August 31, 2009

क्या चीन भारत पर हमला करेगा? (भाग-1)

बहुत संजीदगी के साथ बढ़ रहा है भारत की ओर


दोस्तों, आज सुबह आप लोगों ने एक खबर पढ़ी होगी। कि चीन के दो हेलीकॉप्टर लद्दाख में भारत की सीमा में घुस आए। पाँच मिनट तक भारतीय सीमा में मंडराते रहे और कुछ खाने के पैकेट गिराकर चले गए। उन पैकेटों में सूअर का जमा हुआ माँस था। पैकेट एक्सपायरी डेट को पार गए थे यानी खाने लायक नहीं थे। वैसे तो यह घटना कोई बहुत बड़ी नहीं मानी जा रही है और तीनों भारतीय सेना की संयुक्त कमान के नए अध्यक्ष थलसेना अध्यक्ष जनरल दीपक कपूर के अनुसार पेट्रोलिंग के दौरान अक्सर ऐसा हो जाता है क्योंकि भारत-चीन के बीच सीमा का निर्धारण नहीं है। इस घटना से मेरे मन में काफी बातें उठीं। मैंने इस बारे में अपने उन कुछ मित्रों से बात की जो सामरिक पृष्ठभूमि के हैं और जो चीन पर काफी शोध कर रहे हैं। उस बातचीत में ऐसे बहुत से मुद्दे निकले जिन्हें मैं यहाँ आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ। आप लोगों ने भारत के सामरिक विशेषज्ञ भरत वर्मा का नाम तो सुना ही होगा। उन्होंने कुछ समय पहले घोषणा की थी कि चीन 2012 तक भारत पर हमला कर सकता है। उनके अनुसार यह चीन की कुण्ठा निकालने का भी एक जरिया हो सकता है क्योंकि भारत समेत विश्व के तमाम देश अपने बाजारों में चीनी माल की आवक बंद कर रहे हैं। उन पर बैन लगाया जा रहा है। भरत वर्मा के ये विचार आप यहाँ पढ़ सकते हैं। भारत पर 2012 तक हमला कर सकता है चीन

मित्रों यूँ तो मै चीन का उसके अनुशासन, सैन्य और आर्थिक प्रगति और तेजी से विश्व व्यवस्था में खुद के लिए जगह बनाने का प्रशंसक हूँ। उसने खेलों में भी उल्लेखनीय प्रगति की है और बीजींग ओलंपिक में उसने यह दिखा भी दिया। लेकिन मैं एकमात्र कारण से उससे नफरत करता हूँ और वह यह है कि वह हमारे देश का दुश्मन है और हमारी 90000 वर्ग किलीमीटर भूमि पर उसने अपना अवैध कब्जा जमा रखा है। तो चीन की आगे की प्लानिंग क्या है उसपर मैं बिंदुवार कुछ बातें आपके सामने रख रहा हूँ।

1. आप दुनिया के नक्शे पर भारत की स्थिति देखिए तो पता चलेगा कि हम (भारत) बहुत ही खतरनाक जगह पर पहुँच चुके हैं। हालांकि हम तो अपनी जगह से नहीं हिले हैं लेकिन दुश्मनों ने हमको धीरे-धीरे चारों ओर से घेर लिया है। इतना ही नहीं, वह हमारे घर के अंदर भी पहुँच चुका है। बानगी देखिए...

चीन ने 50 साल पहले शांत और धीर-गंभीर तिब्बत को अचानक हड़प लिया और दुनिया देखती ही रह गई और कुछ नहीं कर पाई। तिब्बत चीन और भारत के बीच रक्षा दीवार था। लेकिन उसको हड़पने के बाद वह सीधे हमारे सिर के ऊपर आ गया। इसके बाद 1962 के भारत-चीन सीमा विवाद (इसे युद्ध समझें) में उसने हमारी 90 हजार वर्ग किमी भूमि हड़प ली। यह युद्ध उसने दो मोर्चों पर लड़ा। एक तो जम्मू कश्मीर, हिमाचल और उत्तरांचल से जुड़ा हिस्सा और दूसरी अरुणाचल वाला हिस्सा। उस युद्ध में हम हारे और चीन ने हमारा एक बड़ा हिस्सा हड़प लिया। कैलाश मानसरोवर जैसा तीर्थ हमारे हाथ से निकल गया और उस दिन के बाद से चीन तवांग और अरुणाचल प्रदेश को भी अपना हिस्सा बताने से नहीं चूकता।
चीन ने इतना करने पर अगला कदम कूटनितिक उठाया। उसने पाकिस्तान को हर संभव मदद मुहैया कराई। उसे भारत के खिलाफ ताकतवर बनाया और इस काम में अपने दूसरे सहयोगी उत्तर कोरिया को भी लगा दिया। पाकिस्तान के पास जितनी भी मिसाइलें और परमाणु हथियार हैं वो सब मेड इन चाइना और मेन इन ईस्ट कोरिया ही हैं। चीन ने पाकिस्तान को साधने के बाद नेपाल में माओवादियों के मार्फत अपनी पकड़ बनाई और संसार के एकमात्र घोषित हिन्दू राष्ट्र को माओवादियों का अड्डा बना दिया। इसके बाद उसने बांग्लादेश की ओर रुख किया और वहाँ खूब संसाधन भिजवाए। आतंकियों को भारत के खिलाफ मदद पहुँचाई। और उसे भारत विरोधी कर दिया जबकि बांग्लादेश को भारत ने ही पाकिस्तान के चंगुल से आजाद करवाया था।
चीन ने मालद्वीप को भी साध रखा है और वहाँ की इस्लामिक सरकार को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है। वहाँ उसका सैन्य अड्डा भी है और हवाई तथा नौसेना तैनाती भी है।
बर्मा की जुंटा सैन्य सरकार भी चीन की मित्र है क्योंकि दोनों ही राष्ट्र अपने को कम्युनिस्ट कहते हैं। हम सिर्फ अंडमान में इसलिए ही कोई विकास नहीं कर पाते क्योंकि भारत सरकार को पता है कि चीन किसी भी दिन अंडमान को हड़प सकता है।
चीन ने हाल ही में श्रीलंका में भी भारी मात्रा में निवेश किया है और लिट्टे के सफाए के बाद चीन श्रीलंका को पाकिस्तान के करीब लाकर भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है।

दोस्तों, इस पूरी स्टोरी में एक दूसरा पहलू भी है। चीन ने भारत को अंदर से भी कमजोर करना शुरू कर दिया है। भारत के आधे राज्यों में नक्सली समस्या है। इनसे उलझने में हमारे काफी सारे अर्धसैनिक बल लगे रहते हैं। इनमें सीआरपीएफ प्रमुख है जो दशकों से जंगलों में इनके खिलाफ कैंप लगाए पड़ी हुई है। ये नक्सली भी चीन द्वारा प्रायोजित हैं और हम इनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं। इनका खौफ इतना अधिक है कि ये पुलिस के जवानों और कभी-कभी उसके बड़े अधिकारियों को तो चूहे-बिल्ली की तरह मार देते हैं। आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर यह जानलेवा हमला कर चुके हैं, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के पुत्र को जान से मार चुके हैं और देश के पहाड़ी इलाकों में अपनी अलग सत्ता चलाते हैं। देश के 27 में से 7 प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व पर इनका कब्जा है और वहाँ सिर्फ इसी कारण प्रतिवर्ष होने वाली वन्यजीवों की गणना नहीं हो पाती।

इस बात से एक बात का और लिंक है जिसका मैं यहाँ उल्लेख कर देना उचित समझता हूँ। भारत के पास अग्नि, पृथ्वी जैसी मिसाइलें हैं। ये परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम हैं और चीन अग्नि की रेंज में आता है। ये मिसाइलें बहुत महंगी होती हैं और कम संख्या में बनाई जाती हैं। आसमानी पहरे या कहें सेटेलाइट की नजर से बचाने के लिए इन्हें हमेशा मोबाइल रखा जाता है। यानी रेलवे के माध्यम से या हैवी आर्मी व्हीकल के माध्यम से यह हमेशा चलती रहती हैं, एक जगह से दूसरी जगह। अगर इन्हें इस तरह से नहीं घुमाया जाए तो ये बड़े पहाड़ी क्षेत्रों में छुपाकर रखी जा सकती हैं। इसका एकमात्र कारण है कि युद्ध के समय सेटेलाइट से ट्रेक होकर चीन या अन्य कोई भी शक्तिशाली देश इनके जखीरे पर हमला कर इन्हें समूल नष्ट कर सकता है। लेकिन यहाँ दिक्कत यह है कि देश के पहाड़ी इलाके धीरे-धीरे नक्सलियों के कब्जे में आते जा रहे हैं। ऐसे में यकीन करना मुश्किल है कि हम पहाड़ों के बीच अपनी बेशकीमती मिसाइलों को सुरक्षित तरीके से छुपा पाएँगे।

2. क्या आपको नास्त्रेदमस की वो भविष्यवाणी याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि तीसरा विश्वयुद्ध चीन और इस्लामिक देश मिलकर भड़काएँगे। दक्षिण एशिया से शुरुआत होगी और ओरियेंट (उन्होंने भारत का इसी नाम से उल्लेख किया है) सबसे पहले गुलाम बना लिया जाएगा। बाद में अमेरिका, जापान, ब्रिटेन और फ्रांस मिलकर भारत का साथ देंगे और अंत में विजयी होंगे। भारत भी विजेता बनेगा और बाद में महाशक्ति के तौर पर स्थापित होगा लेकिन सभी मित्र राष्ट्रों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
मैंने आज ही वो खबर भी पढ़ी है जिसमें लिखा है कि भारत पर निशाना साधने के लिए पाकिस्तान ने अमेरिका से मिली हारपून मिसाइलों में कुछ परिवर्तन किए हैं और इसमें चीन ने निश्चित तौर से मदद की है। अमेरिका ने मिसाइलों की मूल डिजाइन के साथ छेड़खानी करने के लिए पाकिस्तान को चेताया भी है। दरअसल चीन के साथ पाकिस्तान भी भारत को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। चीन पाकिस्तानी मानस को समझते हुए यह भी मानता है कि इस क्षेत्र में एकमात्र महाशक्ति बने रहने के लिए उसे भारत को हराना ही होगा क्योंकि रूस के टूटने के बाद भारत से ही उसे खतरा है। दूसरा वह यह भी मानता है कि अगर वो पाकिस्तान या बांग्लादेश के मार्फत भारत के खिलाफ बड़ा युद्ध छेड़ता है तो भारत के अंदर रह रहे 20 करोड़ मुसलमान भी उसका साथ देंगे और फिर नक्सली तो हैं ही। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि स्थिति विकट है और हम उस तरह से तैयार नहीं हैं। हम सिर्फ अपने घर में बैठकर अपने को सुरक्षित नहीं मान सकते। चीन का रक्षा बजट हमारे बजट से तीन गुणा ज्यादा है। इस वर्ष भारत जहाँ अपने डिफेंस बजट पर 27 अरब अमेरिकी डॉलर खर्च कर रहा है, वहीं चीन इस साल 70 अरब अमेरिकी डॉलर खर्च कर रहा है। हमारे पास कई शो-पीस हैं जैसे एयरक्राफ्ट कैरियर विराट, जो हमारे पास इकलौता है और ठीक से काम भी नहीं करता। प्रस्तावित कैरियर एडमिरल गोर्शकोव को रूस ने कई सालों से अटका रखा है, जबकि चीन के पास 12-13 एयरक्राफ्ट कैरियर हैं। टैंकों में भी वो सुविधा और संख्या के मामले में भारत से कहीं आगे है। ऐसे में हमारी शक्तिशाली और साथ ही बदमाश चीन के खिलाफ क्या स्ट्रेटेजी होगी इसपर कोई सोच नहीं रहा। हालांकि भारत ने हाल ही में कुछ कदम उठाए हैं लेकिन वो अपर्याप्त हैं।

(दोस्तों, अब बाकी अगली किश्त में, लेख लंबा हुआ जा रहा है, कहीं पढ़ना मुश्किल ना हो जाए)

आपका ही सचिन...।

August 29, 2009

'वॉटर फुट प्रिंट्स' से बदलेगा पानी का सिद्धांत

पुखराज चौधरी
क्या आप जानते हैं कि आप जो चाय-कॉफी पीते हैं, कपड़े पहनते हैं या कार चलाते हैं, उसे बनाने या पैदा करने में कितना अदृश्य पानी लगा है? हो सकता है, वह हजारों लीटर के बराबर हो!

