मीठा पानी बहुत ही सीमित है और इसी सीमित पानी से संसार में रहने वाली सभी प्रजातियों (मानव समेत) को गुजारा करना होगा। वैज्ञानिकों के अनुसार अगले दो दशकों में पानी की कमी के कारण हमें जो कुछ भुगतना पड़ सकता है, उसकी फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा सकती।


पृथ्वी का नक्शा देखने पर हमें लगता है कि वह सब तरफ से नीली ही नीली है। संसार का 75 प्रतिशत भाग पानी है। यहाँ सागर हैं। महासागर हैं। बड़ी-बड़ी खाड़ियाँ हैं, लेकिन यह हमारे किसी काम के नहीं हैं। यह सब 'नमकीन' हैं। हम इन्हें पीने के उपयोग में नहीं ले सकते, इनसे खेती नहीं कर सकते।

हाँ, यह अलग बात है कि ये पानी के अथाह भंडार विश्व के वायुमंडल, तापमान और मौसम को नियंत्रित करने में महती भूमिका निभाते हैं लेकिन हमारे जिंदा रहने के लिए जरूरी पीने का पानी इन स्रोतों से नहीं मिल सकता। बात सिर्फ पीने योग्य पानी की करें तो विश्व के कुल भू-भाग में हिलोरे ले रहा 75 प्रतिशत भाग यानी पानी का सिर्फ 2.5 प्रतिशत ही 'मीठा पानी' है। इस ढाई प्रतिशत मीठे पानी का भी 75 प्रतिशत भाग 'ग्लेशियर' और 'आइसकैप्स' के रूप में संरक्षित है।

ये ग्लेशियर और आइसकैप्स दुनिया में दुर्गम जगहों पर स्थित हैं और हर किसी की वहाँ तक पहुँच संभव नहीं। इतना ही नहीं 'ग्लोबल वार्मिंग' के चलते इन बर्फीले पानी के स्रोतों पर भी नजर लग रही हैं और ये पिघल रहे हैं। इनके पिघलने से मीठा पानी कई जगह नमकीन समुद्री पानी से मिलकर बेकार हो जाता है। आर्कटिक और अंटार्कटिक से पिघलकर बह रहा मीठा पानी इसका उदाहरण हैं।

सिर्फ उस पानी की बात करें जो मनुष्य के लिए उपलब्ध है तो वो धरती के कुल पानी का मात्र 0.08 प्रतिशत ही है। मीठे पानी का सिर्फ 0.3 प्रतिशत ही नदियों और तालाबों जैसे स्रोतों में मिलता है। बाकी जमीन के अंदर भू-जल के रूप में संरक्षित है। लेकिन अब भूजल पर भी लोग डाका डालने लगे हैं और इसका बेतरतीब उपयोग सब जगह हो रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अभी संसार में मानव जितना पानी इस्तेमाल कर रहा है अगले दो दशकों में यह और अधिक बढ़ेगा। यह इस्तेमाल वर्तमान के मुकाबले 40 प्रतिशत अधिक तक जा सकता है। विषय विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इन बातों से अत्याधिक चिंतित हैं और मानते हैं कि यह शताब्दी मानव सभ्यता के लिए पिछली शताब्दियों जितनी आसान साबित होने वाली नहीं है।

वैज्ञानिक मीठे पानी के सबसे प्रमुख स्रोत 'बारिश के पानी' को संचित करने पर जोर दे रहे हैं। जिन जगहों से नदियाँ बह रही हैं, वैज्ञानिक उन जगहों के लोगों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि वो इस अथाह जल राशि को अपनी आँखों के सामने से यूँ ही बह नहीं जाने दें और उसे संचित करने के यत्न करें। वैज्ञानिकों के अनुसार इस शताब्दी में ग्लोबल वार्मिंग के बाद पानी के संग्रहण की समस्या ही सबसे प्रमुख साबित होने वाली है।

खेती कहाँ से होगी : मीठे पानी का सबसे अधिक उपयोग खेती में होता है। मानव द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले पानी का 70 प्रतिशत सिर्फ खेती के लिए होता है। 'वर्ल्ड वाटर काउंसिल' के अनुसार 2020 तक खेती के लिए उपयोग होने वाली पानी में 17 प्रतिशत का इजाफा होगा। अगर यह नहीं हुआ तो विश्व का पेट भरने में मुश्किल आ जाएगी।

