February 27, 2009

कैसे बचेगा मध्यप्रदेश के 'टाइगर स्टेट' का दर्जा

बाघों की कम संख्या से धूमिल हुई छवि

सचिन शर्मा
भारत का हृदय स्थल मध्यप्रदेश अपने शानदार जंगलों और राष्ट्रीय पशु बाघ की 'दहाड़दार' मौजूदगी के कारण जाना जाता है। बाघों की शानदार आबादी के कारण मध्यप्रदेश को 'टाइगर स्टेट' का दर्जा मिला हुआ है। प्रदेश में आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए बाघ मुख्य आकर्षण का केन्द्र रहता है। कान्हा, बाँधवगढ़, पेंच, पन्ना और सतपुड़ा जैसी बाघ परियोजनाएँ और राष्ट्रीय उद्यान मध्यप्रदेश में हैं और यहाँ के आकर्षण में चार चाँद लगाते हैं।

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लेकिन अब इन सब पर खतरे के बादल मँडरा रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे यहाँ के जंगलों पर संकट है। आजादी के बाद इस प्रदेश में जंगल जहाँ कुल भूभाग का 40 प्रतिशत से ज्यादा थे वहीं अब ये सिमटकर 20 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। यही हाल कुछ शानदार जानवर बाघ का भी हो रहा है। पिछले दशक के अंत तक मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या 700 से भी ज्यादा थी। वहीं अब ये घटकर 300 के आसपास रह गए हैं।

बारीकी से देखें तो प्रदेश में वयस्क बाघों की संख्या 264 है और बच्चों को मिलाकर इनकी संख्या 336 है। यह भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा पिछले साल की गई गणना पर आधारित आँकड़े हैं। हालाँकि वन्यजीव विशेषज्ञ अब भी मध्यप्रदेश के जंगलों को बाघों के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन इस प्रदेश का वन विभाग और सरकार इस खूबसूरत जानवर को लेकर गंभीर नहीं है और इसे खोने पर तुली है। 

अब तो मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने भी प्रदेश सरकार से पूछ लिया है कि वो बाघों को बचाने के प्रति कितनी गंभीर है और इस दिशा में उसने क्या कदम उठाया। प्रदेश सरकार को हाईकोर्ट के इस प्रश्न का उत्तर देना अभी बाकी है। कहा जा सकता है कि अगर लापरवाही का यही हाल चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मध्यप्रदेश अपने 'टाइगर स्टेट' का दर्जा खो बैठेगा।

देशभर में हो रही है बाघों की संख्या में कमी : पिछले साल देश में बाघों की संख्या में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई थी। भारत के इतिहास में अब तक सबसे कम बाघ पिछले साल ही दर्ज हुए थे। 1997 में देश में जहाँ 3508 बाघ थे, वहीं दस साल बाद 2008 में इनकी संख्या घटकर मात्र 1411 हो गई। यह अभूतपूर्व कमी थी। 

यह संख्या 1972 में हुई बाघ गणना के आँकड़ों से भी कम थी जब देश में इस राष्ट्रीय पशु की संख्या घटकर महज 1827 रह गई थी। उस दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने तुरंत कदम उठाते हुए देश में 'प्रोजेक्ट टाइगर' परियोजना शुरू करवाई थी। देश में अब 28 'प्रोजेक्ट टाइगर' रिजर्व हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए थे और 1997 में बाघों की संख्या बढ़कर साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा हो गई।

2001-02 में भी ये 3642 बनी रही लेकिन अंततः नई शताब्दी का पहला दशक इस धारीदार जानवर के लिए घातक सिद्ध हुआ और इस दशक के अंत तक ये सिमटकर सिर्फ 1411 रह गए। फरवरी 2008 में बाघों की यह गणना देशभर में भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने की थी।

उल्लेखनीय है कि आजादी के ठीक बाद यानी 1947 में भारत में 40000 बाघ थे। बाघों की इस संख्या को लेकर भारत पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था लेकिन बढ़ती आबादी, लगातार हो रहे शहरीकरण, कम हो रहे जंगल और बाघ के शरीर की अंतरराष्ट्रीय कीमत में भारी बढ़ोतरी इस खूबसूरत जानवर की जान की दुश्मन बन गई।

सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में घटे : 2008 में हुई गणना से पहले मध्यप्रदेश वन विभाग प्रदेश में 700 से ज्यादा बाघ होने के दावे किया करता था लेकिन इस गणना के बाद उन सब दावों की हवा निकल गई और असली संख्या 264 से 336 सामने आई।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार इस गणना में पता चला है कि सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में ही कम हुए हैं। कम होने या गायब होने वाले बाघों की संख्या 400 के आसपास है। आशंका जताई गई कि इनमें से ज्यादातर का शिकार कर लिया गया और उनके अंग दूसरे देशों को बेच दिए गए। 2009 इस जानवर के लिए और भी कड़ी परीक्षा वाला साबित होने वाला है क्योंकि शिकारियों की संख्या जहाँ लगातार बढ़ रही है वहीं बाघों की संख्या और उनका इलाका लगातार कम हो रहा है।

पन्ना में हुआ घोटाला सामने आया : मध्यप्रदेश का राष्ट्रीय उद्यान पन्ना बाघों के खत्म होने का सबसे पहला प्रतीक बना है। 2007 में वन विभाग ने यहाँ 24 बाघ होने का दावा किया था। पिछले साल भारतीय वन्यजीव संस्थान की टीम ने यहाँ 8 बाघ होने की बात कही लेकिन रघु चंदावत जैसे स्वतंत्र बाघ विशेषज्ञ ने यहाँ सिर्फ एक बाघ की मौजूदगी बताई। बाघिन का यहाँ नामोनिशान तक नहीं मिला।

वन्यजीव संस्थान के कैमरों में भी सिर्फ एक बाघ की तस्वीर आई। विशेषज्ञों के अनुसार ये अकेला बाघ यहाँ अपना परिवार नहीं बढ़ा पाएगा और पन्ना भी सरिस्का की राह चलकर अपने बाघों से हाथ धो बैठेगा। अब प्रदेश का वन विभाग सरिस्का की तर्ज पर यहाँ बाँघवगढ़ से एक बाघिन लाकर छोड़ने पर विचार कर रहा है ताकि ये बाघ-बाघिन प्रजनन कर अपनी आबादी बढ़ा सकें और ये राष्ट्रीय उद्यान 'बाघविहीन' होने से बच सके।

इस बारे में मध्यप्रदेश के पीसीसीएफ और मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक एचएस पाबला कहते हैं कि हमने मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ाने की व्यापक कार्ययोजना बनाई है। हम इसके लिए प्रयासरत हैं। पन्ना में बाँधवगढ़ से बाघिन को लाकर छोड़ने की कार्ययोजना पर भी काम चल रहा है। इस साल हम बाघों की संख्या बढ़ाने में जरूर कामयाब होंगे।

February 21, 2009

क्या कूनो हो पाएगा कभी शेरों से आबाद?


सचिन शर्मा
भारत में योजनाएँ किस तरह धरी रह जाती हैं और विशेषज्ञों की राय को किस प्रकार कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है, इसका एक उदाहरण ग्वालियर के नजदीक श्योपुर जिले का 'कूनो अभयारण्य' है। अब से 20 वर्ष पहले इस जगह को एशियाटिक शेरों (एशिया में पाए जाने वाले सिंह) से बसाया जाने वाला था। ये शेर गुजरात से लाए जाने थे। यह योजना भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून और केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा बनाई गई थी। 

लेकिन 20 साल बाद और 20 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी इस योजना पर फिलहाल कोई अमल नहीं हो पाया है। यह अभयारण्य अब भी एशियाई शेरों की दहाड़ के लिए तरस रहा है। तमाम प्रकार के दावों और योजनाओं के बाद भी 20 वर्षों से इन शेरों के लिए तैयार खड़ा यह अभयारण्य 'जंगल के राजा' की बाट जोह रहा है। कूनो अभयारण्य पर बात करने से पहले हमें इस मामले को पूरी तरह से समझना होगा। दरअसल गुजरात के जूनागढ़ जिले में स्थित गिर राष्ट्रीय उद्यान एशियाई शेरों का एकमात्र घर है। हालाँकि ये एशियाई शेर एक समय पूरे भारत में और एशिया के अन्य देशों में भी पाए जाते थे लेकिन धीरे-धीरे इनकी आबादी सिकुड़ती गई और ये सिमटकर सिर्फ गुजरात के इस जिले में बचे रह गए। इस बात को भारत सरकार ने गंभीरता से समझा और 1965 में गिरवन क्षेत्र को संरक्षित घोषित कर दिया। इन जंगलों का 258 वर्ग किमी क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यान घोषित है जबकि 1153 वर्ग किमी क्षेत्र संरक्षित अभयारण्य घोषित है। 2005 की गणना के अनुसार गिर में 359 एशियाई शेर थे। 