वर्चुअल वाटर का मतलब है अदृश्य पानी। लन्दन स्थित किंग्स कॉलेज के प्रोफेसर जॉन एंथोनी एलन ने अदृश्य पानी सिद्धांत की रचना की है। इस सिद्धांत की रचना के लिए प्रोफेसर एलन को 2008 में स्टॉकहोम वाटर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस पुरस्कार के लिए स्टॉकहोम स्थित अंतरराष्ट्रीय वाटर इंस्टीट्यूट विजेताओ का चयन करता है। प्रो. एलन को सम्मानित करते हुए इंस्टीट्यूट ने अपनी विज्ञप्ति में कहा था कि अदृश्य पानी सिद्धांत, अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य नीति और शोध पर खासा प्रभाव डाल सकता है। आने वाले सालों में अदृश्य पानी का सिद्धांत विश्वभर में पानी के प्रबंधन को लेकर छिड़ी बहस को एक नई दिशा दे सकता है।

अदृश्य पानी की लंबी छाया : हर वस्तु के उत्पादन के पीछे अदृश्य पानी की छाप होती है जिसे विज्ञान की भाषा में वर्चुअल वाटर फुट प्रिंट कहा जाता है, यानी अदृश्य पानी का पदचिह्न। प्रो. एलन कहते हैं 'अदृश्य पानी वह पानी है, जो किसी वस्तु को उगाने में, बनाने में या उसके उत्पादन में लगता है। एक टन गेहूँ उगाने में करीब एक हजार टन (करीब एक हजार घन मीटर) पानी लगता है। कभी-कभी इससे भी ज्यादा।' अदृश्य पानी सिद्धांत के अनुसार एक कप कॉफी बनाने के पीछे लगभग 140 लीटर पानी लगता है। वहीँ एक किलो चावल के उत्पादन में करीब 3,000 लीटर पानी की खपत होती है। एक लीटर दूध के पीछे लगभग 1,000 लीटर पानी का पदचिह्न होता है।

शाकाहार माँसाहर से कहीं बेहतर : माँसाहारी चीजों की तुलना में शाकाहारी खाद्य पदार्थों के पीछे कम पानी लगता है। प्रो. एलन का कहना है, 'एक माँसाहारी व्यंजन बनाने में शाकाहारी व्यंजन बनाने से कहीं ज्यादा पानी लगता है। आजकल मैं लोगों से एक सवाल करता हूँ, आप ढाई लीटर या फिर पाँच लीटर पानी वाले आदमी हैं? अगर आप पाँच लीटर पानी वाले आदमी हैं तो आप अवश्य ही माँसाहारी हैं। और अगर आप शाकाहारी हैं तो फिर आप दिनभर में केवल ढाई लीटर पानी ही खर्च करते हैं।'

यही वजह है कि एक किलो माँस पैदा करने के पीछे करीब 15,500 लीटर अदृश्य पानी का पदचिह्न होता है, वहीं एक किलो अंडों में करीब 3,300 लीटर पानी लगता है। औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन में भी वर्चुअल वाटर सिद्धांत लागू किया जा सकता है। एक टन के वजन वाली एक कार के पीछे लगभग चार लाख लीटर पानी लगता है।

धनराशि ही नहीं, जलराशि में भी मूल्यांकन जरूरी : स्टॉकहोम वाटर इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर यान ल्युट भविष्य में होने वाली पानी संबंधी दिक्कतों के बारे में कहते हैं, 'आने वाले सालों में खाद्यान्न की माँग कई गुना बढ़ेगी। इस माँग की पूर्ति के लिए हमारे पास पर्याप्त पानी नहीं होगा। अगर हम इसी गति से आगे बढ़ते रहे तो आने वाले सालों में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।'

अदृश्य पानी के शोधकर्ताओ ने पाया है कि एशिया में रह रहा हर व्यक्ति एक दिन में औसतन 1,400 लीटर अदृश्य पानी व्यय करता है, वहीं यूरोप और अमेरिका में एक दिन में हर व्यक्ति औसतन 4,000 लीटर अदृश्य पानी खर्च करता है। पिछले कई सालों में अदृश्य पानी का सिद्धांत एक बड़े मुद्दे के रूप में उभरकर आया है, लेकिन अब भी कई देशों की सरकारें इस मुद्दे को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं हैं।

सौजन्य से - डॉयचे वेले, जर्मन रेडियो

August 28, 2009

वीवीआईपीयों को दिखाया आईना!

सरकार ने सही कहा कि इन बेकार नेताओं को सिक्युरिटी की कोई जरूरत नहीं

दोस्तों, देश की कांग्रेस सरकार कुछ अच्छे काम भी कर रही है। हालांकि इस सरकार के राज में आम आदमी को अपना पेट भरना भी मुश्किल हो रहा है, और संप्रग सरकार के प्रति यही हमेशा मेरी नाराजी का कारण भी रहा है (क्योंकि मैं भी आम आदमी में ही शामिल हूँ), लेकिन इसके बावजूद मैं यह मानता हूँ कि कांग्रेस ने कुछ अच्छे कदम भी उठाए हैं। राहुल गाँधी जहाँ मर चुके कांग्रेस संगठन को मजबूत करने में लगे हैं वहीं उनकी माँ सोनिया गाँधी ने महिलाओं को हर संभव ऊँचे ओहदों पर बैठा दिया है। हर उस जगह पर जहाँ इससे पहले महिलाएँ पहुँची ही नहीं थीं। मसलन राष्ट्रपति और लोकसभा स्पीकर का पद। इसके अलावा महिला आरक्षण विधेयक भी बहुत तेजी से अपनी फाइनल स्टेज पर पहुँचता जा रहा है। शिक्षा के मामले में आईआईटी और आईआईएम की संख्या भी बढ़ाई जा रही है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय भी द्रुत गति से बढ़ रहे हैं। कांग्रेस ने अपने सांसदों पर भी शिकंजा कसा है और वे भी अनुशासन में रहना सीख रहे हैं। नरेगा भी एक बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना है और मैं खुद चाहता हूँ कि हो सके तो यह देश में ठीक ढंग से लागू हो जाए। मैं आज कांग्रेस की तारीफ उस समय कर रहा हूँ जब भाजपा की मटियामेट हो रही है और हर दिन उसका कोई ना कोई किला ढह रहा है या विकेट गिर रहा है।

हालांकि मैं इस बात को खारिज करता हूँ कि मैंने पाला बदल लिया है, मैंने भाजपा के पक्ष में लिखा जरूर है लेकिन ऐसा नहीं है कि उसकी हरेक गलती में मैं उसका साथ दूँ। गलत को गलत कहना और सही को सही कहना मैं बुरा नहीं मानता। तो आज का संदर्भ भी इसी से जोड़कर देखें.....

आज की ताजा खबर यह है कि पाँच वर्षों के असमंजस के बाद गृह मंत्रालय ने 30 वीआईपियों से एक्स श्रेणी की सुरक्षा वापस ले ली है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने यह निर्णय किया क्योंकि उनका मानना है कि सुरक्षा सिर्फ उन्हीं लोगों को दी जानी चाहिए जिन्हें वास्तव में खतरा है या जो संवैधानिक पदों पर हैं। खुद गृहमंत्री ने भी कोई सुरक्षा लेने से मना कर दिया है। गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि इसके साथ ही एक्स श्रेणी की सुरक्षा वाले लोगों की संख्या 20 हो गई है। एक्स श्रेणी सुरक्षा प्राप्त लोगों को एक व्यक्तिगत सुरक्षा अधिकारी आठ घंटे के लिए मिलता है।

उन्होंने कहा कि इसके बाद वाई, जेड और जेड प्लस श्रेणियों के लिए भी ऐसा किया जाएगा। जैसे ही एक्स श्रेणी से लोगों से सुरक्षा वापस लेने की खबर फैली वैसे ही पुलिस सुरक्षा के लिए गृह मंत्रालय में वीआईपी लोगों के आग्रह भरे काफी कॉल आने लगे (जैसा कि आप लोग जानते हैं कि इस देश में सड़क पर मरने का अधिकार सिर्फ आम लोगों को है और काफी सुरक्षा में पहले से ही रहने वाले वीवीआईपियों को हमेशा अपने मरने का डर सताता रहता है) तो, इस बारे में एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि विभिन्न क्षेत्रों के वीआईपी और अधिकतर राजनेता गृह मंत्रालय के समक्ष अपनी सुरक्षा की आवश्यकता को सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।

बैठक में महसूस किया गया कि पूर्व मंत्रियों शिवराज पाटिल, रामविलास पासवान और जगमोहन की सुरक्षा को कम किया जाए, जबकि पूर्व विदेश मंत्री नटवरसिंह से सुरक्षा पूरी तरह वापस ले ली जाए। गृह मंत्रालय द्वारा आहूत उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद, राबड़ी देवी, समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायमसिंह यादव और भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी सहित कुछ वीआईपी से एनएसजी सुरक्षा वापस लेने की अनुशंसा की गई लेकिन अंतिम निर्णय चिदंबरम को करना है।

बहरहाल राजनीतिक दलों ने इसका जोरदार विरोध किया और सरकार ने लोकसभा में कहा कि वीआईपी लोगों से सुरक्षा वापस लेने के लिए जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं किया जाएगा। बैठक के दौरान केंद्र सरकार से सुरक्षा प्राप्त करीब दो सौ वीआईपी लोगों की सुरक्षा को लेकर समीक्षा की गई। इन वीआईपी की सुरक्षा या तो एनसजी करती है या अन्य अर्धसैनिक बलों के जवान करते हैं। उन्होंने कहा कि वीआईपी सुरक्षा के कारण खर्च वहन करना भी मंत्रालय पर वित्तीय बोझ है............

दोस्तों, यह सही है कि इस देश के मक्कार नेताओं को सुरक्षा की कतई जरूरत नहीं है। अगर उन्हें कोई मारेगा तो देश का भला ही करेगा और आजकल तो वैसे भी नेता तथा अन्य वीआईपी सिर्फ शौक या कहें शो-आफ के लिए सुरक्षा रखते हैं। असलियत में तो उन्हें कोई देखना भी नहीं चाहता, मारना तो दूर की बात है। मैं खुद कई बार असमंजस में पड़ जाता हूँ जब चुनावी सभाओं में आम लोगों की भीड़ देखता हूँ, बाद में समझ आता है कि यह तो चुनावी मैनेजमेंट का हिस्सा भर हैं और इनमें से 90 प्रतिशत को तो रुपए देकर या कहें भाड़े पर लाया जाता है। हाँ, बीच में कुछ नेताओं पर जूते जरूर फैंके गए लेकिन जनता का उन जूतों से नेताओं को जान से मारने का कतई कोई इरादा नहीं था। हाँ, वो नेताओं को उनकी औकात जरूर दिखाना चाहते थी, उनकी बेइज्जती करना चाहती थी और उसके लिए शायद यही सबसे अच्छा तरीका था। मुझे नहीं लगता कि इन जूतों से बचने के लिए किसी नेता को या तथाकथित वीवीआईपी शख्स को किसी वाई या जेड सिक्युरिटी की जरूरत है। मैं केन्द्र सरकार द्वारा इन जूता खाऊ नेताओं की सिक्युरिटी खत्म करने का पुरजोर समर्थन करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप लोग भी करेंगे। जय हिन्द..।

आपका ही सचिन...।

August 26, 2009

जिन्ना की विरासत है आतंकवाद

जी. पार्थसारथी
3 नवंबर 2000 को जमात-उद-दावा (पूर्व में लश्कर-ए-तोइबा) के मुख्यालय पर एकत्रित हजारों जेहादियों की भीड़ के सामने गरजते हुए आमिर-ए-लश्कर हाफिज मोहम्मद सईद ने कहा था, 'जिहाद सिर्फ कश्मीर तक सीमित नहीं है। पन्द्रह साल पहले अगर कोई सोवियत संघ के टुकड़े होने की बात कहता था तो लोग उस पर हँसते थे। इंशाअल्लाह, आज मैं भारत के टूटने की घोषणा करता हूँ। हम तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक की सारा हिन्दुस्तान पाकिस्तान में समा नहीं जाता।'

पिछले दो दशकों से सईद खुलेआम जंग की ऐसी घोषणा कर रहा है कि जैसे उसके जरिए सारे भारत को लील जाएगा। मुंबई में हुए 26/11 के हमले तक किसी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन भारत को तोड़ने की हाफिज की मुहिम नौ साल से जारी है। नवंबर 2000 में दिए इस भाषण के तुरंत बाद सईद ने देश के दिल में स्थित ऐतिहासिक लालकिले पर हमला करने के लिए अपने मुजाहिदीन भेजे, तारीख थी 22 दिसंबर 2000। इस हमले के बाद इस्लामी पार्टियों के राजनेताओं के सामने सईद ने छाती ठोक कर कहा कि उसने दिल्ली के लालकिले पर इस्लाम का हरा झंडा फहरा दिया है।

हाफिज मोहम्मद सईद न कभी एक साधारण आदमी था, न अब है। उसे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरपरस्ती भी हासिल थी।

गौरतलब है कि 1998 में पंजाब के गवर्नर शाहिद हमीद और सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन सैयद को खुद हाफिज से बात करने और आभार जताने के लिए भेजा था। क्यों न हो? आखिरकार सईद द्वारा पाले-पोसे वहाबी/ सलाफी इस्लामी स्कूल को नवाज शरीफ के वालिद मियाँ मोहम्मद शरीफ का संरक्षण (तबलीगी जमात के जरिए) हासिल था। इसके अलावा जमीनी स्तर पर लश्कर का करीबी रिश्ता पाकिस्तानी आर्मी तथा आईएसआई के साथ भी है, जो कि चरमपंथी गुटों को हथियार, प्रशिक्षण और सैन्य सहायता देते हैं, किंतु भारत के टुकड़े करने संबंधी सईद के बयान क्या सिर्फ उसकी अपनी सोच है या उसके इस वक्तव्य में पाकिस्तान और विशेषकर पाकिस्तानी सेना की व्यापक रणनीति उजागर होती है? उस रणनीति से पाकिस्तान के हुक्मरान भी नावाकिफ या अलग नहीं हो सकते। चाहे वे फौजी शासक हों या वोट से चुनकर आए प्रतिनिधि हों।

पाकिस्तान का विचार सबसे पहले चौधरी रहमत अली ने 1933 में प्रकट किया था जिसने आकार ग्रहण किया 1944 में मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव में। पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ एक आम मान्यता रही थी कि भारत एक कमजोर देश होगा क्योंकि हैदराबाद में निजाम का राज है और द्रविड़ लोग अपना अलग द्रविड़िस्तान बना लेंगे।

अलगाववाद को प्रोत्साहन देते हुए मोहम्मद अली जिन्ना सवर्ण हिन्दुओं के प्रति तिरस्कारपूर्वक बोलते थे। वे इस बात पर जोर देते थे कि दक्षिण भारत के लोगों की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और पहचान अलग-अलग है और उनकी पहचान शेष भारत से भिन्न है।