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इस बात को सोचकर ही रूह काँप जाती है कि अगर खेती के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिला तो विश्व की एक बड़ी आबादी को रोजाना भूखे पेट सोना पड़ेगा। और इनमें से भी कई प्यासे रह जाएँगे। अफ्रीका में तो प्रतिदिन 50 हजार बच्चे पाँच साल का होने से पूर्व ही काल के गाल में समा जाते हैं और इसकी वजह सिर्फ 'भूख' होती है।

एशिया पर सबसे अधिक संकट : दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी को अपने में समाहित करने वाला एशिया महाद्वीप जल संकट का सबसे अधिक सामना कर रहा है। इस महाद्वीप में भी दक्षिण एशिया की हालत सबसे अधिक खराब है, जहाँ की 90 प्रतिशत आबादी जल संकट का सामना कर रही है।

लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है कि विकसित देश और योरप तथा अमेरिका जैसे महाद्वीप जल संकट से अछूते हैं। यहाँ भी हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं। 'ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक' (जीयो-3) की रिपोर्ट के अनुसार 2032 तक संसार की आधी से अधिक आबादी भीषण जल संकट की चपेट में आ जाएगी।

भू-जल का उपयोग सौम्य चोरी : वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के गर्भ में सुरक्षित भू-जल को 'रिर्जव वॉटर' कहा है। लेकिन भारत में जहाँ-तहाँ बोरिंग करवाकर इसका उपयोग शुरू कर लिया जाता है। ऐसा विश्व के कई अन्य देशों में भी किया जाता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को प्रकृति के बैंक से की जा रही चोरी की संज्ञा देते हैं क्योंकि इस अमूल्य पानी के उपयोग के बदले कुछ भी चुकाया नहीं जाता। वहीं भारत के जल प्रबंधन विशेषज्ञ अनुपम मिश्र इसे पानी की 'सौम्य चोरी' की संज्ञा देते हैं।

March 07, 2009

जल संसाधनों पर प्रदूषण की काली छाया

प्रदूषित जल से बीमारियाँ, बढ़ती जनसंख्या बन रही है खतरा

सचिन शर्मा
जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जा रही है भारत में पानी की समस्या फिर से सिर उठा रही है, लेकिन हर साल ये समस्या पिछले साल के मुकाबले कहीं बड़ी हो जाती है। हालाँकि आमजन को लगता है कि बस ये गर्मियाँ निकाल लें, लेकिन ये गर्मियाँ तो हर वर्ष आनी हैं।

  जल प्रबंधन विशेषज्ञ राजेन्द्रसिंह ने तो यह तक कहा है कि देश में चंबल नदी को छोड़कर अन्य नदियों का पानी नहाने योग्य भी नहीं है      
अगले दशक यानी 2010 से 2020 तक तो स्थिति बिगड़नी ही है, लेकिन उसका अगला दशक यानी 2020 से 2030 में तो स्थिति विनाशकारी बनने वाली है। विशेषज्ञ इन मुद्दों पर शोध कर रहे हैं और घबरा रहे हैं, लेकिन आमजन इतना दूरदर्शी नहीं है। वो तो बस सिर्फ वर्तमान वर्ष और उसमें भी गर्मियों की चिंता करता है। बारिश आते ही उसे अपनी सारी परेशानियाँ दूर होती नजर आने लगती हैं और वो फिर से पानी के प्रति बेरुखी अपना लेता है।

विश्व बैंक द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार भारत में पानी का कई प्रकार से अपव्यय होता है लेकिन सबसे अधिक है स्वच्छ जल को प्रदूषित करके उसे किसी भी योग्य न छोड़ना। ऐसे प्रदूषण से जल के स्थायी स्रोत नष्ट हो जाते हैं और वो किसी काम का नहीं रहता। अगर उसे उपयोग में लिया जाए तो वह भीषण बीमारियाँ देकर जाता है।

देश के कई बड़े शहरों के बीच से बहने वाली नदियाँ प्रदूषण की काली छाया और शहरीकरण के चलते नाला बनकर रह गई हैं। इसके ढेरों उदाहरण हैं। लेकिन, पानी के अमूल्य स्रोत को बिगाड़कर भी आमजन को फिलहाल न तो कोई अफसोस हो रहा है और ना ही उसमें जागरूकता आई है।

ऐसा नहीं है कि भारत में पानी की कोई कमी है। जल का प्रबंधन और बढ़ती जनसंख्या मुख्य समस्या बनकर सामने आ रहे हैं। पानी की समस्या सिर्फ पीने तक ही सीमित नहीं है। वह कई अन्य इस्तेमाल में भी नहीं आ पा रहा है। भारत की तेजी से बढ़ती आबादी देश के सभी प्राकृतिक संसाधनों पर हावी हो रही है। ज्यादातर जल संसाधन खेती के लिए किए जा रहे गलत उपयोग और दूषित पदार्थों की मिलावट के कारण गंदे हो रहे हैं। इतने गंदे कि वहाँ से पीने का पानी तो दूर की बात है, नहाने-धोने के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