हालाँकि कुछ स्वतंत्र वन्यजीव विशेषज्ञ इनकी संख्या फिलहाल 300 के आसपास मानते हैं लेकिन इनकी संख्या वहाँ पहले के मुकाबले बढ़ी है, लेकिन यह संख्या भी जंगल के हिसाब से ज्यादा है और ये शेर जंगल से बाहर निकलने लगे हैं। इन शेरों को सबसे बड़ा खतरा जंगल में बसे सहरिया आदिवासियों के 24 गाँवों से भी है जो शेरों को अपना दुश्मन समझते हैं। लेकिन इसके अलावा विशेषज्ञों की एक दूसरी चिंता भी है। भारतीय वन्यजीव संस्थान ने 25 साल पहले एक शोध किया था और बताया था कि इन शेरों में 'इन-ब्रीडिंग' के चलते अनुवांशिक बीमारी हो सकती है। अगर ये बीमारी हुई तो इन शेरों की मौत हो सकती है और उसके चलते एशिया से शेरों का अस्तित्व खत्म हो सकता है। उस बीमारी से धीरे-धीरे लेकिन कम समय में ये सभी शेर मारे जा सकते हैं। वन्यजीव संस्थान ने इन शेरों में से कुछ शेरों को किसी दूसरे जंगल में स्थानांतरित करने की योजना बनाकर दी थी। संस्थान का मानना था कि इनब्रीडिंग के चलते अगर एक जगह किसी बीमारी से शेरों की नस्ल नष्ट हो जाती है तो दूसरी जगह के शेर अपनी नस्ल और अस्तित्व को बचा लेंगे, लेकिन गुजरात को यह बात समझ नहीं आई और वो अपने शेर ना देने पर अड़ गया। 

गुजरात का अड़ियल रवैया : गुजरात सरकार और वहाँ के कई स्वयंसेवी संगठनों ने यह निश्चय कर लिया है कि वन्यजीव विशेषज्ञों और केन्द्र सरकार की बात पर कोई ध्यान नहीं देना है। कूनो अभयारण्य में शेरों को गिरवन से लाए जाने का विरोध वहाँ की सरकार काफी पहले से कर रही है। शुरू में तो गुजरात सरकार ने इसके लिए सकारात्मक रवैया दिखाया था, लेकिन स्थानीय दबाव के चलते वह पलट गई और शेरों को मध्यप्रदेश भेजने का अपना फैसला उलट दिया। इतना ही नहीं गुजरात सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार पर तरह-तरह के हमले बोलना भी शुरू कर दिया। पिछले साल गुजरात ने मध्यप्रदेश को वन्यजीव संरक्षण में नाकाम बताते हुए कहा था कि वो अपने घड़ियालों को नहीं संभाल पा रहे हैं तो शेरों को कैसे संभालेंगे। 

चिड़ियाघरों के शेरों से करेंगे आबाद : इस बीच कूनो के लिए एक अच्छी खबर भी आई थी। शेरों की लुप्त होती जा रही प्रजाति को बचाने के लिए केन्द्रीय जू प्राधिकरण (सीजेडए) ने एक योजना बनाई। इसके अंतर्गत देशभर के चिड़ियाघरों के शेरों की डीएनए जाँच कराई गई। इनमें से हैदराबाद और दिल्ली में मिले शेरों को शुद्ध एशियाई शेर माना गया और इन्हें कूनो भेजने की स्वीकृति प्रदान की गई। केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस योजना के लिए 71 लाख रुपए की पहली किस्त देने की बात भी मान ली। योजना के अंतर्गत इन शेरों की पहली पीढ़ी को अभयारण्य में विकसित किया जाएगा। दूसरी और तीसरी पीढ़ी के नर शेरों को जंगल में छोड़ा जाएगा लेकिन एक साल बाद भी ये मामला जस का तस है। 
इस बारे में मध्यप्रदेश के पीसीसीएफ एवं मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक एचएस पाबला कहते हैं कि फिलहाल मामला अटका हुआ है। केन्द्र से इजाजत जरूर मिली थी लेकिन रुपया अभी नहीं आया है। हमसे 'एमओयू' माँगा गया था जो हमने दे दिया लेकिन कूनो अभी भी सूना है। पाबला के अनुसार अब अगली बैठक में ही योजना के भविष्य का पता चल पाएगा।

उल्लेखनीय है कि कूनो वन्यजीव अभयारण्य की स्थापना 1981 में हुई थी। यह 344 वर्ग किमी क्षेत्र में बसा हुआ है। इसके अलावा 900 वर्ग किमी क्षेत्र अभयारण्य के बफर जोन में आता है। इस खूबसूरत अभयारण्य में भेड़िए, बंदर, तेंदुए और नीलगाय बहुतायत में मिलते हैं। विशेषज्ञों द्वारा यहाँ कुछ बाघों के होने की भी आशा जताई जाती है।


February 18, 2009

अमेरिका की सबको समझने की इच्छा!!

हमारी तरह सिकुड़े दिमाग का नहीं है वो

एक-दो दिन से एक समाचार पर नजर जा रही है। कि छत्तीसगढ़ी और भोजपुरी जैसी छह भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं को भारत के संविधान में भले ही अब तक जगह नहीं मिली हो लेकिन अमेरिका के बराक ओबामा प्रशासन में राजनीतिक पद चाहने वालों के लिए इन भाषाओं की जानकारी अनिवार्य योग्यता होगी। अमेरिका में जल्द ही भरे जाने वाले हजारों राजनीतिक पदों के लिए जारी आवेदन फार्म में भारत की लगभग २१ क्षेत्रीय भाषाओं समेत दुनियाभर की १०१ भाषाओं को शामिल किया गया है। 

दोस्तों, हर किसी में अच्छाई और बुराई होती है। अमेरिका में भी है। उसने लंबे समय तक या कहें कई शताब्दियों तक काले लोगों का अपने यहाँ शोषण किया। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा लेकिन आज उन्हीं दोयम दर्जे के नागरिकों में से एक बराक ओबामा अमेरिका का राष्ट्रपति है। वो शानदार वक्ता हैं और जाने हैं कि दिल खुला रखना कितना जरूरी है। वह कम उम्र में ऊँचाई पर पहुँचने वाले राजनेता है। अमेरिका की जनता ने उन्हें चुनकर अपने खुले दिमाग का परिचय दिया है। तो दोस्तों, उक्त निर्णय ओबामा का ही है। जब में दो दिन पूर्व इस खबर को पढ़ रहा था तो मुझे अपने देश की याद हो आई थी। हमारा महान देश जहाँ पिछले साल से भाषा को लेकर दंगा चल रहा है कहाँ....मुंबई में, और राज ठाकरे नाम का एक सिकुड़े दिमाग का आदमी इस दंगे को संचालित कर रहा है। वो चाहता है कि भारत देश के एक राज्य महाराष्ट्र में रहने वाला कोई भी आदमी (शायद उत्तर भारतीय ज्यादा) मराठी ही बोलें। बहुत ठीक बात है भईया....राज ठाकरे को पूरा देश जब गाली दे रहा था तब मैंने उसके फेवर में एक मराठी भाई का संदेश कहीं पढ़ा था। वो कह रहे थे कि हिन्दी-हिन्दी करने वाले लोगों को जरा तमिलनाडु में जाना चाहिए। वहाँ या तो उनसे तमिल बुलवा ली जाएगी नहीं तो मारकर भगा दिया जाएगा। सही है भईया, बिल्कुल सही है। वहाँ यही स्थिति है। 

फिर एक दशक पहले मैं एक बंगाली सज्जन से मंसूरी में मिला था। वो भी वहाँ घूम रहे थे, मैं भी घूम रहा था। बात भाषा पर चल पड़ी। वे बोले कि देश की राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता हिन्दी में नहीं है। इसके लिए संस्कृत का समर्थन किया जा सकता है लेकिन हिन्दी का नहीं क्योंकि हिन्दी से ज्यादा समृद्ध तो उनकी भाषा बंगाली है। ये भी सही है भईया। काश अमेरिका भी ऐसा सोच लेता क्योंकि उसकी बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी सबदूर बोली जा रही है। हिन्दुस्तानी तो उस भाषा के चरण धो-धो कर पी रहे हैं। अपने बच्चे को पैदा होने के तुरंत बाद अंग्रेजी सिखाना चाहते हैं। इसके लिए वे औकात से बढ़कर स्कूली शिक्षा पर भी खर्च कर रहे हैं ताकि उनका बच्चा अच्छी अंग्रेजी बोल सके। ऐसे में भारतीय भाषाओं को जानने की क्या जरूरत है। लेकिन अमेरिका ने ऐसा नहीं सोचा। शायद इसलिए वो अमेरिका है, दुनिया की महाशक्ति है, सबको समझना चाहता है, चाहे अंग्रेजी में हो या खुद उस पराए देश की भाषा में। लेकिन हमें तो अभी अपने को ही समझना बाकी है। अपनी भाषाओं को समझना बाकी है। ना जाने कब हम अपने को विस्तार दे पाएँगे, अपनी सोच को बड़ा बना पाएँगे, ना जाने कब हम महाशक्ति बन पाएँगे।

आपका ही सचिन....।

February 16, 2009

ट्राइबल बिल : ताबूत में आखिरी कील

आखिर कैसे बचेगा बाघ?

