March 14, 2009

प्यासी रह जाएगी मानव जाति!

- 2032 : आधी दुनिया रह जाएगी प्यासी - यह शताब्दी खतरे की घंटी - फिलहाल कोई उपाय नहीं


सचिन शर्मा
दुनिया में पानी की मात्रा सीमित है। हालाँकि हमें हमेशा से यही सुनने को मिलता रहा है कि पानी असीमित है। संसार में पानी की बहुतायत है और इसलिए मानव जाति ने पानी का हमेशा दुरुपयोग ही किया। लेकिन यह बात गलत साबित हो गई और 20वीं शताब्दी के अंत तक
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हमें पता चल गया कि पीने योग्य मीठा पानी बहुत ही सीमित है और इसी सीमित पानी से संसार में रहने वाली सभी प्रजातियों (मानव समेत) को गुजारा करना होगा। वैज्ञानिकों के अनुसार अगले दो दशकों में पानी की कमी के कारण हमें जो कुछ भुगतना पड़ सकता है, उसकी फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा सकती।


पृथ्वी का नक्शा देखने पर हमें लगता है कि वह सब तरफ से नीली ही नीली है। संसार का 75 प्रतिशत भाग पानी है। यहाँ सागर हैं। महासागर हैं। बड़ी-बड़ी खाड़ियाँ हैं, लेकिन यह हमारे किसी काम के नहीं हैं। यह सब 'नमकीन' हैं। हम इन्हें पीने के उपयोग में नहीं ले सकते, इनसे खेती नहीं कर सकते।

हाँ, यह अलग बात है कि ये पानी के अथाह भंडार विश्व के वायुमंडल, तापमान और मौसम को नियंत्रित करने में महती भूमिका निभाते हैं लेकिन हमारे जिंदा रहने के लिए जरूरी पीने का पानी इन स्रोतों से नहीं मिल सकता। बात सिर्फ पीने योग्य पानी की करें तो विश्व के कुल भू-भाग में हिलोरे ले रहा 75 प्रतिशत भाग यानी पानी का सिर्फ 2.5 प्रतिशत ही 'मीठा पानी' है। इस ढाई प्रतिशत मीठे पानी का भी 75 प्रतिशत भाग 'ग्लेशियर' और 'आइसकैप्स' के रूप में संरक्षित है।

ये ग्लेशियर और आइसकैप्स दुनिया में दुर्गम जगहों पर स्थित हैं और हर किसी की वहाँ तक पहुँच संभव नहीं। इतना ही नहीं 'ग्लोबल वार्मिंग' के चलते इन बर्फीले पानी के स्रोतों पर भी नजर लग रही हैं और ये पिघल रहे हैं। इनके पिघलने से मीठा पानी कई जगह नमकीन समुद्री पानी से मिलकर बेकार हो जाता है। आर्कटिक और अंटार्कटिक से पिघलकर बह रहा मीठा पानी इसका उदाहरण हैं।

सिर्फ उस पानी की बात करें जो मनुष्य के लिए उपलब्ध है तो वो धरती के कुल पानी का मात्र 0.08 प्रतिशत ही है। मीठे पानी का सिर्फ 0.3 प्रतिशत ही नदियों और तालाबों जैसे स्रोतों में मिलता है। बाकी जमीन के अंदर भू-जल के रूप में संरक्षित है। लेकिन अब भूजल पर भी लोग डाका डालने लगे हैं और इसका बेतरतीब उपयोग सब जगह हो रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अभी संसार में मानव जितना पानी इस्तेमाल कर रहा है अगले दो दशकों में यह और अधिक बढ़ेगा। यह इस्तेमाल वर्तमान के मुकाबले 40 प्रतिशत अधिक तक जा सकता है। विषय विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इन बातों से अत्याधिक चिंतित हैं और मानते हैं कि यह शताब्दी मानव सभ्यता के लिए पिछली शताब्दियों जितनी आसान साबित होने वाली नहीं है।

वैज्ञानिक मीठे पानी के सबसे प्रमुख स्रोत 'बारिश के पानी' को संचित करने पर जोर दे रहे हैं। जिन जगहों से नदियाँ बह रही हैं, वैज्ञानिक उन जगहों के लोगों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि वो इस अथाह जल राशि को अपनी आँखों के सामने से यूँ ही बह नहीं जाने दें और उसे संचित करने के यत्न करें। वैज्ञानिकों के अनुसार इस शताब्दी में ग्लोबल वार्मिंग के बाद पानी के संग्रहण की समस्या ही सबसे प्रमुख साबित होने वाली है।

खेती कहाँ से होगी : मीठे पानी का सबसे अधिक उपयोग खेती में होता है। मानव द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले पानी का 70 प्रतिशत सिर्फ खेती के लिए होता है। 'वर्ल्ड वाटर काउंसिल' के अनुसार 2020 तक खेती के लिए उपयोग होने वाली पानी में 17 प्रतिशत का इजाफा होगा। अगर यह नहीं हुआ तो विश्व का पेट भरने में मुश्किल आ जाएगी।

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इस बात को सोचकर ही रूह काँप जाती है कि अगर खेती के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिला तो विश्व की एक बड़ी आबादी को रोजाना भूखे पेट सोना पड़ेगा। और इनमें से भी कई प्यासे रह जाएँगे। अफ्रीका में तो प्रतिदिन 50 हजार बच्चे पाँच साल का होने से पूर्व ही काल के गाल में समा जाते हैं और इसकी वजह सिर्फ 'भूख' होती है।

एशिया पर सबसे अधिक संकट : दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी को अपने में समाहित करने वाला एशिया महाद्वीप जल संकट का सबसे अधिक सामना कर रहा है। इस महाद्वीप में भी दक्षिण एशिया की हालत सबसे अधिक खराब है, जहाँ की 90 प्रतिशत आबादी जल संकट का सामना कर रही है।

लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है कि विकसित देश और योरप तथा अमेरिका जैसे महाद्वीप जल संकट से अछूते हैं। यहाँ भी हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं। 'ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक' (जीयो-3) की रिपोर्ट के अनुसार 2032 तक संसार की आधी से अधिक आबादी भीषण जल संकट की चपेट में आ जाएगी।

भू-जल का उपयोग सौम्य चोरी : वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के गर्भ में सुरक्षित भू-जल को 'रिर्जव वॉटर' कहा है। लेकिन भारत में जहाँ-तहाँ बोरिंग करवाकर इसका उपयोग शुरू कर लिया जाता है। ऐसा विश्व के कई अन्य देशों में भी किया जाता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को प्रकृति के बैंक से की जा रही चोरी की संज्ञा देते हैं क्योंकि इस अमूल्य पानी के उपयोग के बदले कुछ भी चुकाया नहीं जाता। वहीं भारत के जल प्रबंधन विशेषज्ञ अनुपम मिश्र इसे पानी की 'सौम्य चोरी' की संज्ञा देते हैं।

1 comment:

संगीता पुरी said...

बहुत ज्ञानवर्द्धक आलेख है ... काफी विश्‍लेषण कर लिखा है।