प्रदूषण की ये समस्या पहले से ही चौपट हो रहे जल संसाधनों को पूरी तरह नष्ट करने के कगार पर पहुँचा रही है। इस बारे में जल प्रबंधन विशेषज्ञ राजेन्द्रसिंह ने तो यह तक कहा है कि देश में चंबल नदी को छोड़कर अन्य नदियों का पानी नहाने योग्य भी नहीं है। इन नदियों के पानी को पीने की बात तो छोड़ ही दीजिए। आँकड़ों को देखें तो भारत की आबादी 2016 तक एक अरब 26 करोड़ हो जाएगी।

अगर इसी रफ्तार से ये आबादी बढ़ती रही तो 2050 तक यह चीन की आबादी से भी अधिक हो जाएगी। भारत में विश्व की 18 प्रतिशत जनता रहती है, जबकि वह विश्व के कुल क्षेत्रफल का मात्र 2.4 प्रतिशत ही है। ऐसे में बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या का सारा दबाव भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर आ रहा है जिनमें जल संसाधन प्रमुख हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार भारत में 21 प्रतिशत प्रचलित बीमारियाँ अशुद्ध पानी की वजह से फैलती हैं। संगठन के अनुसार भारत में वर्ष भर में 7 लाख लोग सिर्फ डायरिया के कारण मौत के मुँह में चले जाते हैं, जो मूल रूप से अशुद्ध पानी पीने की वजह से फैलता है।

  एक अंतरराष्ट्रीय आँकड़े के अनुसार भारत की सिर्फ 33 प्रतिशत आबादी ही अपने लिए सफाई प्रबंध कर पाती है      
साफ-सफाई भारत में मुख्य समस्या है, जो पानी की कमी के कारण अब दिन-ब-दिन और अधिक बढ़ती जा रही है। 'वॉटर पाटर्नस इंटरनेशनल' के अनुसार भारत की ग्रामीण जनता में से सिर्फ 14 प्रतिशत ही शौच के लिए शौचालय का उपयोग करती है। शौच के बाद हाथ धोना भी एक बड़ी समस्या है। यह भी ज्यादातर ग्रामीण भारत नहीं करता। हाथ की साफ-सफाई न रखना भी बीमारियों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगर हाथ धो भी लिए और वो पानी गंदा हुआ तो यह भी बीमारियाँ ही फैलाएगा।

एक अंतरराष्ट्रीय आँकड़े के अनुसार भारत की सिर्फ 33 प्रतिशत आबादी ही अपने लिए सफाई प्रबंध कर पाती है। जाहिर है कि पानी की कमी यहाँ भी अपना असर दिखा रही है। ऐसे में जब पीने का पानी ही मुहाल हुआ जा रहा है तो देश की जनता साफ-सफाई के लिए पानी कहाँ से जुटा पाएगी। 

पानी की यह कमी बीमारियों में जबरदस्त इजाफा करेगी और पानी की कमी से होने वाली मौतों में यह कोण नए तरीके से जुड़ेगा। लोगों को अभी से समझना और संभलना होगा कि वे बेहतर जल प्रबंधन करें, जल संसाधनों को प्रदूषित न करें और उन्हें नष्ट होने से भी बचाएँ। क्योंकि देर-सबेर जब भी पानी का हमला होगा तब असहाय इन्सान उसे झेलने की स्थिति में भी नहीं होगा।

March 05, 2009

नवीन चावला की बेशर्म नियुक्ति

कांग्रेस ने बता दिया है कि वह सत्ता के दुरुपयोग की आदी है

दोस्तों, आखिर आप लोग समझ गए होंगे कि मैं किस बात को लेकर निशाना साध रहा हूँ। कांग्रेस ने पिछले दिनों बेशर्मी से कह दिया कि देश के अगले मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला ही होंगे। वह चावला जिनके ऊपर हाल ही में वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालास्वामी ने आरोप लगाया था कि ये कांग्रेसी मानसिकता के व्यक्ति हैं, कांग्रेस को फेवर करते हैं, महत्वपूर्ण बैठकों को बीच में छोड़कर बाथरूम जाते हैं और बैठकों की गुप्त जानकारी कांग्रेसी नेताओं को देते हैं। जाहिर है, गोपालस्वामी एक ईमानदार अधिकारी हैं। उन्होंने इस आशय की समस्त जानकारी राष्ट्रपति को दी। राष्ट्रपति से यह भी गुजारिश की महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर बैठे व्यक्तियों को सेवानिवृति के १० वर्ष बाद तक राजनीति में जाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि राजनीति में अपनी सीट पक्की करने के चक्कर में ये अधिकारी अपने वर्तमान दायित्व के प्रति बेइमान हो जाते हैं और किसी एक पार्टी विशेष के प्रति वफादार बनकर रह जाते हैं। 