सचिन शर्मा
अभी कुछ दिन पहले देश की प्रसिद्ध वाइल्ड लाइफ पत्रिका "सेंक्चुअरी एशिया" ने एक व्यंग्यात्मक अभियान शुरू करने की घोषणा की। पत्रिका भारत के लिए नए राष्ट्रीय पशु को खोजना चाह रही है। इसमें देश की जनता को गधे, बंदर, बकरी और चूहे में से किसी एक को अपना राष्ट्रीय पशु चुनने के लिए कहा गया है। पत्रिका का कहना है कि बाघों की संख्या बहुत तेजी से घटती जा रही है और बहुत जल्दी ही ये भारत से लुप्त हो जाएँगे। ऐसे में उक्त जन्तुओं में से ही किसी एक को हमें अपना राष्ट्रीय पशु चुनना होगा। 

दरअसल ये व्यंग्यात्मक अभियान एक ऐसी हकीकत के बारे में लोगों को बताना चाहता है जिसे हम जानना-समझना नहीं चाहते। लगभग डेढ़ दशक पहले दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आया करता था "प्रोजेक्ट टाइगर"। इसे नसरुद्दीन शाह प्रस्तुत किया करते थे। इस कार्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा प्रारंभ की गई महत्वाकांक्षी परियोजना प्रोजेक्ट टाइगर के बारे में विस्तार से बताया जाता था। उसमें बाघ और बैंगन को जोड़ने की कहानी बताई जाती थी। तब वो कहानी इतनी समझ नहीं आती थी। लेकिन अब तो दुनिया की सबसे बड़ी वन्यजीव संस्था वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) भी ऐसे कार्यक्रम दिखा रही है जो बताते हैं कि बाघ है तो जंगल है। 

किसी जंगल में बाघ का होना बताता है कि वहाँ स्वस्थ माहौल है। तो ऐसा क्या हो गया कि हमारे जंगल भी खत्म हो रहे हैं और उसमें रहने वाले बाघ भी। इसकी शुरुआत भी काफी पहले से हुई है। तह में जाएँ तो पिछली शताब्दी की शुरुआत में भारत में करीब ४०००० बाघ थे। ये संख्या संसार में सबसे ज्यादा थी। लेकिन १९७० के दशक में बाघ घटकर १२०० रह गए। इंदिरा गाँधी के प्रयासों और प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता के चलते १९९० के दशक तक देश में बाघों की संख्या फिर से ३५०० तक जा पहुँची। लेकिन २००८ में देश भर में हुई बाघ गणना के आँकड़े चौंकाने वाले थे और इन नतीजों ने देशभर के वन्यजीव प्रेमियों की नींद उड़ाकर रख दी। इस गणना के मुताबिक भारत में मात्र १४११ बाघ बचे हैं जो १९७० के दशक में आए संकट के आसपास ही हैं। मतलब देशभर में प्रोजेक्ट टाइगर विफल रहा था और विशेषज्ञों ने मान लिया कि इस बार बाघ को बचाना उतना आसान नहीं होगा जितना इंदिरा गाँधी के काल में था। वन्यजीव प्रेमियों और विशेषज्ञों की निराशा की कई वजहों में से एक "ट्राइबल बिल" भी है। ये बिल जनवरी २००७ में पास हो गया था। 

अगर इस बिल की खोज-परख की जाए तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि क्यों इस बार हम अपने राष्ट्रीय पशु को हमेशा के लिए खोने की आशंका से ग्रस्त हैं। ट्राइबल बिल (आदिवासी बिल) की सिफारिशों पर गौर करें तो वनों को बचाने के लिए आंदोलनरत लोगों के अपने आप ही होश उड़ जाएँगे। ये बिल अब लागू करवाया जा रहा है। प्रक्रियाधीन है और इसे लेकर देशभर में ग्रामसभाओं की बैठक चल रही है। बिल के अनुसार देश के सभी जंगलों में रह रहे आदिवासियों को (इनमें बाघ परियोजनाएँ, राष्ट्रीय उद्यान और समस्त अभयारण्य शामिल हैं) वह सभी हक वापस दिलाए जा रहे हैं जो उन्हें आजादी से पहले मिले हुए थे। मतलब जंगलों में रह रहे आदिवासियों की जमीनों का ना सिर्फ नियमन हो रहा है बल्कि उन्हें जंगलों में चराई की खुली छूट भी मिल गई है। अपनी जमीनों पर आदिवासी फिर से खेती-बाड़ी शुरू कर रहे हैं। जहाँ ये आदिवासी रह रहे हैं उस जगह के उन्हें कागजात भी मिल रहे हैं।

इस बिल को वन्यजीवन से जुड़े विशेषज्ञों ने भारत के पहले से ही खत्म हो रहे जंगलों के लिए ताबूत की आखिरी कील घोषित कर रखा है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस बिल के पास होने के बाद देशभर के जंगलों के बीच वाइल्ड कॉरिडोर्स के विकास की योजना अब सिर्फ कागजों में ही रह जाएगी क्योंकि जिन जंगलों में खेती हो रही है वहाँ ऐसे कॉरिडोर्स की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस बारे में 'नेचर कनजरवेशन फाउंडेशन" ने केन्द्र को एक दस्तावेज सौंपा था जिसमें 'फॉरेस्ट राइट्स"के बारे में विस्तार से बताया गया था। उसमें यह तथ्य भी बताया गया था कि जिन जंगलों में आदिवासियों की संख्या ज्यादा है वहाँ से वन्यजीवन लगभग समाप्त हो चुका है। जंगलों में अगर खेती होती रही तो वे टापुओं में तब्दील हो जाएँगे और उनका अन्य किसी जंगल से कोई संपर्क नहीं रह जाएगा। ऐसे जंगलों में वन्यजीवों को 'ट्रांसलोकेशन" की समस्या आती है और कहीं और ना जा पाने के कारण उनके समाप्त होने की पूरी आशंका रहती है। राजस्थान के सरिस्का के साथ भी यही समस्या आई थी और अब इस देश को कई सरिस्का मिलने वाले हैं। इस बिल से एक मुख्य बात और निकलकर सामने आती है कि जंगलों में आदिवासी मवेशी रखते हैं जिनका बाघ जैसे मांसाहारी जानवर शिकार कर लेते हैं। इस शिकार से खिन्न आकर आदिवासियों का फिर एकमात्र मकसद उस शिकारी वन्यजीव को खत्म करना होता है। बाघ इस प्रकार के षडयंत्रों का हिस्सा बनता रहा है। अंत में याद रखने वाली एक बात ये भी कि यह सब उन्हीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हो रहा है जो बाघों की खत्म होती आबादी से व्यथित होकर राजस्थान के रणथम्भौर पहुँचे थे। लेकिन पिछले आम बजट में उन्होंने बाघ परियोजनाएँ के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा जो इस राष्ट्रीय पशु को बचाने के लिए नाकाफी सिद्ध होगा।


February 15, 2009

चंबल घड़ियाल अभयारण्य का दावा खटाई में

यूनेस्को की प्राकृतिक विश्व धरोहर में शामिल होने का था इरादा

सचिन शर्मा

तीन प्रदेशों में फैले 'राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल अभयारण्य' का यूनेस्को की प्राकृतिक विश्व धरोहर में शामिल होने का दावा खटाई में पड़ गया है। इसके लिए मध्यप्रदेश सरकार द्वारा तैयार किए प्रस्ताव का केन्द्र ने साढ़े तीन साल बाद भी कोई जवाब नहीं दिया। अपने आप में अनोखा ये जल अभयारण्य अब बिना अंतरराष्ट्रीय पहचान के यूँ ही रह जाएगा।
देश का एकमात्र नदी अभयारण्य 'चंबल घड़ियाल' अपनी जैव विविधता और नैसर्गिक सौंदर्य के बलबूते यूनेस्को की प्राकृतिक विश्व धरोहर सूची में स्थान बनाने का प्रयास कर रहा था। इसके लिए सबसे पहले प्रयास 2005 में शुरू हुए थे।
जुलाई 2005 में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के वन विभागों के आला अधिकारियों ने इस संबंध में ग्वालियर में बैठक भी की थी। इसी कड़ी में सेंट्रल जोन की भोपाल में हुई बैठक में मध्यप्रदेश सरकार ने केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के अतिरिक्त महानिदेशक (वन्यजीव) को चंबल अभयारण्य को यूनेस्को की प्राकृतिक धरोहरों में शमिल करने का प्रस्ताव भी भेजा था लेकिन अब साढ़े तीन साल बाद भी यह ठंडे बस्ते में ही पड़ी हुई है।इस बारे में अभियान से जुड़े वन्यजीव विशेषज्ञ और जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के प्राणीशास्त्र विभाग में वैज्ञानिक डॉ. आरजे राव कहते हैं कि इस प्रस्ताव को लेकर तीनों राज्यों के बीच सहमति नहीं बन पाई। ये अभयारण्य तीनों राज्यों में फैला हुआ है। मध्यप्रदेश के पीसीसीएफ और मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक एचएस पाबला का इस बारे में कहना है कि चार साल पहले केन्द्र सरकार ने हमसे विश्व धरोहर के लिए प्रस्ताव माँगे थे और हमने चंबल अभयारण्य के लिए प्रस्ताव बनाकर भेजा भी था लेकिन इसके बाद किसी भी प्रस्ताव को लेकर केन्द्र की ओर से कोई जवाब नहीं आया है।