दूसरी ओर महात्मा गाँधी ने बाबा साहेब आम्बेडकर जैसे नेताओं के साथ मिलकर दलितों के प्रति सदियों से हो रहे अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, तब भी जिन्ना ने दलितों को अलग करने की ओछी कोशिश की।

उन्होंने तो जोधपुर एवं त्रावणकोर-कोचिन जैसी रियासतों को भी अपने आपको स्वतंत्र घोषित करने के लिए उकसाया था। उनका लक्ष्य स्पष्ट था- भारत के छोटे-छोटे टुकड़े कर दो ताकि उपमहाद्वीप में मुस्लिम राज्य का दबदबा रहे। 1946 के कैबिनेट मिशन प्लान के अनुसार जिन्ना की सोच यह थी कि दस साल के भीतर पश्चिम से संयुक्त पंजाब व सिंध तथा पूर्व से बंगाल व असम कमजोर भारत से टूटकर अलग हो जाएँगे।

अँगरेजों के साथ जिन्ना का भी मानना था कि भारत के केन्द्र में एक कमजोर सरकार है जो देश के विभिन्न हिस्सों को मजबूती से थामे रखने में अक्षम है। इस तरह जिन्ना का लक्ष्य, भारत के प्रति, हाफिज मोहम्मद सईद के इरादों से कुछ अलग नहीं था। हालाँकि जिन्ना वस्तुतः अनीश्वरवादी इस्माइली थे जबकि सईद वहाबी मंसूबों का पक्षधर है।

लियाकत अली खान से लेकर जनरल परवेज मुशर्रफ तक जिन्ना के वारिसों ने भारत से अपने रिश्तों को इसी सोच के आधार पर बनाए रखा कि भारत एक कमजोर देश है। 1965 में फील्ड मार्शल अयूब खान ने यही सोचकर भारत पर हमला किया कि प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री एक कमजोर नेता हैं जो कि गंभीर अलगाववाद से जूझ रहे हैं। ये समस्याएँ थीं पंजाब में पंजाबी सूबा आंदोलन, द्रविड़ पार्टियों द्वारा दक्षिण में हिन्दी विरोधी दंगे तथा उत्तर-पूर्व में लगातार चलती दिक्कतें, लेकिन हिन्दुस्तानियों की एकता के सामने पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी।

जनरल जिया-उल-हक ने भारत में अलगाववाद को भड़काने के लिए एक विस्तृत नेटवर्क बनाया और पंजाब में हिन्दू-सिख विभाजन का षड्यंत्र रचा। यह साजिश नाकाम सिद्ध हुई क्योंकि हिन्दू और सिख दोनों ही पाकिस्तान की मंशा को समय रहते ताड़ गए थे। लेकिन जम्मू- कश्मीर में पाकिस्तानी आईएसआई की कोशिशें जारी हैं।

इसलिए यह बात हैरान करती है जब कोई भारतीय जिन्ना के दिलो-दिमाग के गुणों की स्तुति करता है। सिर्फ इसलिए कि वे कभी धर्मनिरपेक्ष हुआ करते थे। लेकिन उन्हें इस इल्जाम से बरी नहीं किया जा सकता कि मजहबी आधार पर देश के बँटवारे और कत्लेआम के लिए जिन्ना की जिम्मेदारी बनती है।

पूर्व राजनयिक नरेन्द्रसिंह सरिला ने बहुत सतर्कतापूर्वक एक किताब लिखी है- 'द शैडो ऑफ द ग्रेट गेम-द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ पार्टीशन' जिसमें उन्हें खुलासा किया है कि मई 1946 में कैबिनेट मिशन के भारत आने से पहले, एक के बाद एक आए ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो तथा लॉर्ड वेवैल पहले ही फैसला कर चुके थे कि भारत का बँटवारा करके उत्तर-पश्चिम में एक मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना की जाए। सीमाएँ ईरान, अफगानिस्तान तथा चीन के सिंकियांग सूबे से लगती हों। यह इसलिए था कि फारस की खाड़ी में मौजूद तेल के खजाने पर ब्रिटिश हित सुरक्षित किए जा सकें।

मोहम्मद अली जिन्ना ने 1939 में अँगरेजों के इस उद्देश्य को आगे बढ़ाने का काम किया। पाकिस्तान के रूप में उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की स्थापना की जो अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का केन्द्र बन गया है। पाकिस्तान अब एक ऐसा देश है जिस पर सामंतवादी फौज का राज चलता है और जो हाफिज मोहम्मद सईद और मौलाना मसूद अजहर को पाल-पोस रहा है। अंततः समस्त विश्लेषण का लब्बोलुआब यही निकलता है कि ये कायदे आजम जिन्ना की विरासत है जो वे दुनिया और इस उपमहाद्वीप को देकर गए हैं, जिसमें हम सभी रहते हैं।

(लेखक पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रहे हैं) (साभारः वैबदुनिया)

August 24, 2009

युवाओं की यह कैसी सोच!

सिर्फ कोसने भर से नहीं चलेगा काम

दोस्तों, आज मैंने डॉयचे वेले, जर्मन रेडियो की हिन्दी वैबसाइट पर एक खबर पढ़ी। यह खबर जर्मनी के युवाओं को लेकर है। खबर के अनुसार जर्मनी में 1968 में जन्मी पीढ़ी ने अपने माँ-बाप और उनके नाजी इतिहास के खिलाफ आवाज उठाई है। आज की जर्मन पीढ़ी खफा है कि उन्हें खराब पर्यावरण व लचर सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था मिली है। जर्मनी में कई युवाओं को लगता है कि समाज में हर तरह के बोझ को उचित ढंग से नहीं बाँटा गया है। एक युवती कहती है, 'कभी-कभार मुझे बहुत गुस्सा आता है। खासकर जब मैं उन लोगों को देखती हूँ जो अब 65 साल की उम्र के हैं। यह सही है कि उन्होंने बहुत सालों तक खूब काम किया, उन्होंने शायद युद्ध भी देखा। लेकिन वे लोग अब अपनी पेंशन के साथ मजे में जिंदगी गुजार रहे हैं। और मुझे यह भी नहीं पता कि जब मैं पेंशन पाने लायक होऊँगी, तो उस पैसे से मेरा गुजारा हो भी पाएगा या नहीं।

ऐसी ही राय एक युवक की भी है। वह कहता है, 'मैं बुजुर्गों को दोष नहीं देना चाहता हूँ, लेकिन यह बात सही है कि उनके फैसलों की वजह से पर्यावरण को लेकर गंभीर समस्याएँ पैदा हुई हैं। यह भी सही है कि जर्मनी घाटे में चल रहा है, इस देश को बहुत कर्ज लेना पड़ा है। 25 वर्ष के इस युवक वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर ने राजनीति शास्त्र की पढ‍ाई की है। हाल ही में उनकी तीसरी किताब निकली है। शीर्षक है, 'युवाओं की क्रांति, कैसे हम पीढ़ियों के संघर्ष से बच सकते हैं। वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर बताते हैं, 'हमको हमारी नानी या हमारे माँ-बाप से कोई नफरत नहीं है, लेकिन हकीकत यह है कि जर्मन समाज में विवाद बढ़ रहे हैं। उदाहारण के लिए जर्मनी में फैसला लेने वालों के पास जो भी पैसा होता है, उन्हें बहुत गौर से सोचना पड़ता है कि वे इसे कैसे खर्च करें। वे इसे पेंशन में बढ़ोतरी लाने के लिए इस्तेमाल करें, या फिर शिक्षा और पर्यावरण के लिए।'

वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर का मानना है कि जर्मन सांसद सभी फैसले ज्यादातर बुजुर्ग पीढ़ी की जरूरत के अनुसार लेते हैं। आठ करोड़ की आबादी वाले जर्मनी में करीब दो करोड़ लोगों की उम्र 65 साल से ज्यादा है। वह एक बहुत ही महत्वपूर्ण समुदाय है और एक बड़ा वोट बैंक भी है। इसके अलावा वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की हालत को देखते हुए चिंतित हैं। वे कहते हैं, 'सबसे चिंता वाली बात यह है कि जो हम अपने बच्चों को विरासत में देंगे और जो हमें अपने माँ-बाप से विरासत में मिला है वह है पर्यावरण आपदा। जब मैं 40 या 50 साल का होऊँगा, तब मैं इस आपदा को महसूस भी करने लगूँगा। पृथ्वी ज्यादा गरम होगी, जलवायु में भी बदलाव आएगा। यानी हमें आज वह भुगतना पड़ेगा जिसके लिए बीते हुए कल के फैसले लेने वाले जिम्मेदार हैं।' वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर का कहना है कि पृथ्वी का शोषण किया गया है। कई इलाकों में तो पीने के साफ पानी की भी कमी है, तो कहीं बाढ़ बढ़ गई है। विकसित देशों में खासकर पश्चिमी यूरोप के देशों में या अमेरिका में यह देखा जा सकता है कि कम बच्चों की वजह से समाज बूढ़े ही होते जा रहे हैं।

क्या बुजुर्ग पीढ़ी को युवाओं की स्थिति पर अफसोस है। इसपर एक बुजुर्ग की राय है, 'नहीं, मुझे किसी बात का अफसोस नहीं है क्योंकि आप पीढ़ियों और उनकी समस्याओं की तुलना नहीं कर सकते हैं। सबकी अपनी-अपनी चुनौतियाँ हैं। मैं भी तो अपनी तुलना अपने पिता से नहीं करता हूँ जिन्होंने दो युद्ध देखे हैं। मैं खुद को किसी चीज का दोषी नहीं मानता हूँ बल्कि मुझे बहुत उम्मीद है कि युवा सभी चुनौतियों को पार कर पाएँगे।। वहीं एक बुजुर्ग महिला कहती हैं, 'मैं इस बात से बहुत दुःखी हूँ कि हमने युवाओं को विरासत में कुछ अच्छा नहीं दिया, खासतौर पर पर्यावरण की अगर बात हो। कई मामलों में हम शायद अंधे ही थे जैसे कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद हर कीमत पर अर्थव्यवस्था के विकास में जुटे रहे। उपभोग ही सब कुछ है।' वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर कहते हैं, 'मैं अपनी पीढ़ी से अपील करूँगा कि वह भी अपने हितों की रक्षा की माँग करे और चीजें जैसी हैं, उन्हें वैसी ही स्वीकार न करे। इस पीढ़ी को परिवर्तनों के लिए काम करना चाहिए। यह हमारी दुनिया है, हम इसमें जीना चाहते हैं और आज की नीतियों का असर हमें सबसे लंबे समय तक भुगतना होगा।'

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दोस्तों, जब मैं इस खबर को पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि भारतीय मध्यवर्ग के युवाओं जैसी ही सोच है जर्मन युवाओँ की। वो तीस साल की उम्र के आसपास ही पेंशन की सोचकर चिंतित रहने लगे हैं। इसी चिंता के बूते पर आपको टीवी पर दिन रात पेंशन प्लान बताने वाली कंपनियों के विज्ञापन देखने को मिल जाएँगे जो पूरे समय बताते रहते हैं कि आप कभी भी मर सकते हैं इसलिए जल्दी ही इंश्योरेंस पॉलिसी ले लीजिए या आप बूढ़े हो जाएँगे तब आपको कोई भी नहीं पूछेगा इसलिए फटाफट पेंशन स्कीम ले लीजिए। इसके साथ ही हमें यह भी बताया जाता है कि आपको आज जितने खर्चे मेंटेन करने के लिए तीस साल बाद पेंशन स्कीम वाली बैंक या कंपनी को 25 लाख (कम से कम) रुपए जमा करवाने होंगे तभी आप आज जितनी राशि पेंशन के तौर पर पा सकेंगे।

ऊपर बताई गई खबर से एक बात और साफ होती है कि जर्मनी के युवाओं को यह नहीं लगता कि उनके बुजुर्गों ने दो विश्व युद्धों की विभिषिका को झेला और उन्हें एक बेहतर जर्मनी बनाकर दिया..हाँ वे सामाजिक ढाँचे को जरूर कोस रहे हैं और जानना चाह रहे हैं कि उनके पास पेंशन वाली नौकरी क्यों नहीं है गोया कि वे वर्तमान में जीकर भविष्य की उलझन में हैं और भूतकाल को कोस रहे हैं।

पर्यावरण और पानी के मुद्दे पर हमें अपने भूत को ही नहीं वर्तमान को भी कोसने की जरूरत है क्योंकि समय अभी भी है लेकिन हम कुछ करते नहीं, सिर्फ हाथ पर हाथ धरे समाज को कोसते रहते हैं। मुझे लगता था कि यह आदत सिर्फ भारत के युवाओं में ही है लेकिन जर्मनी जैसे विकसित देश के युवा भी नाकारा हैं और अपनी असफलताओं का दोष अपने बुजुर्गों पर मढ़ रहे हैं जिन्होंने उनको पालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया।

दोस्तों, अभी कुछ ही दिन पहले मेरी किसी से बात चल रही थी। बात महंगाई पर थी। तो उन्होंने अचानक बोल दिया कि कहाँ है महंगाई...मैंने कहा अरे भाई, दाल 90 रुपए किलो बिक रही है। और मैंने इसी दाल को 15 रुपए में भी खरीदा है जबकि मेरी उम्र तो अभी ज्यादा भी नहीं है। फिर कैसे नहीं हुई महंगाई। इसपर वो बोले, अरे भईया एक समय जब महंगाई बढ़ती थी तो लोग आंदोलन पर उतर आते थे। युवाओं की भी उसमें भूमिका होती थी क्योंकि कोई भी आंदोलन बिना युवाओं के कभी हो ही नहीं सकता। आज जब आम आदमी का खर्चा भी नहीं चल रहा है और शादीशुदा युवा खर्चे के डर से बच्चे पैदा करने से भी बच रहा है ऐसे में भी भारतीय मानस और युवा सिर्फ सरकार, देश या यहाँ की व्यवस्थाओं को कोसने में ही लगा हुआ है। वह सिर्फ सह रहा है लेकिन कोई कदम नहीं उठा रहा। कुल मिलाकर हम (युवा) किसी एक मामले में भी आंदोलनकारी नहीं होते। कभी बहस में भी भाग नहीं लेते, वोट करने और लोकतंत्र की प्रक्रिया में भी भाग नहीं लेते, हाँ नेताओं और राजनीति को गाली जरूर देते हैं लेकिन ये जानते हुए भी कि बिना वहाँ जाए वो सुधर नहीं सकती, हम राजनीति में भी नहीं जाते। हाँ, बहुत हुआ तो बेहतर सुविधाओं के नाम पर अपना देश छोड़कर जरूर चल देते हैं। ये स्थाई हल नहीं है और हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस ट्रांसीशन फेज में यही समय है कि हम (युवा) बिना डरे राष्ट्र निर्माण की भूमिका में उतरें। हमें जर्मनी के युवाओं से अलग रुख अपनाना ही होगा क्योंकि भारत को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है और इसमें युवाओं की भूमिका निश्चित ही बहुत महत्वपूर्ण है।

आपका ही सचिन....।

August 22, 2009

विभिषण बनते जसवंत!