लेकिन हमारी योग्य राष्ट्रपति ने इस पत्र या कहें आरोप पत्र के तुरंत बाद सोनिया गाँधी को फोन लगाया होगा (क्योंकि हमारी वर्तमान राष्ट्रपति महोदया इंदिरा गाँधी के समय सोनिया गाँधी को किचन में खाना बनाना सिखा चुकी हैं और तभी से उनकी किचन कैबीनेट का हिस्सा हैं, यही शायद उनकी योग्यता का पैमाना भी है) और पूछा होगा कि क्या किया जाए मैडम...सोनिया ने उन्हें डपट दिया होगा और कह दिया होगा कि ये कैसी बात कर रही हैं आप....क्या आपको हमारी सासू माँ याद नहीं जिन्होंने २५ अप्रैल १९७३ को इसी प्रकार का जोखिम लिया था और तत्कालीन तीन जजों की सीनियरेटी को दरकिनार करते हुए एएन रे को चीफ जस्टिस बनाया था। इस नियुक्ति के ठीक दो साल बाद इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा दी थी और रे उनके काम आए थे। तो अपने वफादार नवीन चावला को मुख्य चुनाव आयुक्त की सीट दिलवाने (वो भी ठीक चुनावों के शुरू होने के चार दिन बाद) के लिए सोनिया ने राष्ट्रपति के पास मंजूरी पत्र भेजा और राष्ट्रपति ने अपने नाम के अनुरुप उसपर अपनी रबर स्टाम्प टिका दी। 

दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जिसके नेता अराजक पाकिस्तान को दिखाकर हमें यह बताते रहते हैं कि देखो हम उससे कितने बेहतर हैं, लेकिन वो हमें योरप या अमेरिका के वो देश कभी नहीं दिखाते या उनका उदाहरण देते हैं जो हमसे कई गुना ज्यादा ईमानदार हैं। कांग्रेस ने यह बेशर्म चाल चली है और इससे टीएन शेषन जैसे कद्दावर मुख्य चुनाव आयुक्त वाली कुर्सी की परंपरा पर दाग लग गया है। चावला अब कांग्रेस के लिए काम करेंगे। भाजपा भी इस मुद्दे को उच्चतम न्यायालय में घसीट कर ले जा सकती है। कुल मिलाकर एक पवित्र चुनावी महाआयोजन को (जिसको चुनाव आयोग के सख्त रवैए ने वाकई पवित्र बना दिया है नहीं तो पहले यह क्या था बताने की जरूरत नहीं) इस बार एक भ्रष्ट अधिकारी और एक पुरानी भ्रष्ट पार्टी ने मिलजुलकर इसे कलुषित बनाने की ठान ली है। अब देखना है कि एक माह चलने वाले चुनावी महासमर में इस नियुक्ति का क्या और कितना असर पड़ता है। 

आपका ही सचिन....।

March 04, 2009

ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ विकल्प 'सौर ऊर्जा'

भारत नहीं उठा पा रहा है सूर्य के तेज का लाभ

सचिन शर्मा
वर्तमान में हमारा देश ऊर्जा की समस्या से जूझ रहा है। सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश में बिजली रहती ही नहीं है। ग्रामीण इलाकों की तो छोड़िए वहाँ के ज्यादातर बड़े शहर भी बिजली से महरूम हैं और छोटे-बड़े घरों में जनरेटर तथा इनवर्टर मिलना आम बात है।

इसी प्रकार मध्यप्रदेश जैसे बड़े प्रदेशों में भी बिजली का संकट है। यहाँ ग्रामीण इलाकों में 18 घंटे बिजली गुल रहती है। जिला मुख्यालय और संभागीय मुख्यालय भी 'बिजली कट' की चपेट में जब-तब आते रहते हैं। यह स्थिति कमोबेश सभी प्रदेशों में है। इतनी समस्या के बावजूद हमारे देश में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर कम ही चर्चा होती है। अगर वैकल्पिक ऊर्जा की बात की जाए तो भारत की ऊर्जा समस्या के लिए 'सौर ऊर्जा' एक बेहतर और जोरदार विकल्प साबित हो सकती है।