ऐसा है राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल अभयारण्य 
राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल अभयारण्य तीन राज्यों से होकर गुजरता है। इनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश शामिल हैं। इस अभयारण्य की स्थापना 1978 में हुई थी। मुख्यतः चंबल नदी के रूप में ये अभयारण्य 5400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। इसके कोर क्षेत्र में लगभग 400 किमी लंबी चंबल नदी आती है। इसी नदी पर एक दूसरा अभयारण्य भी है जो कोटा के पास है। इसका नाम जवाहर सागर अभयारण्य है। यह भी अत्यंत खूबसूरत है और वहाँ जाने वाले लोगों के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है। इस क्षेत्र में चंबल अपने सबसे खूबसूरत स्वरूप में बहती दिखती है। 
दुर्लभ जलचरों, पक्षियों को सँजोती है चंबल
यह नदी मुख्यतः घड़ियालों के लिए जानी जाती है, लेकिन इसमें अन्य कई प्रकार के जीव-जंतु और जलचर भी पाए जाते हैं। यहाँ 96 प्रजातियों के जलीय और तटीय पौधे मिलते हैं। जीव-जंतुओं में मुख्यतः घड़ियालों के अलावा गंगा नदी की डॉल्फिन (मंडरायल से धौलपुर तक), मगरमच्छ, स्मूद कोटेड ऑटर (ऊदबिलाव), कछुओं की छह प्रजातियाँ और पक्षियों की 250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षी भी चंबल के एवियन फाउना को बढ़ाते हैं। कुछ दुर्लभ प्रजाति के पक्षी भी यहाँ पाए जाते हैं। इनमें इंडियन स्कीमर, ब्लैक बिल्ड टर्न, रेड-क्रेस्टेड पोचार्ड, फैरुजिनस पोचार्ड, बार-हैडेड गूज, सारस क्रेन, ग्रेट थिक नी, इंडियन कोरसर, पालास फिश इगल, पैलिड हैरियर, ग्रेटर फ्लैमिंगो, लैसर फ्लैमिंगो, डारटर्स और ब्राउन हॉक आउल आदि शामिल हैं। स्मूद कोटेड ऑटर, घड़ियाल, सॉफ्ट शैल टरटल और इंडियन टेन्ट टरटल तो दुर्लभ वन्यजीव प्रजातियों में शामिल हैं। चंबल के तटों से लगे जंगलों में भालू, तेंदुए और भेड़िए भी नजर आ जाते हैं। नदी अभयारण्य के आसपास स्थित ऊँची चट्टानें लुप्त होते जा रहे गिद्धों के प्रजनन के लिए मुफीद साबित होती हैं। यहाँ के पानी में कभी-कभार दुर्लभ महाशिर मछली भी दिख जाती है। यह अभयारण्य भारतीय वन्यजीव संरक्षण कानून 1972 के तहत संरक्षित है। इसका प्रशासनिक अधिकार तीनों राज्यों के वन विभागों के अधीन है।

घड़ियालों पर आया था संकटकाल 
हालाँकि बीच में इस घड़ियाल अभयारण्य पर दाग लग गया था। 2007 के अंत में चंबल के घड़ियालों पर अचानक संकटकाल आ गया था। एक रहस्यमय बीमारी के चलते दिसंबर 2007 से फरवरी 2008 के बीच 120 घड़ियाल मारे गए थे। इनके विसरे की जाँच के बाद भी घड़ियालों की मौत का राज पूरी तरह से नहीं सुलझा। हालाँकि शुरुआती जाँच के बाद विशेषज्ञों ने घोषित कर दिया था कि घड़ियाल लीवर सिरोसिस (लीवर में इंफेक्शन) नामक बीमारी के चलते मारे जा रहे हैं लेकिन बाद में अलग बातें सामने आने लगीं और कहा जाने लगा कि घड़ियालों की किडनी में इंफेक्शन हुआ था। हालाँकि उन मौतों का रहस्य आज तक नहीं सुलझ पाया है। इस बीच दिसंबर 2008 में भी दो घड़ियालों की रहस्यमय मौत हो गई थी लेकिन विशेषज्ञ इस मामले को पहले वाली मौतों से जोड़कर नहीं देख रहे।

February 13, 2009

परमाणु ऊर्जा से पीछा छुड़ा रहा है अमेरिका


जबकि भारत को देने पर तुला है 40 परमाणु संयंत्र

सचिन शर्मा

अमेरिका के साथ भारत का परमाणु समझौता पूर्ण हो गया है। हम खुश हैं कि हमें ऊर्जा क्षेत्र में बहुत बड़ी मदद मिल रही है। हम दो दशक बाद ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाएँगे। लेकिन तस्वीर के पीछे कई दूसरे पहलू भी हैं जिन्हें हम समझने की कोशिश नहीं कर रहे। परमाणु ऊर्जा को अपनाना दोधारी तलवार पर चलने जैसा है। उसका रखरखाव भारत जैसे विकासशील देश के लिए बहुत मुश्किल सिद्ध होगा। वहीं दूसरी ओर इस ऊर्जा को अपनाने के लिए हमें प्रेरित करने वाला अमेरिका खुद इस रास्ते को छोड़ने की योजना बना रहा है। उसका लक्ष्य परमाणु ऊर्जा की जगह पवन ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाने का है।

अब से दो दशक बाद अमेरिका पवन चक्कियों से उतनी ही ऊर्जा प्राप्त करने लगेगा जितनी अभी उसके परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से प्राप्त हो रही है। वहाँ की सरकार की ताजा रिपोर्ट भी यही बता रही है और उसपर वहाँ का ऊर्जा विभाग कार्य कर रहा है। अमेरिका के ऊर्जा विभाग और उससे संबंधित वैज्ञानिकों के अनुसार 2030 तक अमेरिका में कुल ऊर्जा का 20 प्रतिशत पवन ऊर्जा के द्वारा ही पूरा किया जाएगा। यह हिस्सा उतना ही है जितना फिलहाल अमेरिका के परमाणु संयंत्रों द्वारा अमेरिका की कुल ऊर्जा में दिया जा रहा है। इस बारे में अमेरिका के ऊर्जा विभाग के उप सचिव (नवीनीकृत ऊर्जा कार्यक्षमता) एंड्रियू कार्रसनर का कहना है कि अगर हम इस योजना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करते हैं तो यह हमें इतनी सस्ती पड़ेगी कि हम आधे सेंट से भी कम में एक किलोवॉट ऊर्जा उत्पन्ना कर लेंगे। अभी अमेरिका की कुल ऊर्जा आपूर्ति में पवन ऊर्जा का हिस्सा मात्र एक प्रतिशत है। 

अमेरिका में प्रतिवर्ष 15 लाख मेगावॉट ऊर्जा की जरूरत पड़ती है और पवन ऊर्जा को कुल खपत का 20 प्रतिशत पहुँचाने के लिए इसे 3 लाख मेगावॉट तक पहुँचाना होगा। लेकिन अमेरिका समझ गया है कि हर हाल में इस लक्ष्य को हासिल करना है क्योंकि परमाणु ऊर्जा स्थाई विकल्प नहीं है। कई विकसित देशों ने परमाणु ऊर्जा का दामन छोड़ दिया है। ब्रिटेन ने तो अपने सभी परमाणु संयंत्र बंद करने की योजना बना ली है। इसके पीछे एक कारण तो उसका महंगा रखरखाव है और दूसरा दिन पर दिन बढ़ते जा रहे खतरे जिनमें आतंकवादियों द्वारा परमाणु संयंत्रों पर हमले की आशंका भी शामिल है। अमेरिका इस बात को समझ गया है और उसने प्राकृतिक ऊर्जा की ओर लौटना शुरू कर दिया है। अमेरिका में फिलहाल पवन चक्कियों (विंड टर्बाइन) से 16000 मेगावॉट ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है जिसे अगले 21 सालों में 3 लाख मेगावॉट तक पहुँचाना लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए वहाँ 75000 नई पवन चक्कियों की स्थापना करनी होगी जिनमें से कई समुद्री किनारे लगानी होंगी क्योंकि वहाँ हवाओं की रफ्तार बहुत अधिक होती है। 