अपने ही घर को ढहाने में लगे, भाजपा बैकफुट पर, आडवाणी की कई पोलें खुलीं

भाजपा के वरिष्ठ नेता (पूर्व) जसवंत सिंह अब विभिषण की भूमिका में आ गए हैं। वे अपना ही घर ढहाने में लग गए हैं इसलिए उनकी इतिहास में कभी ख्याति दर्ज नहीं की जाएगी। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि विभिषण के बनने के पीछे रावण था और पूरी लंका भी थी। सो, भाजपा अब लंका की भूमिका में है और रावण की भूमिका में आडवाणी हैं। अपने पूरे चुनाव कार्यक्रम के दौरान आडवाणी ने कई मोर्चों पर झूठ बोला। यह बात अब धीरे से जसवंत सिंह खोल रहे हैं। आडवाणी ने कहा कि उन्हें कंधार में आतंकियों को छोड़े जाने की जानकारी नहीं थी। इन आतंकियों को तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ही कंधार छोड़ने गए थे। तो सिंह ने बता दिया कि पहले दिन से ही आडवाणी को समस्त जानकारी थी और तथाकथित लौह पुरुष (आडवाणी) भारत में उतरे उस विमान पर एनएसजी कार्रवाई भी समय रहते नहीं करा पाए थे। भारतीय मीडिया की नजरों में खलनायक बने हुए नरेन्द्र मोदी के बारे में भी जसवंत ने जहर घोल दिया। उनका कहना है कि आडवाणी ने मोदी को कार्रवाई से बचाया जबकि वाजपेयी उनपर गुजरात दंगों के मामले में कार्रवाई करवाना चाहते थे। तब देश भर और दुनिया भर में भी यह संदेश गया था कि वाजपेयी ने कोई कार्रवाई नहीं की। जबकि आडवाणी ने वाजपेयी जी को यह कहकर डरा दिया था (बकौल जसवंत सिंह) कि अगर मोदी पर कार्रवाई हुई तो बवाल मच जाएगा। वाजपेयी गुजरात दंगों को लेकर बहुत परेशान थे। उन्होंने अपने संसदीय कार्यालय में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा भी लिख दिया था। उस समय संसद सत्र चल रहा था। बकौल जसवंत वाजपेयी ने एक कागज उठाया और इस्तीफा लिखने लगे। मैंने उनका हाथ पकड़ लिया और उन्होंने मेरी ओर सख्ती से देखा, तब मैंने कहा आप यह क्या कर रहे हैं। ऐसा मत कीजिए। उन्होंने कहा छोड़ दो और मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया। हम उनके निवास गए। हम हालात को शांत करने में सफल हुए। उल्लेखनीय है कि जसवंत, वाजपेयी और आडवाणी के समकालीन हैं। भैरोसिंह शेखावत भी उतने ही पुराने हैं और बीच में उन्होंने भी राजनाथ सिंह और आडवाणी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।

दोस्तों, यह तो हुई जसवंत सिंह की बातें। लेकिन मैं यहाँ सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि जसवंत सिंह की इन बातों ने यहाँ बहुत से गूढ़ रहस्यों पर से भी परदा उठा दिया। सबसे पहला कि अटल बिहारी वाजपेयी क्या थे वो उन्होंने बता दिया है। आज राजनाथ सिंह या अरुण जेटली कितना भी हवा में उड़ लें लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिए कि सिर्फ एक भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के ना होने से क्यों उसकी 100 सीटें कम हो गईं जबकि कांग्रेस के शासन से देश की जनता त्रस्त थी। अटल जी लखनऊ से पिछले बीस वर्षों से चुनाव जीत रहे थे। सिर्फ उनके नाम भर से ही इस बार लालजी टंडन भी वहाँ से चुनाव जीत गए जबकि मायावती तो उन्हें लालची टंडन तक कह चुकी हैं। लखनऊ काफी मुस्लिम आबादी वाला क्षेत्र है। लेकिन कट्टर भाजपाई और संघ के प्रचारक रहे वाजपेयी वहाँ से सिर्फ इसलिए जीत जाया करते थे क्योंकि उनमें कभी उतनी कट्टरता नहीं रही। वे हमेशा शांत चित्त और धैर्यवान बने रहे और जसवंत सिंह इस प्रकरण में बार-बार उन्हें याद कर कह रहे हैं कि अगर वाजपेयी होते तो उन्हें सफाई देने का मौका दिया होता और इस तरह बेइज्जत करके नहीं निकाला जाता। वाजपेयी का कद इसलिए भी बड़ा था क्योंकि उन्होंने पार्टी के भीतर कभी राजनीति नहीं की और सभी लोगों को बराबर मानकर अपने साथ रखा। आज जबकि राजनाथ सिंह और अरुण जेटली भयानक राजनीति कर रहे हैं, और पहले उमा भारती अब जसवंत सिंह जैसे पुराने पार्टी दिग्गज एक-एक करके पार्टी से निकाले जा रहे हैं। वसुंधरा राजे को भी हाशिए पर डालने की तैयारी है। जार्ज फर्नांडीस पहले ही कहीं उड़ा दिए जा चुके हैं, तब वाजपेयी की याद आना लाजमी है। वाजपेयी इन सबको रोके रखने में सक्षम थे। वो ममता बनर्जी, जयललिता और मायावती सरीखी आग का शोला रूपी महिला नेताओं को भी अपने साथ जोड़े रखते थे। उनकी लोकप्रियता इतनी जबरदस्त थी कि नितांत बंगाली, मराठी, मलयाली या कन्नड़ क्षेत्रों में भी लाखों की संख्या में जनता उन्हें सुनने आती थी।

जसवंत की दूसरी टीस यह भी है कि इसी जिन्ना की वजह से आडवाणी भी मुसीबत में फँसे थे लेकिन उनका सिर्फ भाजपा अध्यक्ष का पद गया जबकि उन्हें एक फोन कॉल कर राजनाथ सिंह ने उनकी पार्टी से ही निकाल दिया। उस पार्टी से जिसके वो संस्थापक सदस्य थे और जिसमें उन्होंने 30 साल दिए थे। जसवंत सिंह के अनुसार उनके साथ ऐसा व्यवहार किया गया जैसा कि किसी चपरासी के साथ भी नहीं किया जाता। जसवंत सिंह की बात सही है, लेकिन अब मंथन का समय भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस का है कि ऐसा क्या हो रहा है कि इन लोगों की जमीन खिसक रही है, जनाधार कम हो रहा है और ये खिसियाकर बौराए जा रहे हैं। इस सबमें मजे की बात यह है कि पार्टी के दो शीर्ष लोगों (आडवाणी और जसवंत सिंह) को मुसीबत में डालने का काम उस जिन्ना ने किया है जिसकी दशकों पूर्व मौत हो चुकी है और जो मरने से पहले यह कह गया था कि पाकिस्तान बनवाना मेरे जीवन की कुछ सबसे बड़ी गलतियों में से एक रहा। अब उस जिन्ना का भूत भाजपा के लिए नित नए गड्ढे खोद रहा है और वो उन गड्ढ़ों में लड़खड़ाकर गिर भी रही है। फिलहाल इस कठिन समय में भाजपा को मार्गदर्शन देने वाला वाजपेयी जैसा कोई दूरगामी सोच वाला शीर्ष पुरुष मौजूद नहीं है (वाजपेयी जी का स्वास्थ्य ऐसा नहीं कि वे किसी से बोल-सुन सकें)। इस समय में पार्टी को खुद ही अपनी करनी से उबरना होगा। लेकिन जसवंत सिंह प्रकरण के बाद पार्टी को नुकसान होना तय है। फिलहाल तो लोकसभा चुनावों में पहले ही अपनी दुर्दशा करवाने वाली भाजपा का इस कठिन समय में कोई खेवनहार दिख नहीं रहा।

आपका ही सचिन...।

August 20, 2009

चटकती दरकती भाजपा की मानसिकता


मुस्लिम वोट बैंक का पीछा करना छोड़ना होगा

भाजपा ने अपने संस्थापक सदस्यों में से एक जसवंत सिंह की छुट्टी कर दी। जसवंत सिंह भाजपा में अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ शुरूआत के समय से हैं और वर्तमान में इसकी बागडोर संभाले हुए अरुण जेटली और राजनाथ सिंह उनके सामने बच्चे हैं। लेकिन जसवंत सिंह की लिखी एक किताब उनके तीस साल पुराने रिश्ते खा गई। ये तीस साल पुराने रिश्ते भाजपा के साथ वाले हैं। जसवंत सिंह जी ने जिन्ना के फेवर में बोल दिया था। यह उनके सठियाने (हालांकि वो हैं अस्सी के आसपास) की निशानी भी मानी जा सकती है। आडवाणी जी इस निशानी को कुछ साल पहले तब जाहिर कर चुके थे जब वे पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर गए थे। वहाँ उनकी ऐसी जुबान फिसली कि भाजपा का अध्यक्ष पद हाथ से गया और वे उस घटना की अभी तक माफी माँग रहे हैं। सठियाए दोनों ही, बस फर्क इतना रहा कि आडवाणी जी बच गए और जसवंत सिंह जी निबट गए।

लेकिन दोस्तों, ये अजीब वाक्या क्यों घटित हो रहा है समझ नहीं आ रहा। भाजपा को जिन मूल मुद्दों पर रहकर अपना स्थान बनाने की कोशिश करनी चाहिए वो उससे सरके जा रही है। वो बार-बार मुस्लिमों को रिझाने की कोशिश करती नजर आती है। अगर उसे यह करना ही है तो पहले उसे अपना अतीत याद करना चाहिए। भाजपा का स्थान देश की राजनीति में तय ही हिन्दुत्व के आधार पर हुआ है। 1992 में गिरे बाबरी मस्जिद ढाँचे में उसकी भूमिका अहम है और उसे यह भूल जाना चाहिए कि आने वाली कई शताब्दियों तक मुस्लिम उसे वोट देने की गलती से भी सोचेंगे। मुसलमान भाजपा से चिढ़ते हैं, आरएसएस से चिढ़ते हैं और हर उस शख्स से चिढ़ते हैं जो इनसे जुड़ा हुआ हो। भाजपा में दो मुसलमान चेहरे हैं, मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन। लेकिन भारत की मुस्लिम जमात इन्हें मुसलमान ही नहीं मानती। अगर ये उनके हत्थे चढ़ जाएँ तो भारतीय मुसलमान इन्हें मार ही डालें। भाजपा से जुड़े इन मुसलमानों से मुस्लिम जमात हद दर्जे तक चिढ़ती है। दूसरा उदाहरण मशहूर शायद बशीर बद्र का दिया जा सकता है। वो भाजपा से जुड़े। उनके मोहल्ले में रहने वाले मुसलमानों ने उनका सोशल बॉयकॉट करना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं, उनके घर परिवार के बच्चों के साथ कोई बच्चा खेलता तक नहीं था, यह कहकर कि ये तो भाजपा वाले हैं। उनका बहुत टोरचर (मानसिक रूप से प्रताड़ित) किया गया। साधारण मुसलमान जो भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ से जुड़ा हुआ है, को भी अपनी खाल बचाकर रखनी पड़ती है। उसे दरअसल मुस्लिम जमात द्वारा धर्म विरोधी माना जाता है।

एक अन्य उदाहरण देना चाहूँगा। इंदौर में एक कॉलोनी है जो मुस्लिम बहुल है। गत वर्ष मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में इस कॉलोनी से भी वोटिंग हुई। यहाँ से 1600 वोट पड़े। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से मात्र 3 वोट ही भाजपा को गए। अगर कॉलोनी के रहवासियों को पता चल जाए कि वो तीन वोट कौन से लोगों ने डाले तो उन तीनों की तो समझिए शामत ही आ जाए। यही कारण है कि मुस्लिम वोटों को मुस्लिम वोट बैंक कहा जाता है क्योंकि ये किसी एक पार्टी को थोकबंद पड़ते हैं। भाजपा हर बार गफलत में रह जाती है। किसी पार्टी को अपनी पार्टी लाइन से नहीं भटकना चाहिए। अगर आपको सेक्युलर रहना है तो वह रहिए और नहीं रहना है तो फिर वैसा ही कीजिए...बीच का रास्ता खोजते हुए तो भाजपा बहुत ही साधारण तरीके से दरक जाएगी। इन चुनावों में हमने देख लिया कि भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर फजीहत क्यों हुई। वरुण गाँधी ने उत्तर प्रदेश में आग उगली। लेकिन भाजपा ने उससे अपने को अलग कर लिया। अरे अगर आपने उस व्यक्ति को टिकट दिया है तो पहले ही उसे समझा देना चाहिए था कि क्या बोलना है और अगर बोल दिया तो उसके साथ रहना था। पता चला कि भाजपा उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को सीधे तौर पर नाराज नहीं करना चाहती थी क्योंकि वहाँ उनकी संख्या बहुत ज्यादा है। लेकिन भाजपा को ना माया (सत्ता) मिली ना राम मिले। अब वो झूल रही है, उसपर से उसके कुछ सबसे बुजुर्ग नेता सठियाकर कुछ भी उल्टा सीधा बोल रहे हैं जिससे जनता को लग रहा है कि ये अपने स्टेण्ड पर टिक ही नहीं पा रही।