भारत संसार के कुछ उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहाँ 1700 किलोवॉट सौर ऊर्जा प्रति वर्गमीटर प्रति वर्ष की दर से गिरती है। सूर्य की यह तेजी पूरे भारत में लगभग वर्ष भर रहती है और सर्दी तथा गर्मी में इसकी तेजी में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इस देश में बारिश के मौसम में भी कई जगह अच्छी-खासी धूप पड़ती है। भारत सरकार अगर चाहे तो इस वैकल्पिक और ताकतवर ऊर्जा का सही उपयोग कर देश की ऊर्जा समस्या को काफी हद तक सुलझा सकती है।

सौर ऊर्जा इतनी ताकतवर होती है कि इससे एक लाख मेगावाट ऊर्जा मात्र 8000 वर्ग किमी क्षेत्र से हासिल की जा सकती है। मतलब भारत के हिसाब से उपयुक्त सौर ऊर्जा संयंत्र लगाकर यह उपलब्धि हासिल की जा सकती है। भारत की कुल ऊर्जा जरूरत (इंस्टॉल्ड कैपेसिटी) वर्तमान में एक लाख 45000 मेगावॉट है। मतलब मात्र 8000 वर्ग किमी क्षेत्र से हम इतनी सौर ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं कि वह भारत की कुल ऊर्जा जरूरत का एक बड़ा भाग पूरा कर सकती है। जबकि हम एक लाख 45000 मेगावॉट ऊर्जा को कई प्रकार से प्राप्त करते हैं। इनमें पन (पानी) ऊर्जा, ताप ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा और पवन ऊर्जा आदि शामिल हैं।

अगर हम 8000 वर्ग किमी भूमि का विश्लेषण करें तो यह भारत के हिसाब से बहुत कम है। यह मध्यप्रदेश की कुल भूमि का मात्र ढाई
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प्रतिशत है। ऐसे में अगर सौर ऊर्जा को एक विकल्प के तौर पर परखा जाए तो यह बाकी ऊर्जा के मुकाबले कहीं अधिक आसान और सस्ती पड़ेगी।


विभिन्न ऊर्जा प्रकार का संस्थापन खर्च (इंस्टॉल्ड कॉस्ट)
-परमाणु ऊर्जा : 25 रुपए प्रति इलेक्ट्रिकल यूनिट (प्रथम वर्ष के लिए)
-पन (पानी) ऊर्जा : 11 रुपए प्रति इलेक्ट्रिकल यूनिट (प्रथम वर्ष के लिए)
-ताप ऊर्जा : 4.50 रुपए प्रति इलेक्ट्रिकल यूनिट (प्रथम वर्ष के लिए)
-सौर ऊर्जा : 9 रुपए प्रति यूनिट (प्रथम वर्ष के लिए)

(इन सबमें सौर ऊर्जा सिर्फ ताप ऊर्जा से महँगी पड़ती है, लेकिन इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ताप ऊर्जा की तरह न तो इसमें कोयले का इस्तेमाल रहता है और न ही प्रदूषण फैलता है।)

सौर ऊर्जा विकास प्रणालिया
थर्मल कॉन्सनट्रेटर : यह प्रणाली अपेक्षाकृत आसान है और सस्ती भी पड़ती है। इसमें सूर्य की रोशनी से पानी गर्म कर भाप बनाई जाती है। उस भाप की शक्ति से ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। यह भाप स्टीम टरबाइन को घुमाती है और उससे बिजली बनती है। इस आशय का संयंत्र केलीफोर्निया में लगा है। उसका नाम 'क्रेमर जंक्शन' है और यह 350 मेगावॉट की शक्ति का है। ऐसे संयंत्रों की ताकत किसी भी हद तक बढ़ाई जा सकती है।

फोटो वोल्टिक : इस प्रणाली में सिलिकॉन के वैफर्स इस्तेमाल किए जाते हैं। ये मोड्यूल के रूप में इस्तेमाल होते हैं। यह सौर ऊर्जा को सीधे ही बिजली में तब्दील कर देते हैं, लेकिन यह प्रणाली महँगी होती है तथा इसका रख-रखाव भी बहुत महँगा पड़ता है। विशेषज्ञों के अनुसार थर्मल कॉन्सनट्रेटर भारत के लिए अधिक उपयुक्त प्रणाली है।