इस बारे में अमेरिका के कोलेरेडो स्थित नेशनल रिनेवेबस टेक्नोलॉजी लेबोरेटरी की रिपोर्ट बताती है कि यह काम महत्वाकांक्षी है लेकिन असंभव नहीं। रिपोर्ट के अनुसार अगले बीस सालों में इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद अमेरिका कई खतरों से मुक्त हो जाएगा तथा एक साफ-सुथरी ऊर्जा को अपनाने में सफल होगा। रिपोर्ट के अनुसार अगर सबकुछ ठीकठाक चलता रहा तो 2018 तक वर्तमान से पाँच गुणा अधिक पवन ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी। यह ऊर्जा शत-प्रतिशत पारंपरिक टरबाइन पद्धति पर ही आधारित होगी। अमेरिका अपने इस कदम को लेकर बहुत आशान्वित है। उत्तरी अमेरिका के बीपी वैकल्पिक ऊर्जा के बॉब ल्यूकफेर के मुताबिक हमें अपने को बदलने की बहुत आवश्यकता है। अगर ऐसा हो पाता है तो अमेरिका प्रति वर्ष 825 मि यन मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जन कम कर पाएगा। 2030 तक गैस की खपत वर्तमान से 11 प्रतिशत कम और कोयले की खपत वर्तमान से 18 प्रतिशत कम हो जाएगी। इसका सीधा सा मतलब सड़क से 14 करोड़ कारों को हटाने जितनी ऊर्जा की बचत करना होगा। 

भारत के परमाणु संयंत्रों की तस्वीर

भारत के पास अपार प्राकृतिक स्त्रोत हैं। यह देश तीन तरफ से समुद्र से घिरा हुआ है। वहाँ हवाओं की रफ्तार बहुत अधिक रहती है। यहाँ हिमालय समेत कई पर्व श्रृंखलाएँ हैं। कई मैदानी क्षेत्र हैं। इसके अलावा हमारे देश में कई बड़ी नदियाँ हैं लेकिन हमने इन जगहों के आस-पास पवन चक्कियाँ लगाकर पवन ऊर्जा के उत्पादन की बात कभी नहीं सोची। सिर्फ ताप बिजली घरों और पन उर्जा में ही थोड़ी मेहनत कर पाए। अब हमारी सरकार परमाणु ऊर्जा की बात कर रही है जिसके भयंकर परिणाम आम लोगों को पता तक नहीं हैं। हमारी सरकार ये बात मानने के लिए भी तैयार नहीं है कि अमेरिका जिस ऊर्जा से खुद छुटकारा पाना चाहता है उसे हमें क्यों दे रहा है। कहीं ये मंदी के दौर में कई लाख अमेरिकियों को रोजगार मुहैया कराने की साजिश तो नहीं क्योंकि भारत में लगने वाले प्रस्तावित 40 परमाणु संयंत्रों की देखरेख का काम तो आखिर अमेरिकी ही करेंगे।

कुछ फैक्ट्स

- जिस क्षेत्र में परमाणु संयंत्र होता है वहाँ से 8 किमी दूर तक लोगों में भयंकर रोगों का जन्म हो सकता है। यह सब वहाँ से निकलने वाले विकिरण के कारण होता है।
- संयंत्र के आस-पास के क्षेत्र में खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी प्रभावित होता है। वहाँ पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से मोटपा, डायबीटिज, तनाव, कैंसर आदि रोग हो सकते हैं। 
- 1000 मेगावॉट का संयंत्र 30 टन विकिरण वाला कचरा उतपन्न करता है। अमेरिका में 1 लाख बेकार पड़ी ईधन की छड़ें जमा हैं जो वहाँ पानी की टंकियों में भरकर रखी हैं। इसके पूर्ण निपटान का कोई तरीका नहीं है। तो फिर विकासशील देश भारत की क्या स्थिति होगी यह सोचा जा सकता है। भारत में भी 1000 मेगावॉट के संयंत्र लगाए जा रहे हैं।
- परमाणु भट्टी कई कारणों से असंतुलित हो जाती है। जैसे टरबाइन का फेल होना। कूलेन्ट पंप फेल होना। कूलेन्ट के ताप में बढ़ोतरी व घोटोत्री, कूलेन्ट का लीक होना आदि।
- 20 वर्षों में इन संयंत्रों के अनेक पुर्जे खराब हो जाते हैं तथा आकस्मिक दुर्घटना की संभावना 50 प्रतिशत तक हो जाती है। 
- जादूगौड़ा (झारखंड) में यूरेनियम की खदानों के पास जो लोग रह रहे हैं उनमें कैंसर और अन्य अनुवांशिक बीमारियाँ हो रही हैं। अपंग बच्चे पैदा हो रहे हैं जैसे हीरोशिमा, नागासागी में हुए थे। उनके सिर बड़े हैं और कई के तो पैदाइश से ही हाथ-पैर ठीक नहीं हैं।
- कलपक्कम में सुनामी के समय 5 कर्मचारी बह गए थे और इसे इमरजेंसी में बंद करना पड़ा था। 
प्राकृतिक आपदाओं से भी ये संयंत्र सुरक्षित नहीं रहते हैं और यहाँ से कोई भी लीकेज भारी जनहानि पहुँचा सकता है।
- कोटा के रावतभाटा का प्लांट मैनटेनेंस से ग्रसित रहता है। यहाँ पास के इलाकों की 30-40 प्रतिशत महिलाओं को थाइरोइड की समस्याएँ आ चुकी हैं। 