उत्तरप्रदेश में दो अन्य राजनीतिक पार्टियों बसपा और सपा ने अपने स्थाई स्टेण्ड (विचारधारा) से मुसलमानों को अपने हक में किया और अब मुस्लिम वहाँ कांग्रेस को थोकबंद वोट नहीं देते। वहाँ के मुसलमान बाबरी कांड के समय से ही दिल ही दिल में कांग्रेस से भी खफा हैं। उन्हें लगता है कि उस समय केन्द्र में बैठी कांग्रेस चाहती तो वह हादसा रुक सकता था लेकिन उनके पास आप्शन नहीं था। जब सपा और बसपा रूपी आप्शन उनके सामने आए तो उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया। मुसलमान कांग्रेस को सिर्फ इसलिए वोट देते हैं ताकि भाजपा सत्ता में नहीं आ पाए, लेकिन भाजपा को यह बात समझ ही नहीं आती। उसको समझ लेना चाहिए कि अगर कोई दूसरा आप्शन सामने आया तो मुसलमान कांग्रेस छोड़कर उसे चुन लेंगे लेकिन भाजपा को कभी नहीं चुनेंगे। इसलिए भाजपा की मुस्लिमों को रिझाने की कोई भी रणनीति कभी काम नहीं आनी वाली।

जिन्ना ने पाकिस्तान नाम का एक ऐसा नासूर हमारे सामने पैदा कर दिया कि हम पिछले 62 सालों से उससे जूझते हुए अपने को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर आज वो नहीं होता तो हमारी तरक्की की राह कहीं अधिक तेज होती। तमाम आतंकवाद और हिंसा पाकिस्तान ने हमें तोहफे में दी। बँटवारे के समय ही लाखों लोग काट डाले गए। यह सब उस जिन्ना की ही वजह से हुआ। लेकिन जसवंत सिंह हैं कि मान ही नहीं रहे। जिन सरदार वल्लभ भाई पटेल को भाजपा अपना हीरो बताती रही है जसवंत सिंह ने उन्हें भी विलेन बना डाला। ऐसे में भाजपा की अंदरूनी बातों को छोड़िए आम भारत का नागरिक क्या सोचेगा। कि इस पार्टी का स्टेण्ड ही अभी तक तय नहीं हो पाया है। इस लोकसभा चुनावों में भारत की जनता ने बता दिया कि उन्हें एक ही स्टेण्ड वाली पार्टी चाहिए जो देश की तरक्की को ही मुख्य माने। भाजपा का राम मंदिर अलाप फुस्स हो चुका है और अब अगर वो मंदिर की बात करेगी तो लोग उसपर हँसेंगे। अब भाजपा को अंदरूनी कलह से उबरकर अपना स्थाई स्टेण्ड रखकर सिर्फ देश की तरक्की पर ध्यान देना चाहिए नहीं तो वो भारत-पाकिस्तान, हिन्दू-मुसलमान करती रह जाएगी और देश में तेजी से बढ़ रही तरक्की पसंद जनता उसे धीरे से किनारे लगा देगी और कांग्रेस बार-बार इसी तरह सत्ता में रिपीट करती रहेगी जैसा कि उसने इस बार किया।

आपका ही सचिन.....।

August 19, 2009

हमारी मर्जी से नहीं बरसेगा पानी

बुरे वक्त के लिए सहेजकर रखना सीखना होगा

सचिन शर्मा
21वीं सदी की सबसे बड़ी समस्या पानी है। यह बात इस वर्ष हमें अधिक अच्छे से इसलिए समझ आ रही है क्योंकि अभी तक देश भर में 65 फीसदी बारिश कम हुई है। सिर्फ इस वजह से ही पहले से सिर चढ़ी हुई मंदी अधिक गहरा गई है। उस पर से तुर्रा यह कि मंदी के साथ-साथ महँगाई भी बढ़ रही है और आम आदमी की कमर तोड़े दे रही है। मंदी, महँगाई और बारिश के बीच संबंध को समझने के लिए हमें उसी गणित को समझना होगा जो बाघ और बैंगन के बीच संबंध को समझाता है।

पानी की अहमियत को बताना तो सूरज को दिया दिखाने जैसा ही है, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमारी सरकारों ने इस विषय में बातें अधिक और काम कम किया है। पिछले एक दशक से हम नदी जोड़ परियोजना के बारे में सुन-समझ रहे हैं। लेकिन ये नदियाँ फिलहाल कागजों पर ही बह और जुड़ रही हैं। जिस साल बारिश ठीक-ठाक होती है, हम प्रसन्न हो जाते हैं। जिस साल बारिश कम होती है वह साल हमारा रोते-गाते हुए बीतता है, हम अपनी सारी असफलताओं (मसलन महँगाई, कम उत्पादन, किसान आत्महत्या आदि) का ठीकरा इन्द्र देव पर फोड़ देते हैं। जिस वर्ष बारिश जरूरत से ज्यादा हो जाए यानी बाढ़ जैसी स्थिति बन जाए वह साल भी हमारा हैरानी-परेशानी और पानी के प्रकोप को कोसते हुए बीतता है।

हमारे देश का आम आदमी चाहता है कि उसके शहर में इतना पानी पड़ जाए कि उसके पीने के लिए पर्याप्त रहे। मसलन 20 से 30 इंच के बीच। कई बार आपने लोगों को कहते हुए भी सुना होगा कि बारिश धीरे-धीरे होनी चाहिए ताकि पानी जमीन में अच्छे से पैठ जाए। 30 से 40 इंच बारिश होनी चाहिए ताकि अगली गर्मियों में पानी की किल्लत महसूस नहीं हो। अगर किसी रोज ज्यादा पानी गिर जाता है तो लोग परेशान हो जाते हैं। उनकी गाड़ियाँ बंद हो जाती हैं, जनजीवन रुक जाता है और वे दुआएँ मनाने लगते हैं कि बस, अब बहुत हुआ। बारिश बंद हो जानी चाहिए हम लोग ऑफिस नहीं पहुँच पा रहे हैं।

हमारे देश के किसान भी आम आदमी की तरह ही हैं। वे चाहते हैं कि एक निर्धारित समय पर निर्धारित बारिश हो ताकि उनकी फसल अच्छे से पनप सके। अगर किसान छत्तीसगढ़ या झारखंड का है (वहाँ धान की खेती होती है) तो उसे 40 से 50 इंच के बीच बारिश चाहिए। किसान के लिए अगर कम बारिश होगी तो बीज तथा पौधे सूख जाएँगे, ज्यादा बारिश होगी तो गल जाएँगे, उनमें कीड़े लग जाएँगे। इसलिए हम हमेशा भगवान से यही चाहते हैं कि हमारी मर्जी के अनुसार ही पानी बरसे। ना कम, ना ज्यादा। ठीक हमारी अपेक्षा अनुसार।

आशावादी होना बुरा नहीं है लेकिन प्रकृति को अपने ढंग से चलाना किसी के बस की बात नहीं। आज भी भारत के ज्यादातर शहरों में आजादी से पहले बने बैराज, बाँध और तालाब बने हुए हैं। आजादी के बाद जो प्रयास हुए हैं वो बेतहाशा बढ़ी जनसंख्या के लिहाज से कम ही हैं। पिछले दो दशकों से पानी की जो अभूतपूर्व कमी शहर देख रहे हैं वो दिनोदिन बढ़नी ही है। तेज बारिश के बाद सड़कों पर बहते पानी को देखकर हमेशा मन से एक ठंडी आह निकलती है। काश, वो पानी अगली गर्मिंयों के लिए हम बचा पाते।

जब भी किसी बैराज या बाँध के साइफन चालू होते हैं तो उनकी खूबसूरती देखने से ज्यादा मन यह सोचकर परेशान हो उठता है कि काश, इस बाँध की गहराई कुछ और ज्यादा होती। ज्यादातर महानगरों में अब तालाब नहीं बचे। जहाँ बचे हैं वहाँ पुराने स्टेट टाइम (आजादी से पहले जब राजा-महाराजाओं का राज हुआ करता था) के तालाबों की चैनल व्यवस्था है और वो भी अतिक्रमण का शिकार हैं। शहरों के बीच से बह रही नदियाँ नालों में तब्दील हो चुकी हैं। सरकारें बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और नालों पर जमे अतिक्रमणकारी वोटरों के दबाव में चुप रह जाती हैं।

भारत जैसे विशाल भू-भाग तथा विशालतम आबादी वाले देश में पानी के संकट को जिस तरह से अनदेखा किया जाता है वैसा उदाहरण कम ही देखने को मिलता है। इसका खामियाजा भविष्य में क्या होगा इस पर आमतौर पर बहसें चलती रहती हैं, लेकिन ये बहसें भी अच्छे मानसून की आमद पर दफन हो जाती हैं। लेकिन इस बार ये साल भर चलती रहेंगी, क्योंकि बादलों ने हमें ठेंगा दिखा दिया है। शहरों में चौड़ी सड़कें बनाने के लिए जिस तरह से हरे-भरे पेड़ों को निर्लज्जता के साथ काट दिया जाता है उस समय भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी भी यह छोटी-सी बात नहीं समझ पाते कि वो उस शहर से बादलों और बारिश को विमुख करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। किसी शहर में जितने लोग रहते हों उतने ही पेड़ होने चाहिए लेकिन वर्तमान हालात क्या हैं ये बताने की जरूरत नहीं।

इस बार मध्यप्रदेश में बाँधों के विकास के लिए 379 करोड़ विश्व बैंक ने मंजूर किए हैं। इस रकम से 50 बाँधों का उद्धार किया जाएगा। लेकिन यह भविष्य के गर्भ में ही छिपा है कि उन बाँधों का कितना उद्धार हो पाएगा। एक ओर जहाँ अरब देशों में सड़कों के नीचे बड़े-बड़े पानी के टैंक बनाकर उसे वाप्षीकृत होने से बचाया जाता है वहीं हमारे देश में सूख रहे जल स्रोतों में जमा थोड़ा-बहुत जल भी सूरज की भीषण गर्मी से उड़ जाता है। हम ऐसी समस्याओं पर कभी ध्यान नहीं देते। बाँधों की मरम्मत और नए बाँधों के निर्माण की इस देश में कैसी गति है यह हम जानते हैं। इंदिरा सागर और सरदार सरोवर जैसे बाँधों को बनने में दशकों का समय लग गया। नए बाँध बनने शुरू होते नहीं हैं कि उससे पहले विस्थापितों के हिमायती सामने आ जाते हैं और काम अटक जाता है।

ओंकारेश्वर बाँध परियोजना इस मामले को लेकर कई बार अटकी। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बीच केन और बेतवा नदियों के जोड़ को लेकर समझौता हुआ था। खुद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह वहाँ मौजूद थे। दोनों प्रदेशों के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों मुलायमसिंह यादव और बाबूलाल गौर ने 25 अगस्त 2005 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन इस नदी जोड़ परियोजना का 4 वर्षों में क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम।

मध्यप्रदेश के भिण्ड जिले के अटेर क्षेत्र में कनेरा सिंचाई परियोजना को शासन से स्वीकृति मिलने में ही 25 साल लग गए। इस परियोजना से लगभग 100 गाँवों को लाभ मिलने वाला है। इन उदाहरणों से समझा जा सकता है कि देश में योजनाएँ लागू होने की दर इतनी धीमी है कि सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन ढर्रा नहीं बदलता। अभी तक पानी को लेकर कोई केन्द्रीयकृत नीति नहीं बन पाई है जबकि वर्तमान समय में इसकी सख्त और तुरंत जरूरत है।

नदी जोड़ परियोजना में एनडीए की वाजपेयी सरकार ने जितनी दिलचस्पी दिखाई थी बाद की सरकार में उस मामले में उतनी ही उदासीनता दिखाई दी। अब मौसम बदल रहा है। बादल हमारा साथ छोड़ रहे हैं। समय है कि जितना पानी पास में है उसे ही बचाकर रखा जाए, हौले से सहेजा जाए नहीं तो देश की आबादी के पास प्यासा तड़पने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाएगा।

August 18, 2009

न्यूज चैनल्स के न्यूज रूम और राखी सावंत

दर्शकों पर मुझे तरस आता है
मित्रों, राखी सावंत का स्वयंवर खत्म हो गया। बात पुरानी हो गई। लेकिन इस पागल लड़की का चेहरा अचानक मैंने आज किसी न्यूज चैनल पर देख लिया। वो बता रहा था कि अब वे बच्चे पालेंगी। हालांकि यह खबर भी पुरानी है लेकिन शायद फॉलोअप चल रहा होगा। इस फॉलोअप को देखकर मेरे तन-मन में आग लग गई। राखी के तथाकथित स्वयंवर को देखने वाले और दिखाने वाले पहले दिन से ही जानते थे कि ये वाहियात लड़की किसी से शादी-वादी नहीं करने वाली। अगर ये राजी हो भी जाए तो उससे ढंग के लड़के शादी नहीं करेंगे। लेकिन इस सबके बावजूद यह शो चला, इसे दर्शक भी मिले और सबसे बड़ी लेकिन दुखदायी बात कि हमारे देश के घटिया टीआरपी बटोरू और विज्ञापन जुगाड़ू न्यूज चैनल्स ने इसके बारे में जरूरत से ज्यादा दिखाया। इन न्यूज चैनलों को दर्शकों को राखी की नाभि दिखाने में ही मजा आता है। रियेलिटी शो की रियेलिटी क्या होती है इसके बारे में बताने की जरूरत नहीं। हम सब जानते हैं। इसपर मैं पहले भी लिख चुका हूँ लेकिन अब तो गुस्सा दर्शकों पर आता है। अरे अगर दर्शक किसी शो का बहिष्कार कर दें तो क्या मजाल न्यूज चैनल वाले और खुद शो दिखाने वाले एनटरटेनमेंट चैनल का कि वो उसे लेकर दर्शकों को झिलाते रहें। लेकिन हम आजकल चुप रहकर बैठना सीख गए हैं।