February 05, 2009

मिट्टी में मिलता आजतक चैनल

अब इसके पास क्रिकेट, सिनेमा, तालीबान और अपराध के अलावा और कुछ नहीं बचा
मैं यहाँ आजतक चैनल से बात जरूर शुरू कर रहा है लेकिन फिलहाल ज्यादातर न्यूज चैनलों का हाल खस्ता है। वे खबरों के अलावा सबकुछ दिखाते हैं। हालांकि एनडीटीवी, स्टार न्यूज और जी न्यूज थोड़े ठीक है लेकिन हिन्दी समाचार सुनने की इच्छा रखने के बाद भी कई बार अंग्रेजी चैनलों की ओर जाना पड़ता है। क्या कहें, कि हिन्दी समाचार चैनल वाले हिन्दी दर्शकों का आईक्यू ही इतना गिरा हुआ समझते हैं कि बेहद बेहूदे कार्यक्रम न्यूज के नाम पर उन्हें दिखाते रहते हैं। ये सब नॉन न्यूज मसाला होता है जिसे ये हिन्दी न्यूज चैनल वाले दिखाते हैं। तो शुरू करता हूँ....
नवीन पीढ़ी के भारत के धुँआधार पत्रकार श्री सुरेन्द्र प्रताप सिंह (एसपी) के सपने को मैं आजकल मिट्टी में मिलता हुआ देख रहा हूं.......नवभारत टाइम्स में एक सफल और जानदार पारी खेलने के बाद एसपी ने जिस तेज और तीव्रता के साथ आजतक नाम को इलेक्ट्रानिक मीडिया में स्थापित किया था उसका उदाहरण लोग आज भी देते हैं........लेकिन अब उसी सबसे तेज चैनल को मैं धूल में मिलता देख रहा हूं....और देख रहा हूं कि ये आजतक, आजकल सिवाए चुटकुलेबाजी के अलावा और कुछ नहीं कर पा रहा है....ये अलग बात है कि दुर्भाग्य से नंबर वन ये अभी भी बना हुआ है।
तो मेरे अजीज दोस्तों, मैं अमूमन अपने अखबार में जिस समय काम कर रहा होता हूं वह देश का प्राइम टाइम होता है.....यानी शाम को छह बजे से लेकर रात बारह बजे तक मैं डेस्क पर काम रहता ही हूं.......प्राइम टाइम यानी शाम सात बजे से रात दस बजे तक का समय भी इसी दौरान आता है, जिसे कॉरपोरेट की टर्मिनोलॉजी में प्रतिदिन करोड़ों रुपए का आंका जाता है... मैं उसी समय देशी-विदेशी खबरों पर नजर रखता हूं.....और साथ ही मुझे टीवी पर भी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं ये कोई नई खबर ब्रेक ना कर दे (?)......हालांकि आजकल न्यूज चैनल किस प्रकार की खबरों को ब्रेकिंग न्यूज कहते हैं इस बारे में मैं कहना नहीं चाहता क्योंकि अमूमन वो सारी खबरें निहायत वाहियात किस्म की होती हैं....तो साहब चूंकी आजतक चूँकी देश का नंबर वन चैनल है और पिछले कई सालों से इस बात का ढोल पीट रहा है तो मैं इसे जरूर देखता हूं....तो अब अपने पिछले छह माह का अनुभव आपको बताता हूं.......इस चैनल से सारे ढंग के लोग भाग गए हैं.....बस ज्यादा बोलने वाली कुछ लड़कियाँ और बड़बोले कुछ लड़के ही बचे हैं जो इत्तेफाक से न्यूज एंकर भी हैं....तो भाईसाहब, मैंने पिछले छह माह के दौरान उक्त समय यानी प्राइम टाइम में क्रिकेट, सिनेमा, तालीबान और अपराध के अलावा शायद ही किसी अन्य विषय को इस चैनल पर देखा होगा........
तो आजतक पर जब भी मेरी नजर गई.....या तो नग्न लड़कियाँ (ये मॉडल, हिरोइनें या अपराध कथाओं पर बनाई गई स्टोरी की कलाकारों में से कोई भी हो सकती हैं) दिखीं या लफ्फाजी करते वे लोग दिखे जो क्रिकेट के बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाते रहते हैं। उसके बाद नंबर आता है फिल्मी गॉसिप का.....जो हीरो-हीरोइनों की निजी जिंदगी में झांकने की इतने अति दर्जे की कोशिश होती है कि हमें वहाँ भी सबकुछ नंगा दिखाई देने लगता है.........इन फिल्मी चक्करों को इतना महत्व दिया जाता है कि नई पीढ़ी का दिमाग डोलने लगता है, मुंबई हमलों के बार अब आजतक वाले तालीबान के पीछे पड़ गए हैं और दिनरात ऊलजूलूल कुछ भी उनके बारे में दिखाते रहते हैं। यह सब इतना चलता रहता है कि कई बार माथा कूटने का मन करता है......यह वही चैनल है जिसने देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को खोजी पत्रकारिता और शानदार रिपोर्टिंग करनी सिखाई थी.......एसपी को न्यूज मैन और दीपक चौरसिया को बतौर अच्छा रिपोर्टर स्थापित किया था....वैसे भी आजतक के लिए पूरा भारत दिल्ली में ही सिमटा हुआ है और वह कहीं बाहर की खबरों तक जा ही नहीं पाता, सिवाए उन जुर्म और वारादातों को छोड़कर जो उसके क्राइम शोज में आते रहते हैं........ और वो प्रसारण के २४ घंटे क्या हैं यह तब पता चल जाता है जब अभिषेक-एश्वर्य सरीखी कोई शादी हो या भारतीय क्रिकेट टीम का कोई अंतरराष्ट्रीय मैच हो....बस आजतक की पूरी खोजी पत्रकारिता इसी में लग जाती है बिना ये समझे और जाने की भारत के लोग उसकी इस तथाकथित पत्रकारिता पर थूक रहे हैं और हम जैसे बेचारे लोगों को ट्रेनों में.....बसों में.....सड़कों पर.....घेरकर पूछ रहे हैं कि क्या यही पत्रकारिता है....मैंने खुद कईयों को जवाब दिया है और यह कहकर अपनी चांद गंजी होने से बचाई है कि भाई मैं तो प्रिंट मीडिया से हूं......यह बातें किसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले से ही पूछना।
हालांकि आजतक का नाम मैंने लिया जरूर है लेकिन स्थापित होने के चक्कर में ज्यादातर नए चैनल यही सब दिखा रहे हैं और एनडीटीवी या सीएनएन-आईबीएन जैसी संवेदनशीलता कम ही देखने को मिल रही है। आजतक में जब अच्छे लोग थे तो इसका काम देखते ही बनता था लेकिन वो अपनी सेवाशर्तों के पूरी ना हो पाने की वजह से यहाँ से चले गए...नए लोग आए....माना भले ही वे स्थापित नहीं हैं लेकिन उनको ढंग का काम तो सिखाया जा सकता था.....उनको नए विषयों पर कार्य करना भी सिखाया जा सकता था लेकिन अपने समय के पायनियर इस चैनल ने अपनी दिशा ही बदल ली और बेहूदेपने पर आ गया.......अब ये चैनल यह सबकुछ दिखाकर हमारे देश को २४ घंटे तक लगातार.....प्रतिदिन क्यों झिला रहा है यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि हमें बल्कि कहें आम आदमी को तो इस तमाशेबाजी और चुटकुलेबाजी की बिल्कुल जरूरत नहीं है.....हम क्राइम की खबरें इतना डूबकर देखना नहीं चाहते हैं आप (न्यूज चैनल वाले) उनपर बाकायदा फिल्में बनाकर हमें दिखाएँ......
अपनी बात खत्म करते-करते एक दूसरे चैनल का जिक्र करना नहीं भूलना चाहता। यह चैनल उस शख्स का है जिसे देखकर हम जैसे लोग पत्रकारिता में आए। लेकिन अब उस चैनल को देखना भी मैं गुनाह मानता हूँ। ये है इंडिया टीवी...जिसे वहाँ के मैनेजिंग एडिटर विनोद कापड़ी और मालिक रजत शर्मा मिलकर बर्बाद कर रहे हैं। सच पूछो तो पत्रकारिता को बर्बाद कर रहे हैं। यह चैनल तो झुग्गी-झोपड़ी वालों के स्तर से भी नीचे गिर गया। अरे भाई, इतनी भी क्या सनसनी कि तुम लोग पत्रकारिता को ही सनसना दिए जा रहे हो। गुनाह है इंडिया टीवी देखना। किसी बात का बतंगड़, या राई का पहाड़ बनाना तो कोई इंडिया टीवी से सीखे। अरे, हद है बेशर्माई की, टीआरपी रेटिंग के खेल में इतना भी क्या गिरना की रेंगना पड़ जाए। इस चैनल पर तो दोस्तों, मुझे अलग से लिखना पड़ेगा। यहाँ शब्द कम पड़ रहे हैं। फिलहाल इतने से ही काम चलाइए।
आपका ही सचिन.....।

February 04, 2009

विश्व के नेता....और हमारी राष्ट्रभाषा!

भाषाई साम्राज्यवाद से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं हम
अमूमन देश की राजधानी दिल्ली में विश्व भर के बड़े राजनेता आते रहते हैं। मैं उन्हें सुनता रहता हूँ। वे योरप से आते हैं, अमेरिका से आते हैं, रूस से आते हैं, कई बार अफ्रीका से आते हैं। अरब और इसराइल से भी आते हैं। तो दोस्तों, वे राजनेता जब भी आते हैं हमारे देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ देश की मीडिया को भी संबोधित करते हैं। मैंने देखा है कि वे मीडिया से कई मामलों पर बात करते हैं लेकिन बोलते हमेशा अपनी मातृभाषा में ही हैं। मसलन सरकोजी आए तो फ्रैंच में बोले, मेदवेदेव या पुतीन आए तो रूसी में बोले लेकिन जब भी हमारी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटील या प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह मीडिया से मुखातिब होते हैं तो वे अंग्रेजी में ही ज्ञान देते हैं....आखिर क्यों??...यही सबसे बड़ी समस्या है और इसकी जड़ों को हमें खोदना ही होगा......
मैंने अपने लेख की हैडिंग में भाषाई साम्राज्यवाद की बात की....इसका मतलब बताने से पहले थोड़ा साफ करना चाहूंगा कि हिन्दी विश्व में कुछ सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है....इसके बावजूद इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में स्थान प्राप्त नहीं है जिसकी की वह हकदार है....जबकि इसमें स्पेनिश और रूसी भाषाएं शामिल हैं जिनके बोलने वाले गिने-चुने हैं....तो भाई हम खुद ही अपनी भाषा की भद्द पिटवाते रहते हैं....इस देश में जिसे अंग्रेजी नहीं आती उसे गंवार समझा जाने लगा है...वह खुद ही घुट-घुट कर मरने वाली स्थिति में आ जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी जी को छोड़कर हमारा कोई प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र को हिन्दी में संबोधित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया तो अब कोई इसमें क्या कर सकता है.....लोग कहते हैं कि अंग्रेजी जानने वालों ने बहुत तरक्की की है.....तो मैं बता दूं कि रूसी लोग रूसी भाषा के बूते विश्व शक्ति बने थे और चीनी लोग चीनी भाषा के बूते दुनिया भर में अपना और अपनी तकनीक का लोहा मनवा रहे हैं......दुनिया की सर्वश्रेष्ठ तकनीकें मानी जाने वाली जर्मन और जापानी तकनीक भी उन्हीं की भाषाओं यानी जर्मन और जापानी में विकसित हुई हैं.......
आपको पता ही होगा कि यूरोप ने बहुत तरक्की की है....तो यह भी जान लीजिए कि उस महाद्वीप के ४८ देशों में से दो-तीन को छोड़कर कोई अंग्रेजी नहीं बोलता.....इटली में इटालियन, जर्मनी में जर्मन, स्पेन में स्पेनिश, स्वीडन में स्वीडिश, फ्रांस में फ्रैंच के साथ ही वहां के हर देश की अपनी खुद की भाषा है.....हां अब चूंकी महाशक्तिशाली अमेरिका दुनिया में सबसे अंग्रेजी में बात कर रहा है तो स्वाभाविक तौर पर सब लोग अंग्रेजी समझने की कोशिश करने लगे हैं......
तो अब सही समय है भाषाई साम्राज्यवाद की बात करने का..... पिछले पांच हजार सालों में पृथ्वी और इसपर पनपने वाली सभ्याताओं ने अपनी सहूलियत के हिसाब से कई भाषाएँ विकसित कीं.....समाजशास्त्र के एक अध्ययन के अनुसार विश्व में संगठित रूप से तकरीबन दस हजार भाषाएँ बोली जाती थीं जो पिछले दशक तक घटते-घटते डेढ़ हजार भाषाओं तक पहुँच गईं.....पिछली कुछ शताब्दियां भाषाओं को मारने और खत्म करने में अहम रहीं....हालांकि कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि दुनिया में एक दिन वैश्विक नागरिक (ग्लोबल सिटीजन) और वैश्विक भाषा यानी वर्ल्ड लैग्वैज (संभवतः अंग्रेजी) की अवधारणा मूर्त रूप लेगी.....लेकिन मुझे शक है कि ऐसा हो पाएगा....हां ग्लोबलाइजेशन के चलते यह सब संभव तो हुआ है लेकिन हावी कौन हुआ है यह हम सब जानते हैं.....कुल मिलाकर अंग्रेजी और अंग्रेजियत दुनिया पर हावी हो रहे हैं....और मेरा यह मानना है कि हम जिस घर, सभ्यता और भाषा के बीच पैदा हुए हैं उसे बचाना हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है..तो अब एक उदाहरण......
दुनिया में अपना रौब कायम करने वाली अंग्रेजी १४०० ई. तक खुद बहुत मुसीबत में फंसी हुई थी....ब्रिटेन की अदालतों तक में फ्रैंच भाषा का बोलबाला हो गया था और यूरोप में फ्रैंच का राज चल रहा था....तब अंग्रेजी के ख्यात साहित्यकार चौसर ने अपने देश के लोगों में अपनी भाषा का मान बनाए रखने के लिए प्रयास शुरू किए.....कई किताबें, कई कविताएं और बहुत सारा साहित्य लिखा....चौसर कामयाब भी हुए....उनकी बचाई भाषा आज दुनिया पर राज करने की स्थिति में है....इसलिए चौसर को अंग्रेजी साहित्य का फादर कहा जाता है.......
कुछ ऐसा ही हमारे यहाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी भाषा के लिए किया....उन्हें भी बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है.....और अब एक तुलना और करना चाहूंगा...अंग्रेजी के ख्यात साहित्यकार और साहित्य की दुनिया के सुपर सितारे विलियम शैक्यपीयर ने अपनी समग्र रचनाओं में १५००० अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया है जबकि तुलसीदास ने सिर्फ रामचरितमानस में ही ३५,००० शब्दों का इस्तेमाल किया है.....तौ कौन महान हुआ यह बताने की जरूरत नहीं है.......
लेकिन सवाल यह है कि हम क्या कर रहे हैं.....क्या हम अपनी मातृभाषा को यूं ही भाषाई साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ जाने देंगे......और हिन्दी के बस दिवस और पखवाड़े की बनते रह जाएँगे.....??????? आज टीवी चैनल पर एक दिल दुखाने की खबर और देख ली। कि दिल्ली के अंग्रेजीदां स्कूलों ने अपनी फीस और अधिक बढ़ा दी है। इनमें से काफी स्कूल तो पहले ही चार हजार रुपया महीना या उससे अधिक वसूल रहे थे। स्कूलों का इस मामले पर कहना है कि वो बच्चों का ओवरआल डवलपमेंट करते हैं और उन्हें अंग्रेजी माहौल उपलब्ध कराते हैं। उनके स्कूलों में हिन्दी बोलने पर सजा है। तो दोस्तों, यह तर्क देकर हमारे देश की राजधानी के स्कूल बच्चों के अभिभावकों से अधिक रकम वसूल रहे हैं और वे उन्हें गधा बनकर दे भी रहे हैं। भगवान ही बचाए इस देश की शिक्षा पद्धति से...।
हालांकि इस बीच अच्छी खबर भी है। प्रसिद्ध कोशकार श्री अरविंद कुमार कहते हैं कि हिन्दी एक दिन विश्व विजेता भाषा बनेगी.....उन्होंने पेंग्विन प्रकाशन के लिए एक कोश तैयार किया है जिसमें हिन्दी के पांच लाख शब्द हैं.....उन्होंने दिल को राहत देने वाली कई बातें कही हैं..... लेकिन क्या हम उनकी बातों को सही साबित करने के लिए अपना कुछ अंश देंगे.....आशा तो यही है......
उम्मीद है दोस्त मेरी बातों से सहमत होंगे......
आपका ही सचिन.....।

February 03, 2009

युवा पीढ़ी..और पैकेज की समस्या!

सिर्फ नौकरी और पैकेज ही बनकर रह गए ध्येय
आज किसी काम से आईएमएस (इंदौर का मेनेजमेंट इंस्टीट्यूट) गया था......वहाँ तमाम प्रकार के लड़के-लड़कियाँ (सभी छात्र-छात्राएँ थे) दिखे। कई प्रकार की बातें भी चल रही थीं। सब संभ्रांत थे और मैनेजर्स बनने वाले थे.....लेकिन उन सबके बीच कॉमन बात पता है क्या हो रही थी...कि इस कोर्स (एमबीए) को करने के बाद किसे कितना पैकेज मिलेगा...
थोड़े दिन पूर्व अपने एक मित्र से मिलने जीएसआईटीएस (इंदौर का इंजीनियरिंग कॉलेज) गया था। मेरे मित्र वहां सहायक प्राध्यापक (मैकेनिकल) हैं... जबरदस्त मंदी के बावजूद वहां भी लड़के-लड़कियां उसी पैकेज की बातें कर रहे थे। मैं सोच रहा हूं कि क्या हमारी युवा पीढ़ी का वर्तमान ध्येय किसी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी ढूंढना और अच्छे पैकेज पर ढूंढना भर रह गया है। इससे आगे सोचने की क्षमता क्या उनमें वाकई नहीं बची है।.......
अब कुछ गंभीर बात कहूंगा.....क्या हमारे देश में अच्छी अंग्रेजी बोलने और अच्छा पैकेज प्राप्त करने वाले युवा ही सर्वश्रेष्ठ माने जा रहे हैं.....अगर ऐसा है तो मामला बहुत चिंताजनक है और इस बात को अब हमें समझना होगा..... देश....इसकी मिट्टी...इसका कर्ज....समाज....परिवार....जिम्मेदारियां.....और प्रकृति क्या सब कुछ ऐसे ही पार्श्व में चली जाएँगे? सिर्फ इस मरे पैकेज की वजह से...... आश्चर्य है....हालांकि आप सब लोग विद्वान हैं फिर भी बता देना चाहता हूं कि अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन एक राजसी परिवार वाले होते हुए भी अपने देश के स्वाधीनता संग्राम में कूदे.......कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में जिन आठ लड़कों ने नक्सलवादी आंदोलन शुरू किया था, अगर वो लोग उस आंदोलन को नहीं करते तो आईएएस अफसर होते....यानी सब बहुत पढ़े-लिखे और विद्वान लड़के थे। उन सबको बाद में गोली मार दी गई थी।..... भारतेंदु हरिश्चचन्द्र करोड़पति होते हुए भी अपनी सारी संपदा को हिंदी साहित्य के क्षेत्र में लगाकर प्रसन्न रहे। वे चाहते तो व्यापार-व्यवसाय करते हुए करोड़पति से अरबपति बनने की कोशिश करते लेकिन वो अलग थे....इसलिए उन्हें सम्राट और पॉयनियर जैसी उपाधियां मिलीं (हिंदी साहित्य क्षेत्र के संदर्भ में)....
भगतसिंह २४ वर्ष में और उनके सलाहकार और गुरू चंद्रशेखर आजाद २५ वर्ष की उम्र में शहीद हो गए थे। उस उम्र में जिसमें आज के युवा लड़कियों के पीछे भागने में समय जाया करते रहते हैं।....... मैं किसी को भगतसिंह या चंद्रशेखर बनने की नहीं कह रहा लेकिन अंग्रेजी और पैकेज से बाहर कुछ तो सोचो भई....नहीं तो हमारे देश का क्या होगा..??
आपको बताता हूं.... एक दिन विकीपीडीया पर चन्द्रशेखर आजाद के बारे में पढ़ रहा था....उसमें उनका वो फोटो है जिसमें अंग्रेजों ने उन्हें गोली मार कर अल्फ्रेड पार्क में प्रदर्शन के लिए रखा हुआ था। आप यकीन नहीं मानेंगे भरे आफिस में बैठे हुए मेरी आंखों में उस दृश्य को देखकर आंसू आ गए थे। अब के युवाओं में ना जाने कितनी जान बची है....हां वो डोले तो बनाते हैं लेकिन फिर वही बात दोहराउंगा...सिर्फ विपरीत लिंगी को फुसलाने के लिए.....
मशहूर क्रांतिकारी और विकट विद्वान लाला हरदयाल ने अपनी बेस्ट सेलर किताब -हिंट्स फॉर सेल्फ कल्चर- में लिखा है कि हम अपने जीवन का ज्यादातर समय फालतू बातें करने और विपरीत लिंगी को बहलाने-फुसलाने में जाया कर देते हैं....लेकिन विद्वानों की बातें आजकल का युवा कहां समझ रहा है......
आप कह सकते हैं कि मैं एकतरफा लिख रहा हूं.....विषय से भटक रहा हूं....आज की युवा पीढ़ी तो बेहद होशियार है और जबर्दस्त तरक्की कर रही है..सही है...मैं भी इंकार नहीं कर रहा....लेकिन किसके लिए, क्योंकि वह तरक्की तो अमेरिका जाकर कर रही है...... एक साल पहले दिल्ली में रह रहा था....तब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आने-जाने का मौका मिला था....वहां का वातावरण कह सकता हूं कि थोड़ा विचारशील था....लेकिन उन छात्रों का प्रायोगिक दुनिया में जाकर क्या होता होगा ये आप समझ सकते हैं क्योंकि वे सब बाद में दुनिया की प्रैक्टिकैलिटी में पिछड़ जाते होंगे।.....
बस इतना जानता हूं कि संवेदनशील लोग आजकल पीछे रह जाते हैं अगर वे अंग्रेजी नहीं बोल पाते और पैकेज के बारे में बात नहीं कर पाते.....
समझ नहीं आ रहा कि इतनी गंभीर बात लोग समझ ही नहीं रहे हैं...जिस देश की भावी पीढ़ी में अपनी भाषा और अपने देश के प्रति प्रेम नहीं है वो आखिर कहां तक जाएगी....??
आपका ही सचिन......।

February 02, 2009

पुत्र की महिमा और भारतीय समाज!