दोस्तों, मैंने न्यूज चैनलों के न्यूज रूम की बात की है। तो उन न्यूज रूम का बस नाम ही न्यूज रूम रह गया है। दरअसल वो तो सब 'न्यूड रूम' हैं। अश्लील कार्यक्रम दिखाएँगे (मसलन बालीवुड), नहीं तो हँसी के कार्यक्रम दिखाएँगे (जिन्हें देखकर रोना आता है), नहीं तो अपराध दिखाएँगे। कोई काम की चीज नहीं दिखाएँगे। बीच में एक और रियेलिटी शो शुरू हुआ। इस जंगल से मुझे बचाओ। विदेशी रियेलिटी शो की तर्ज पर। लेकिन भारतीय संस्करण शर्मनाक था। नंगी लड़कियों को जंगल में एक वाहियात और नकली झरने के नीचे नहाते दिखाया गया इसमें। कमाल है यार, इतनी तरक्की कर ली हमने, लेकिन नकल करने की भी अकल नहीं आई। जंगलों के ऊपर जो रियेलिटी शो एएक्सएन, डिस्कवरी, नेटजियो या एनिमल प्लेनेट पर बनते हैं उसके बाल बराबर भी नहीं था ये। बस लफ्फाजी करवा लो, गालियाँ सुनवा लो, बीच-बीच में टूँ-टूँ की आवाज सुनवा लो, अरे यार दो ना गाली, क्योंकि इन सीरियलों को देखना गाली खाने से कम नहीं है। इससे हमें पता चलता है कि भारतीय मीडिया और ऐसे शो मेकर दर्शकों को मूर्ख ही समझते हैं।

राखी सावंत के फर्जी स्वयंवर के बारे में न्यूज चैनलों ने देश के सैंकड़ों अहम घंटे बर्बाद कर दिए। इस देश की 110 करोड़ की आबादी है। विकराल समस्याएँ हमारे आगे मुंह बाए खड़ी रहती हैं, लेकिन इन दो कौड़ी के न्यूज चैनलों को वो सब नहीं दिखता। उन्हें सिर्फ माँस दिखता है। हिराइनों के नितंबों के रूप में, कमर या उरोजों पर जमा हुआ या हीरो-हिरोइनों के मुखड़ों पर। बाकायदा दोपहर में तो टीवी सीरियलों के ऊपर तथा सुबह-शाम फिल्मों के ऊपर न्यूज चैनल्स मसाला कार्यक्रम दिखाते हैं। कई बार तो प्राइम टाइम का 'विशेष' भी इसी के इर्द-गिर्द घूमकर चकरघिन्नी हो जाता है। चमड़ी का यह कैसा मायाजाल कि असल मुद्दे परदे के पीछे समाते चले जा रहे हैं। आम आदमी हैरान-परेशान है लेकिन देश के कमजोर चरित्र के मीडिया को वह सब नहीं दिखता। एनटरटेनमेंट चैनल विलेन महिलाओं से लबालब सीरियल बना रहे हैं और न्यूज चैनल उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए उनके प्रोमो, प्रमोशन इवेंट और उनपर विशेष कार्यक्रम दिखा रहे हैं। यह सब बताता है कि न्यूज चैनल हमारे देश में दरअसल नॉन न्यूज हैं, फर्जी हैं, टेलेंट विहीन हैं और 24 घंटे के नाम पर सिर्फ टाइम पास कर रहे हैं। तभी तो कभी इन्हें रावण और श्रीलंका याद आ जाते हैं, तो कभी कोई उड़नतश्तरी दिख जाती हैं, कभी कोई ऐसा आदमी मिल जाता है जो मरकर फिर से जी उठा हो। दर्शकों को ऐसे चैनल्स का बहिष्कार करना चाहिए नहीं तो यह धमकी देना चाहिए कि ऐसे चैनलों पर विज्ञापन देने वाली कंपनियों के प्रोडक्ट वह नहीं खरीदेंगे, ऐसे में उन चैनलों के विज्ञापन बैठ जाएँगे और उनका भट्टा भी देर-सबेर बैठ जाएगा। इससे उनको कम से कम कुछ सबक तो मिलेगा।

रियेलिटी शो के नाम पर इतना रुपया बर्बाद करने वाले मीडिया को देश की साधारण समस्याओं और आम आदमी का शो दिखाना चाहिए जो वाकई रियल होगा और देश की रियेलिटी को सामने लाएगा। लेकिन अपने मूल फर्ज से भटके हुए न्यूज चैनलों ने आम आदमी को तो अपने पर्दे से गायब ही कर दिया है। उन्हें उनका फर्ज याद दिलाना हमारी जिम्मेदारी है नहीं तो हम दर्शक सिर्फ तरस खाने के लायक रह जाएँगे और हमें सिर्फ वही दिखलाया जाता रहेगा जो हम वाकई देखना नहीं चाहते। हमें अपने को लाचार नहीं बनाए रखना है।

आपका ही सचिन........।

August 17, 2009

शाहरुख खान की जाँच में अपमान कैसा..!!

दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है
दोस्तों, अमेरिकी हवाईअड्डे पर शाहरुख खान की थोड़ी सी कड़ी जाँच हो गई। वो तमतमा गए। अरे, आखिर वो 'भारत रत्न' जो हैं। उन्हें बुरा लग गया है कि भारत में लोग उनके दर्शन करने के लिए दीवाने रहते हैं। घंटो लाइन में खड़े रहते हैं, उन्हें फिल्मों का भगवान माना जाता है। वो कैसी भी घटिया फिल्म बनाएँ लेकिन वो हिट हो जाती है, भारत में उनके लिए हजारों खून माफ हैं तो फिर ये अमेरिका क्या बला है जो उसने उनके कपड़े उतरवा लिए। आखिर 'खान' सरनेम में ऐसी भी क्या बुराई है कि उन्हें कड़ी जाँच का सामना करना पड़ा.....????

दोस्तों, शाहरुख बहुत नाराज हैं। उनकी पोपुलरटी देखकर भारत सरकार को भी उनके समर्थन में उतरना पड़ा और अमेरिका से पूछना पड़ा कि इतने बड़े स्टार की आखिर उसने बेइज्जती क्यों कर दी? लेकिन हमारे पास उसका जवाब है। मीडिया के पास भी है लेकिन वो भी पोपुलर गेम खेलने की आदी हो गई है इसलिए शाहरुख खान की तरफ से हुई बयानबाजी को तवज्जो दे रही है। असल में शाहरुख अमेरिका की नजर में कुछ नहीं है। अरे शाहरुख की क्यों, कोई भी कुछ नही है जो उस देश के लिए खतरा हो। अमेरिका में हुए 9/11 और ब्रिटेन में भूमिगत ट्रेनों में हुए विस्फोटों के बाद उन दोनों देशों में किले जैसी सुरक्षा बढ़ा दी गई। वहाँ की जाँच प्रक्रिया को इतना कड़ा कर दिया गया कि कोई भी उसे अपना अपमान समझ सकता है। ये जाँच सभी के लिए है। इसमें अमेरिका का कसूर नहीं है। उसने विश्वास किया उन चंद नौजवानों पर। सबको समान रूप से मौके देने वाले देश में कुछ बाहरी देश के मुस्लिम युवकों ने हवाईजहाज उड़ाना सीखा, फिर कुछ बड़े हवाई जहाजों को अगवा किया और उसकी महत्वपूर्ण इमारतों में घुसेड़ दिया। अब बारी उसकी है, अविश्वास करने की, तो लोगों को बुरा लग रहा है। अब उसे मुस्लिम सरनेम के सभी लोग सस्पेक्ट नजर आते हैं लेकिन वो उसकी 'दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है' वाली नीति के तहत है। दरअसल, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिका और ब्रिटेन में मुस्लिमों और अरब देशों से आए लोगों के लिए धर्म-आधारित नियमावली तय की गई है। इसमें ऐसे यात्रियों से उनके वीजा, सामान, नागरिकता और धर्म संबंधी सवाल किए जाते हैं। ऐसे में थोड़ा संदेह होने पर भी यात्री को हिरासत में लिया जा सकता है। जबकि, भारत में ऐसे कोई नियम नहीं है। यहाँ सुरक्षा मानक लोगों के नाम और ओहदे से ज्यादा बड़े नहीं हैं। इसलिए जहाँ अमेरिका में 9/11 हादसे के बाद कोई आतंकी हमला नहीं हुआ वहीं भारत में ऐसे हमले होना रूटीन की बात हो गई है।

अमेरिका में कड़ी पूछताछ के लिए कई पैमाने बनाए गए हैं।
शारीरिक बनावट ः यदि आप मुस्लिम देशों और अरब देशों के नागरिकों की तरह दिखते हैं तो आपसे कड़ी पूछताछ निश्चित है। संदेह में सिख धर्मावलंबी दूसरे नंबर पर हैं।
नाम ः यदि आपका नाम मुस्लिम शब्दावली के अनुसार है तो सख्त पूछताछ हो सकती है। आपके टिकट पर लाल निशान लगाकर आपको अलग लाइन में खड़ा किया जाएगा जहाँ आपसे गंभीर सवाल पूछे जाएँगे।

हवाई यात्रा के दौरान होने वाली जाँच इस प्रकार रहती है ः
- हर नए नागरिक पर जीपीएस से नजर रखी जाती है।
- मुसलमान है तो जाँच सख्त करते हुए संदेह दूर करने के लिए सवाल किए जाएँगे।
- विमान में तरल पदार्थ ले जाना सख्त मना है, फिर भले ही वो दूध ही क्यों ना हो।
- दोहरे रूप में काम आ सकने वाली चीजें जैसे लाइटर, लिपिस्टक आदि प्रतिबंधित हैं।
एक्स-रे मशीन पर जूते उतारकर जाँच करवाना जरूरी है।
- करीब दो घंटे तक चलती है औसत जाँच (इतनी ही शाहरुख खान की चली थी।)
- विमान बदलते वक्त दोबारा जाँच होगी।
- लैपटॉप, कैमरे के अतिरिक्त रूमाल और पर्स की भी एक्स-रे जाँच होगी।

कौन-कौन नामचीन उलझ चुके हैं जाँच में..
जार्ज फर्नाडीज - राजग सरकार में रक्षामंत्री रहते हुए जार्ज फर्नांडीज भी जाँच झेल चुके हैं। अमेरिका के डल्स हवाईअड्डे पर उनके कपड़े भी उतरवा लिए गए थे।
एपीजे अब्दुल कलाम - कुछ माह पहले पूर्व भारतीय राष्ट्रपति श्री कलाम की अमेरिकी एयरलाइंस द्वारा ली गई तलाशी ने हाल ही में तूल पकड़ा और संसद तक में यह मामला उठा।
आमिर खान - सिर्फ मुस्लिम नाम के कारण 2002 में शिकागो हवाईअड्डे पर आमिर से करीब डेढ़ घंटे तक पूछताछ की गई। वे यहाँ अपनी फिल्म 'लगान' के प्रमोशन पर आए थे।
अजीम प्रेमजी - उद्योगपति प्रेमजी ने भी अमेरिका जाने पर हर बार सख्त जाँच किए जाने की शिकायत की है। 2002 में चार बार विमान बदलने पर उन्हें आठ घंटे जाँच में रहना पड़ा।
दक्षिण भारतीय अभिनेता ममूटी - ममूटी को अपने वास्तविक नाम मुहम्मद कुट्टी इस्माइल के कारण अमेरिकियों के सख्त सवालों का जवाब देना पड़ा था।
कमल हासन - 2002 में टोरंटो एयरपोर्ट पर सिर्फ अपने उपनाम 'हासन' के कारण उनसे पूछताछ की गई। तब अमेरिकी उच्चायोग के हस्तक्षेप पर इन्हें जाने दिया गया।

हालांकि इस मामले में भारतीय अभिनेता सलमान खान का कल दिया बयान गौरतलब है। उनका कहना है कि अमेरिका के कड़े प्रावधान ही हैं कि वहाँ 9/11 के बाद अब तक कोई आतंकवादी हमला नहीं हो पाया है। शाहरुख के मसले को हमें ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए....लेकिन उनकी तरह से हरेक मुसलमान इसे नहीं सोचेगा और ऐसी जाँचों को अपना अपमान ही मानेगा। दूसरी ओर शाहरुख को भी यह समझ जाना चाहिए कि जब भारतीय रक्षामंत्री को अमेरिकी जाँच अधिकारियों ने नहीं छोड़ा तो वो किस चिड़िया का नाम हैं।

अब लिजलिजे देश भारत के हाल देखिए...तमाम आतंकी हमलों के बाद हम हैं कि सुधरते ही नहीं हैं, हमारे यहाँ सुरक्षा के यह हाल हैं..