पुत्रियों की महिमा समझने में शायद अब भी देर है
दोस्तों, कुछ दिन पहले बालिका दिवस मनाया गया था। इस उपलक्ष्य में हमारे अखबार ने भी बालिका शिक्षा और उनकी जन्मदर पर कई लेख छापे थे। बताया गया था कि लोग बहू तो चाहते हैं लेकिन बेटियाँ नहीं। बालिकाएँ पहले के मुकाबले काफी कम पैदा हो रही हैं। ठीक भी है। लेकिन इस बारे में मेरे पास भी आप लोगों से कहने के लिए कुछ है।

मेरे परिचय में एक युवती है, अविवाहित है, उम्र यही कोई ३१ साल....पता चला कि वे कुछ दिनों से दफ्तर नहीं आ रही हैं..... कारण था माँ की तबीयत खराब है और उनका आपरेशन था, आपरेशन सफल रहा.....उनकी छुट्टियाँ लगभग १५ दिनों की हो चलीं थीं....मुझे लगा कि आखिर उन्होंने इतनी लंबी छुट्टियां क्यों लीं.....पूछा तो पता चला कि वे कुल छह बहनें हैं.....वे सबसे बड़ी हैं और इस वजह से जिम्मेदार भी हैं......एक कसक मन में पैदा हुई.....कि छह लड़कियाँ क्यों...????? उत्तर आपको, हमको और सबको पता है.....वही घिसी-पिटी बात....लड़के की चाह....ठीक है अगर छह लड़कियों के बाद अगर लड़का पैदा हो गया होता तो क्या तोप मार लेता...और नहीं हुआ है तो क्या बेटियां काम नहीं आ रही हैं.....??
अब बात विस्तार से....आशा है मेरी बातें लड़कियों को अच्छी लगेंगी....आशंका है कि कुछ लड़कों को बुरी भी लग सकती हैं....कुछ का शायद समर्थन भी मिले.....
तो दोस्तों, भारत के देव ग्रंथों और पुराणों में पुत्र की महिमा अपरंपार बताई गई है....वह वंश चलाता है.....पिता के अधूरे कार्यों और दायित्वों को पूरा करता है..... जिम्मेदारियां उठाता है...और फिल्मी स्टाइल में कभी-कभार अपने पिता या परिजनों के ऊपर हुए अत्याचारों का बदला भी ले लेता है...लड़कियां या कहें पुत्रियां बेचारी कमजोर होती हैं....माता-पिता के सिर पर बोझ होती हैं...पराया धन होती हैं और कहीं ना कहीं अपने पिता की मूँछ नीचे करने का कारण बनती हैं.......
तो साहब इस देश में उक्त बात इतने दिल से मानी गई कि प्रति हजार पर लड़कियां सिमट कर आठ सौ के आसपास रह गईं.....कहीं-कहीं नौ सौ के आस-पास भी हैं...लेकिन कुल मिलाकर हालत बहुत बुरी है....मैं कहता हूं कि रूस जो एक समय महाशक्ति बना, वहां की आबादी १२ करोड़ है, ब्रिटेन और जापान भी कमोबेश नौ और १२ करोड़ के देश हैं.....दुनिया को आंख दिखाने वाली शक्ति अमेरिका में ३२ करोड़ लोग हैं तो हमारे यहां के १०० करोड़ लोग जिनमें से ५० करोड़ पुरुष हैं ऐसा क्या कर रहे हैं जो हमने लड़कियों को कई हजार साल तक मनहूस बना दिया...राजस्थान में लड़कियों को मारने या सती करने की परंपरा के बारे में मैं बात करना नहीं चाहता, क्योंकि वो सबको पता है..... लड़कियों से आखिर देश को या हमारे घर को ऐसा क्या नुकसान हो गया जो उनकी हजारों सालों से गर्दन दबाई जा रही है........
अब थोड़ा लड़कों का पक्ष रखता हूं.....इससे पहले बता देना चाहता हूं कि मैं खुद तीन बहनों के बाद पैदा हुआ...... तो आम बात करता हूँ जो कई परिवारों में मैंने महसूस की गई है....मैंने अपनी आंखों से देखी है.....तो साहब माता-पिता के यहां अगर तीन-चार या पाँच लड़कियों के बाद कोई लड़का होता था तो ढोल-ताशे पीटे जाते थे......कई सालों तक भाई की तवज्जो रहती.....उसको खाने को ज्यादा मिलता.....अच्छे स्कूलों में जाता....हर चीज में ज्यादा हिस्सा मिलता....बहनों से कहा जाता कि भइया को जरूरत है इस सब की....जैसे भइया ना जाने क्या निहाल कर देगा......तो साहब, भइया बड़ा हो रहा है.....उधर माता-पिता लड़कियों की शादी करते-करते कंगले हुए जा रहे हैं......अब उनकी आशा है कि भइया सब कुछ अच्छा कर देगा......भइया इस बोझ तले दबकर आड़ा-टेढ़ा हुआ जाता है......तो कई घरों को मैंने लगभग टूटने की सी कगार पर देखा.....अंततः लड़का इतने दबाव में रहता है कि उसे लगने लगता है कि इस घर में पैदा नहीं हुआ होता तो ही अच्छा रहता....मैंने इस बात को थोड़ा सा महसूस किया.....हालांकि मैं संपन्न घर से हूँ और अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह भी अच्छे से कर रहा हूं लेकिन कई बार लगता है कि कहीं मेरी वजह से मेरी बहनों के साथ अन्याय तो नहीं हुआ......खैर
तो बेटियां क्या होती हैं, इसके ऊपर आता हूँ....तो अब नया जमाना आ गया है...लोग घरों में लड़कियों के आने पर भी खुशी मना लेते हैं...कईयों के यहां सिंगल गर्ल चाइल्ड है और वे दुनिया जीत रहे हैं.....भारतीय सेना के एक कर्नल जो ग्वालियर में पोस्टेड हैं और मेरे मित्र हैं, ने मुझे बताया था कि भारतीय सेना के अस्सी प्रतिशत जर्नल दो बेटियों (कोई लड़का नहीं) के पिता ही बने हैं.....इसलिए सेना में तो कहावत बन गई है कि जिसके दो बेटियां हैं वह जनरल (सेना का सर्वोच्च पद) बनेगा.....उनको भी सब ऐसा ही कहते हैं क्योंकि उन्हें भी दो बेटियां हैं....इसी प्रकार पत्रकारिता में भी है...कई बड़े पत्रकार एक या दो बेटियों के पिता बने हैं.......राजस्थान में ऐसा कहा जाता था.......राजस्थान पत्रिका के ग्रुप एडीटर भुवनेश जैन समेत कई सूरमा पत्रकारों की वहां दो बेटियां हैं.....अपने मध्यप्रदेश के कल्पेश याग्निक और यशवंत व्यास भी सिर्फ बेटियों के पिता हैं......पत्रकारों के लिए यह बात मैंने दिल्ली में भी सुनी थी....यह अच्छा संकेत है.....कुछ अमेरिकी राष्ट्रपतियों की भी बात कर लें। बिल क्लिंटन के एक बेटी है। निवृतमान राष्ट्रपति जार्ज बुश की दो बेटियाँ हैं, हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति बने बराक ओबामा की भी दो बेटियाँ हैं। यानी पिछले १६ सालों से अमेरिका के ऊपर राज करने वाले लोगों के यहाँ सिर्फ बेटियाँ हैं।.....लेकिन सवाल यह है कि कितने लोग इन बातों को मानते हैं....मैंने विदेशों और भारतीय हायर क्लास सोसायटी के उदाहरण दिए हैं....मिडिल और लोअर क्लास में अभी भी पुरानी लकीर ही पीटी जा रही है...यह मैं नहीं आप खुद भी महसूस करते होंगे......बात के ढेरों उदाहरण हैं...जितने कहें उतने थोड़े हैं...मेरे मन में कुछ बातें थीं सो कह दीं......आशा है कि दोस्त मेरी बातों से सहमत होंगे....
आपका ही सचिन..........।