- किसी यात्री से धर्म या नस्लीयता के नाम पर कोई सवाल नहीं किया जाता।
- किस आकार के बैग ले जाएँ, यह मानक अभी तय नहीं है।
- जाँच में सिर्फ तीस मिनट लगते हैं।
- नवीनतम एक्स-रे मशीन उपलब्ध नहीं है।
- विदेशी यात्रियों पर लगातार नजर बनाए रखने की कोई नई प्रणाली अब तक विकसित नहीं की गई है।
- 'विशेष' व्यक्तियों को सुरक्षा जाँच में छूट मिलती है।

(नोटः उक्त सभी आँकड़े अखबारों से जुटाए गए हैं)

दोस्तों, अमेरिका जानता है कि उसके पास कोई चारा नहीं है। तालीबान, अल कायदा सरीखे सैंकड़ों कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन उसके पीछे लगे हैं। ये संगठन किसी को भी धार्मिक रूप से बरगलाकर कुछ भी करवा सकते हैं। ऐसे में अगर वो अविश्वास नहीं करेगा तो उसकी पीठ में सैंकड़ों खंजर घोंपे जाएँगे। यह बात उसे बर्दाश्त नहीं। वो भारत नहीं है कि बार-बार पिट-पिट कर भी यही कहता रहे कि देख लेंगे, छोड़ेंगे नहीं, अबकी बार सहन नहीं करेंगे। अरे भाई, करके दिखाना पड़ता है। शब्दों के वीरों ने कभी इतिहास नहीं बनाया, कर्मवीर और तलवारों के वीरों ने बनाया है। उसके लिए शाहरुख खान की कोई औकात नहीं है। वहाँ की सरकार को अपना देश प्यारा है क्योंकि वो जानती है कि सतर्कता और अपराधियों के खिलाफ क्रूरता ही उनका एकमात्र इलाज है। हमें अभी यह सब सीखना है।

आपका ही सचिन....।

August 14, 2009

क्या मुझे हिन्दू की औलाद समझा है..??


पाकिस्तान की जनता सिर्फ नफरत केन्द्रित है
क्या मुझे हिन्दू की औलाद समझा है जो मैं तुझसे डर जाऊँगा। क्या मैं तुझे डरपोक लगता हूँ, क्या मेरी शक्ल हिन्दू जैसी है जो मुझे धमका रहा है......

दोस्तों, ये दो लाइनें कुछ अचंभित करने वाली हैं। लेकिन ये मैंने कुछ दिन पहले ही सुनीं। यह मुझसे किसी ने नहीं कहा। कहता तो मैं उसे निश्चित ही जूतों से मारता और बस चलता तो गोली भी मार देता। लेकिन जिस व्यक्ति ने यह सब सुना, पूरे 45 बरस तक सुना वो मुझे कुछ दिन पहले मिल गया। असल में एक सज्जन कुछ दिन पहले ही मेरे मित्र बने हैं। मैं उनके नाम का यहाँ उल्लेख नहीं करना चाहता। वो एक डॉक्टर हैं। लेकिन वो हैं पाकिस्तानी, जाहिर है वे हिन्दू हैं। लेकिन उनका जन्म पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हुआ। उनके चार बड़े भाई हैं। वो सभी एक-एक करके भारत सैटेल हो चुके हैं। आठ महीने पहले वो भी भारत में सैटेल हो गए। जब मेरी उनसे मित्रता हुई तो मैंने उनसे पाकिस्तान, वहाँ के समाज, वहाँ की व्यवस्था, अमेरिका का प्रभाव, अमेरिकी सेना का जमावड़ा वगैरह संबंधी विषयों पर घंटो बात की। कई रोचक बातें निकलकर सामने आईं। उनमें से सबसे ज्यादा रोचक यही है कि उन्होंने इतने भयानक वातावरण और समाजिक व्यवस्थाओं में अपने जीवन के 45 साल निकाल दिए। मैंने उनकी दाद दी और कहा कि ठीक ही किया जो वो यहाँ आ गए। लेकिन यह बात सुनकर उनका मन खट्टा हो गया। उन्होंने कहा कि वे तो अपने को डरपोक ही मानते हैं जो वहाँ स्ट्रगल नहीं कर पाए और हिन्दुस्तान आ गए। वहीं जमे रहना था। लेकिन परिवार बहुत डरा हुआ था इसलिए पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। सारा सामान समेटा और भारत आ गए। वे इससे पहले भारत सिर्फ कुछ ही बार आए थे। अपने भाईयों के पास, लेकिन यहाँ आकर भी अब वे खुश नहीं हैं। उनके अनुसार पाकिस्तान में सिर्फ 15 लाख हिन्दू हैं, लेकिन वहाँ उनकी भयंकर दुर्गति है। उनको पल-पल घुट-घुट कर जीना पड़ता है। अगर किसी बस में या चौराहे पर, या पान की दुकान पर दो मुस्लिमों की आपस में लड़ाई हो जाए तो वे इन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं.....क्या मुझे हिन्दू की औलाद समझा है जो मैं तुझसे डर जाऊँगा। क्या मैं तुझे डरपोक लगता हूँ, क्या मेरी शक्ल हिन्दू जैसी है जो मुझे धमका रहा है......

उनके घर में डकैती पड़ी। हिन्दू वहाँ लूट लिए जाते हैं लेकिन पुलिस उनकी रिपोर्ट तक नहीं लिखती। अल्पसंख्यकों के नाम पर भारत में मुस्लिमों को जितनी सुविधाएँ प्राप्त हैं उसकी एक फीसदी भी हिन्दूओं को पाकिस्तान में प्राप्त नहीं हैं। डॉक्टर साहब जो पाकिस्तान के साथ ही ब्रिटेन से भी पढ़े हैं, बताते हैं कि वहाँ पार्टिशन (बँटवारे) के समय की हिन्दूओं की कोठियाँ, बड़े-बड़े बंगले खाली पड़े हैं। बस्ती वाले उनमें अपने भेड़, बकरियाँ बाँधते हैं या खुद रहते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों का नाम भगवानदास बिल्डिंग, राधे-श्याम कॉम्प्लेक्स लिखा हुआ है। सब धीरे-धीरे खंडहर होती जा रही हैं। मंदिर तो सभी समाप्त होते जा रहे हैं, नया मंदिर बनने नहीं दिया जाता। वहाँ से हमारा इतिहास मिट रहा है। हिन्दू लड़कियाँ जबरन भगा ली जाती हैं, उनसे मुस्लिम युवक जबरदस्ती शादी कर लेते हैं, लेकिन वहाँ का समाज ऐसे युवकों का स्वागत करता है, उनके खुद भी दो बेटियाँ हैं इसलिए उन्होंने भविष्य की सोचकर पाकिस्तान को त्याग दिया। यहाँ आकर उनका कहना है कि ये पूरा हिन्दोस्तान तो नहीं लगता। यहाँ सभी धर्म के लोगों को बहुत छूट है भाई। ऐसा हरेक देश नहीं कर सकता।

दोस्तों, उनसे मेरी काफी बातें हुई थीं, जैसे-जैसे याद आती जाएँगी मैं आप लोगों को बताता रहूँगा लेकिन जो बातें मुझे अमेरिकी केन्द्रित लगीं वो रोचक हैं। वो महादेश दूर बैठे भी गिद्ध की निगाह से अपने दुश्मनों को देख रहा है, समझ रहा है और उन्हें मार रहा है।
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दोस्तों, कल की पोस्ट में मैंने आपको अमेरिका के कदम के बारे में बताया था जो उसने पिछले आठ साल में उठाए। वो मुस्लिम आबादी को कंट्रोल करने की कोशिश में लगा है। उसका शोध जारी है। मजे की बात है कि यह बात कई पाकिस्तानियों को भी पता है और वो उसके शोध में शामिल भी रहते हैं, सिर्फ पैसे की खातिर।
सबसे पहले बात अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की। बराक के पिता कनवरटेड मुस्लिम थे। यह सभी जानते हैं। बराक का पूरा नाम भी बराक हुसैन ओबामा है। लेकिन अमेरिकी जनता और वहाँ के थिंक टैंक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अमेरिका जनता या अमेरिकी थिंकटैंक को जिस दिन यह लग गया कि ओबामा इस्लाम या अश्वेतों का पक्ष ले रहे हैं तो समझो वो गए, अपने आप किनारे कर दिए जाएँगे। क्योंकि इतिहास गवाह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति तो बदल सकता है लेकिन अमेरिकी नीतियाँ नहीं, इसी रौ में बहते हुए बराक ने ईरान के सामने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। मैंने सोचा ये राष्ट्रपति इतना लिबरल कैसे है..?? क्या अमेरिकी प्रशासन यह सब नहीं देख रहा। लेकिन पता चला कि पाकिस्तान में शिया आबादी मात्र 15 फीसदी है। बाकी 85 फीसदी लोग सुन्नी हैं। आपसी झगड़ों में शिया सबसे अधिक मारे जाते हैं।

पाकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान और ईरान से लगती हैं। अफगानिस्तान पर अमेरिका का कब्जा है। ईराक पर भी अमेरिकी कब्जा है। दोनों देशों की सीमाएँ ईरान से मिलती हैं। ऐसे में अमेरिका इस बात पर जोर देगा कि मैंने तुम्हें (ईरान) को घेर तो रखा ही है, इसलिए हमारे से झगड़ा छोड़ो और पाकिस्तान को देखो जो तुम्हारे भाईयों को मार रहा है। उल्लेखनीय है कि ईरान दुनिया का एकमात्र शिया देश है। पाकिस्तान सुन्नी देश है। और सिर्फ इसी कारण ईराक और ईरान भी आपस में 8 साल तक लड़ते रहे थे। शिया-सुन्नी आधार पर। अमेरिका ने शियाओं का एक कारण से और दिल जीता है, उसने ईराक की सत्ता ली तो सुन्नियों के हाथों से (सद्दाम हुसैन सुन्नी था) लेकिन थमा दी शियाओं के हाथों में, भले ही ईराक का वर्तमान प्रशासन अमेरिका के हाथों की कठपुतली हो लेकिन वो है तो शिया ही। अगर यह बात अमेरिका ईरान को समझाने में कामयाब रहा तो वो ईरान और पाकिस्तान को आपस में लड़ाने में कामयाब हो सकता है ( विदित हो कि ईरान-ईरान का युद्ध भी अमेरिका ने ही शुरू कराया था और तब उसने सद्दाम का साथ दिया था और बाद में उसे मार भी दिया), इसके ईनाम में वो ईरान को यह आश्वासन दे सकता है कि वो इजराइल की ओर से टेंशन छोड़ दे, उसे वो संभाल लेगा। क्योंकि इजराइल पहले से ही कई मोर्चों पर व्यस्त रहता है।

दोस्तों, सिर्फ इतनी ही नहीं है अमेरिकी प्लानिंग। अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान की अवाम उससे भयंकर नफरत करती है। इसलिए वो अंदर से उसे घुन की तरह खा रहा है। जिस दिन अमेरिका पाकिस्तान के ऊपर से अपना हाथ हटा लेगा उस दिन वहाँ सिविल वार या कहें अराजकता की स्थिति आ जाएगी। फिलहाल अमेरिका ने पाकिस्तान पर इतना प्रेशर बना रखा है कि उसकी सेना अपने भाईयों को ही मार रही है। पाकिस्तानी सेना में ऐसे-ऐसे सैनिक हैं जिनकी सीने तक की दाढ़ी है। वो पाँचों टाइम नमाज पढ़ते हैं और संसार के हर मुसलमान को अपना भाई मानते हैं, बावजूद इसके उन्हें अपने भाईयों को मारना पड़ रहा है। बहुत मजबूरी में है पाकिस्तानी सेना। दूसरी बात, कि अमेरिका की दुनिया भर के मुस्लिम देशों में रिसर्च चल रही है। ये हैल्थ डवलपमेंट या टीकाकरण के नाम पर है। ये शोध वो मुस्लिम देशों की द्रुत गति से बढ़ती हुई जनसंख्या पर कर रहा है। वो लोग चौबीसों घंटे लगे हुए हैं इसका निष्कर्ष निकालने में। मोरक्को से लेकर पाकिस्तान तक में उसका अध्ययन चल रहा है। वो जानना चाहता है उस नफरत को, जो इन देशों के मन और मानस में भरी हुई है। वो इस्लाम धर्म की इंजीनियरिंग भी समझ रहा है जिसमें अन्य किसी को भी मंजूर नहीं किया जाता। आने वाले समय में हमें उसके कदमों से इस शोध के परिणामों को समझने में मदद मिलेगी। हमें उससे सीख लेनी चाहिए क्योंकि वो कई दशकों और शताब्दियों आगे की प्लानिंग करके चल रहा है। हम वर्तमान में जीते हैं और वो भविष्य में, वो यूँ ही संसार की एकमात्र महाशक्ति नहीं है।

आपका ही सचिन......।

August 13, 2009

भारत को तोड़ना आखिर क्यों आसान है?


देश की विविधता ही हमारी दुश्मन बन रही है
दोस्तों, एक चीनी उल्लू के पट्ठे सामरिक रणनीतिकार ने कुछ दिन पहले अपनी अक्ल चला दी। उसके अनुसार भारत धर्म के आधार पर बहुत बँटा हुआ है। कई अन्य तरह से भी वहाँ भेदभाव है। इस सबका फायदा उठाते हुए चीन को अपने मित्र राष्ट्र पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान की मदद से भारतीय संघ को 20-30 टुकड़ों में तोड़ देना चाहिए। झान लुई नामक इस गधे रणनीतिकार के अनुसार चीन को असमी, तमिल और कश्मीरी जैसी विभिन्न राष्ट्रीयताओं के साथ एकजुट होना चाहिए और उनके स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना में सहयोग देना चाहिए। लेख में विशेष रूप से भारत से असम की स्वतंत्रता हासिल करने के लिए चीन को यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) का सहयोग करने को कहा गया है।

तो दोस्तों, यह बात मैंने आपको कोई नई नहीं बताई क्योंकि मीडिया में सबदूर यह मुद्दा आ चुका है। लेकिन उस खबर को पढ़ने के बाद कुछ बातों पर मैंने चिंतन जरूर किया। मैंने सोचा कि चीन जो सोच रहा है वो गलत नहीं है। वो जानता है कि भारत रीएक्शन देने में देरी करता है। या कहें कि रिएक्शन करता ही नहीं है। अंदर से खोखले या कहें कमजोर हो गए हैं हम। क्यों, उदाहरण के लिए चीन को ही देखिए, वो मुसलमानों को अपना दोस्त बताता है। मुस्लिम राष्ट्रों के पक्ष में खड़ा रहता है लेकिन उसके दूरस्थ पश्चिमी क्षेत्र जिनजियांग में उइगर मुस्लिमों ने जरा हल्ला मचा दिया और 15 चीनियों को क्या मार दिया, चीन ने सैंकड़ों उइगर मुसलमान मार दिए, और उस रिएक्शन को कंट्रोल करने के लिए 50 हजार सैनिकों की बटालियन उस क्षेत्र में तैनात कर दी। मजेदार बात यह है कि संसार भर के मुसलमानों को अपना भाई बताने वाले पाकिस्तान ने चीन के इस कदम का समर्थन किया और उसकी हर बात में हाँ में हाँ मिलाई। यह सब चीन के प्रेशर का कमाल है। यह ठीक उसी तरह है कि पाकिस्तान ने तालीबान खड़ा किया, आतंकवादी पैदा किए लेकिन जब अमेरिका का प्रेशर पड़ा तो उन्हीं आतंकियों और तालीबानियों को अब चुन-चुनकर मार रहा है और बैतुल्लाह मसूद के मरने की सगर्व पुष्टि कर रहा है।

बाद चूँकी अमेरिका की निकली तो उसके संबंध में सिर्फ इतना ही कि तालीबान या कहें ओसामा के अल कायदा ने उसकी दो बड़ी इमारतें गिरा दीं जिसमें 3500 अमेरिकी मारे गए। अमेरिका महाशक्ति है इसलिए उसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन उसने सोच रखा था कि इस बड़े नुकसान की भरपाई भी वह बड़े तरीके से ही करेगा। आज वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों को गिरे आठ साल हो गए हैं। इस बीच अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान और फिर इराक पर कब्जा किया। कुल मिलाकर 15 लाख मुसलमान मारे जा चुके हैं (ये अफगानिस्तानी और इराकी नागरिक हैं, धर्म का उल्लेख इसलिए किया क्योंकि इस्लामिक दुनिया इसे इस्लाम और ईसाइयों का झगड़ा मानकर ही देख रही है)। अमेरिका ने एक दूसरा काम भी किया, उसने इन दोनों देशों पर कब्जा करके इन क्षेत्र विशेषों पर नजर रखने के लिए जमीन तलाश ली। उसे चीन से खतरा है इसलिए वो अफगानिस्तान (ठीक चीन के बगल में) में आकर बैठ गया। इरान से खतरा है इसलिए इराक में जाकर बैठ गया, उत्तरी कोरिया से खतरा है इसलिए वो ताइवान और जापान में भी जमा बैठा है। जो लोग पाकिस्तान गए हैं उन्हें पता है कि वहाँ दीवारों पर लिखा रहता है कि रूस के बाद अमेरिका और फिर हिन्दोस्तान की बारी। मतलब पाकिस्तानियों को लगता है कि उन्होंने अफगानिस्तान से रूस को अपने बलबूते खदेड़ दिया था (हालांकि उसके पीछे भी अमेरिका ही था), अब वे अमेरिका को खदेड़ देंगे और फिर भारत का सत्यानाश कर देंगे। उनकी अक्ल के अनुसार इस्लाम से टकराने वाला हरेक व्यक्ति या राष्ट्र एक ना एक दिन नेस्तानाबूद होना ही है।

दोस्तों, आप लोग यह मत समझना कि मैं विषय से भटक गया हूँ। मैं सिर्फ यह बताना चाह रहा हूँ कि अगर किसी देश (महाशक्ति, और भारत भी अपने को महाशक्ति कहता है इसलिए जिक्र कर रहा हूँ) को जरा सा नुकसान होता है तो वो उसकी भरपाई किस हद तक जाकर करता है लेकिन हमारे पास सैंकड़ों उदाहरण हैं जब हम पिटकर चुपचाप आकर अपनी माँद में बैठ जाते हैं। नेशनल जियोग्राफिक के 'जेल्ड एब्राड' सीरियल में बताया गया कि विदेशियों को अगवा करने वाले सईद नामक एक युवक ने रोहित शर्मा नाम रखकर किस तरह से विदेशियों को अगवा किया, भारत को बदनाम किया और पकड़े जाने के बाद वो जेल में जब आराम फरमा रहा था उसी दौरान अफगानिस्तान ले जाए गए हमारे अपह्रत विमान के बदले उसे भी छुड़ा लिया गया। वो उन तीनों आतंकवादियों में शामिल था जिन्हें छोड़ा गया था। हम जिन्हें पकड़ लेते हैं (अफजल और कसाब टाइप आतंकी) उन्हें ही जब हम सजा नहीं दे पाते तो चीन, इजराइल या अमेरिका जैसी बढ़-चढ़कर कार्रवाई कैसे कर पाएँगे। वो देश ऐसा कर लेते हैं इसलिए उनकी दुनिया में इज्जत है। शक्तिशाली की ही दुनिया में इज्जत होती है। शांति, प्रेम और भाईचारे की बात कमजोर लोग करते हैं। हम कैसी महाशक्ति हैं कि हमारे पड़ोस का रणनीतिकार हमें 20-30 टुकुड़ों में आसानी से तोड़ने की बात कर रहा है। दरअसल वो जानता है कि हममें इच्छाशक्ति की कमी है जिसका फायदा हमारा दुश्मन चीन उठा सकता है।

अंत में चलते-चलते...
कि दोस्तों, अमेरिका को यह समझ आ गया है कि इस्लाम अपनी आबादी बढ़ाकर दुनिया पर कब्जा करना चाहता है, अब वह उनकी जनसंख्या वृद्धि को कंट्रोल करने के उपायों में लग गया है। वो उपाय क्या हैं वो अगली पोस्ट में, लेकिन उसने यह भी जान लिया है कि पाकिस्तान या अरब देश शक्ति व रुपयों से डरते हैं। अरब राष्ट्रों को उसने शक्ति से दबा रखा है तो पाकिस्तान को रुपए के बलबूते। वहाँ वो अरबों डॉलर देता है। अगर आज वो पाकिस्तान से हाथ हटा ले तो वो भरभरा कर गिर पड़ेगा। इसी बलबूते वो भाईयों को भाईयों (मुस्लिम) से ही मरवा रहा है। यही बात चीन ने भारत के लिए भी सोची है। लेकिन हमें उस चुंदे (छोटी आँखों वाले) देश को बताना होगा कि हम पाकिस्तान सरीखे कमजोर या लालची नहीं जो आपस में लड़ मरेंगे, लेकिन यह हमें नहीं, हमारी देश की सरकार और सेना को दिखाना होगा....हमें फुफकारना सीखना होगा, विषैला नाग बनना होगा, तभी हमपर क्षमा शोभेगी...दिनकर जी ने सच ही कहा है..
क्षमा शोभती उस भुगंज को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो।

आपका ही सचिन...।

August 11, 2009

इमरान हाशमी और कसाब की वाजिब माँगें!


वक्त पड़ने पर इन्हें याद आ जाता है कि ये मुसलमान हैं
दोस्तों, पिछले कुछ समय से आप लोगों से दूरी बनी हुई है इसके लिए माफी। कई मुद्दे दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे हैं लेकिन व्यस्तता की वजह से बाहर नहीं आ पाए...परंतु ये मुद्दा थोड़ा सा लेटेस्ट है। इसलिए 'मत चूके चौहान' की तर्ज पर सोचा कि फटाफट कुछ लिख डालूँ।

दोस्तों, कल ही एक खबर पढ़ी कि बालीवुड के छिछोरे हीरो इमरान हाशमी ने कहा है कि मुंबई की निब्बाना सोसायटी से उसका कोई विवाद नहीं है। उसने अपने लगाए आरोप वापस ले लिए हैं। आरोप के अनुसार इमरान हाशमी ने झोंक में कह दिया था कि सोसायटी मुंबई में उसे इसलिए एक फ्लैट देना नहीं चाह रही है क्योंकि वह एक मुसलमान है। ह..ममम..मम...कुछ-कुछ समझ आया था मुझे...

सच बताऊं तो यह तो मुझे उस दिन ही पता चला था कि इमरान हाशमी एक मुसलमान है। इस मुसलमान लड़के को मैं पिछले 5 साल से देख रहा हूँ, तब से जब से इसकी मर्डर फिल्म रीलीज हुई थी। इसके बाद यह लगभग सभी फिल्मों में लुच्चा बना, क्योंकि इसे एक्टिंग आती नहीं है। इसने बहुत सी हिरोइनों की चूमा-चाटी की (अपने मामा महेश भट्ट की शह पर और उसी की फिल्मों में), वो सभी लड़कियाँ हिन्दू थीं (उसी की भाषा में) और उनमें से कई विश्व सौंदर्य प्रतियोगिताओं की विनर भी थीं। उन लड़कियों ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि वो किसिंग सीन एक मुसलमान के साथ कर रही हैं। इमरान नाम थोड़ा कंफ्यूजिंग इसलिए लगा क्योंकि शाहिद कपूर का नाम भी मुस्लिम है लेकिन वो हैं हिन्दू...और दूसरा वो गंजा फिल्म निर्देशक महेश भट्ट इस इमरान हाशमी को अपना भांजा बताता रहता है इसलिए भी हमें लगता था कि वो हिन्दू हो। लेकिन अचानक एक दिन हाशमी ने बच्चों की तरह चिल्ला कर कह दिया कि अरे वो तो मुसलमान है इसलिए उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है।

मैं अमूमन ऐसे मौकों पर अचंभित रह जाता हूँ। मैं तब भी अंचभित रह गया था जब अमूमन नंगे बदन रहने वाला और अंडरवियर पहनी लड़कियों के साथ डांस करते रहने वाला सलमान खान भी काले हिरण के शिकार के समय जेल जाने के बाद अचानक मुसलमान हो गया था। (????) सलमान तब जेल में मुस्लिम गोल टोपी पहनने लगा था और बोलने लगा था कि वो अल्पसंख्यक वर्ग से है इसलिए उसके साथ ये भेदभाव हो रहा है। गजब है भाई, उस पर से तुर्रा ये कि इन दोनों मुस्लिम हीरो की माताएँ हिन्दू हैं और आज तक इनके साथ कभी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया। जब सलमान जेल के बाहर आया तो उसने वो मुस्लिम टोपी अपने सिर पर से निकाल फैंकी, और अब वो पक्के तौर से अपने धर्म का पालन कर रहा है। अब सलमान अपने टीवी शो 'दस के दम' में मल्लिका शेरावत से पूछता है कि कितने प्रतिशत भारतीय स्वीमिंग पूल में तैरते समय सू..सू कर लेते हैं। वो मल्लिका से भी यह पूछ लेता है कि क्या कभी उसने स्वीमिंग पूल में तैरते समय सू..सू की है। (वाह जैसे इन दस के दम वालों ने 110 करोड़ भारतीयों से पूछ ही लिया हो कि वो क्या वाकई में स्वीमिंग पूल में सू..सू कर लेते हैं...फर्जी सीरियल है)

तो कुल मिलाकल मैं बता रहा था कि अब सलमान भूल चुका है कि वो अल्पसंख्यक वर्ग से है, ये बात अब उसे तभी याद आएगी जब वो फिर से जेल जाएगा या किसी मुसीबत में फँसेगा। संजय दत्त का उदाहरण भी मुझे याद आता है। वो टाडा में जब जेल में बंद था तो अचानक ही उसे अपनी माँ का धर्म (इस्लाम) याद आ गया था। वो वहाँ वही गोल मुस्लिम टोपी पहनकर रहता था, पाँचों समय की नमाज पढ़ता था और हमें यह बताने की कोशिश करता था कि उसकी माँ मुसलमान थी इसलिए उसे जेल में बंद कर दिया गया..।

मुझे अमूमन इस टुच्ची सोच पर गुस्सा आता था लेकिन अब हँसी आती है। देश के मुसलमानों की सोच मैं जानता हूँ और यह भी कि वो किसी को अपनी टोपी पहने देखकर ही उसे अपने जैसा मान लेते हैं , फिर भले ही भेड़ की खाल में भेड़िया ही क्यों ना हो। उनकी इस एकतरफा सोच का ही लाभ लेने के लिए ये फिल्मी सितारे या अन्य तथाकथित ओकेजनल मुसलमान ऐसी बात कर जाते हैं।

अंत में यह दोस्तों, कि कसाब को पालते हुए हमें जल्दी ही एक साल हो जाएगा। वह जेल में सभी सुविधाएँ माँग रहा है, वह राखी भी बँधवाना चाहता था, अब रोजा रखना चाहता है, अदालत उसे जल्दी ही यह सुविधा प्रदान करेगी। कसाब ने कहा है कि उसे रोजे का कार्यक्रम मुहैया कराया जाए। अगर अदालत ने यह नहीं किया तो कसाब कह देगा कि वो अल्पसंख्यक वर्ग से है इसलिए उसके साथ ज्यादती की जा रही है। उसके इस आरोप से देश भर के मुस्लिम भाई खफा हो जाएँगे, इसलिए वो यह ब्रह्मास्त्र चलाए इसे पहले ही हमें उसकी सारी बातें मान लेनी चाहिए...जय हिंद।

आपका ही सचिन...।