दुनिया से रंगभेद कभी समाप्त नहीं हो सकता
मित्रों, आज का विषय मन को टीस मारने वाला है। मन को चुभने वाला है। मन तो करता है कि इन पूरे दो करोड़ आस्ट्रेलियाईयों को चुन-चुन कर जूते मारूँ। घूँसे नहीं चाँटे मारूँ (क्योंकि चाँटा खाकर आदमी घूँसे के बजाए ज्यादा बेइज्जती महसूस करता है) लेकिन जब मैं दुनिया के परिप्रेक्ष्य में इस घटना को देखता हूँ तो लगता है कि मानव की मिट्टी ही काली है। वो यह सब किए बगैर रह ही नहीं सकता। दुनिया से रंगभेद कभी समाप्त नहीं हो सकता।
मित्रों, जब आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की पिटाई, उनपर जानलेवा हमले और पुलिस द्वारा उन्हें गिरफ्तार किए जाने की खबर आई तो एक बारगी तो खून खौल उठा। लगा कि धिक्कार है हमारे देश की नपुंसक सरकार पर, जो फिर से एक बार चुप बैठी है। फिर मन को संभाला कि भाई सचिन, ज्यादा नाराज नहीं होते, जब पता है कि मुंबई में 10 आतंकी हमारे घर में घुसकर हमारी पेंट उतारकर चले गए और हम तब कुछ नहीं कर पाए तो अब क्या कर लेंगे क्योंकि इस बार तो मामला दूर देश का है, सात समुन्दर पार का है। मैंने सोचा कि मुंबई घटना के समय मैंने भारत सरकार को बहुत कोसा था। लेकिन जनता ने उस शांत और शालीन सरकार (?) को दोबारा सत्ता में आने का मौका दिया है तो इस बार मैं सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलूँगा। क्योंकि मनमोहन सिंह और सोनिया पर देश की जनता ने विश्वास जता दिया है। तो ये सरकार महान (?) साबित हो चुकी है इसलिए इस बार आपकी, हमारी, संसार की और मानव जाति की बात होगी।
दोस्तों, आस्ट्रेलिया कैसे बना और क्यों बना इसे बताने की जरूरत नहीं, ये तो ब्रिटेन वाले हर एशेज टूरनामेंट के पहले खुद ही बता देते हैं। मेरी तरफ से सिर्फ इतना ही, कि वो गुंडे और मवालियों से बना देश है और धन-संपदा आने के बाद वहाँ के लोगों का दिमाग काफी पहले खराब हो गया था। आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम का घमंडी व्यवहार यह बताने के लिए काफी है और अब इन घटनाओं से यह भी सिद्ध हो गया है कि रंगभेद की टिप्पणी करने में हम भारतीय आगे हैं या वो आस्ट्रेलियाई (मैंने हरभजन और साइमंड्स मामले में यह कहा)। खैर, आस्ट्रेलिया में यह सब जो हो रहा है इसके लिए मैं किसे दोष दूँ इस बारे में फिलहाल असमंजस में हूँ। मानव जाति है ही ऐसी, कि उसे जब भी मौका मिलता है वो अपने सामने वाले को ना सिर्फ नीचा दिखाने की कोशिश करती है बल्कि खाने को भी दौड़ती है। पूरे संसार में इसके उदाहरण हैं। रंगभेद एक शालीन शब्द है, लेकिन जातिभेद और धर्मभेद को भी मैं इसी संदर्भ में देखता हूँ द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर ने 60 लाख यहूदियों को सिर्फ इसी धर्मभेद के नाम पर मरवा दिया था। जिस अमेरिका की आज पूरे संसार में तूती बोलती है उसने अपने यहाँ के मूल निवासी करोड़ों रेड इंडियंस को मरवा-गड़वा दिया और आज उनकी संख्या घटकर 15 लाख के आस-पास पहुँच गई है। इसी प्रकार अफ्रीकी मूल के जो लोग अमेरिका में रहते हैं उनमें से एक भले ही अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया हो लेकिन आज भी वो वहाँ दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं। उन्हें आपराधिक प्रवृत्ति वाला ही माना जाता है।
ब्रिटेन ने एक समय पूरे संसार पर राज किया। आज वो भले ही एक कोने में सिमट कर रह गया हो लेकिन उसने जिस बर्बरता के साथ उसने भारत में भारतीयों को कुचला उस बारे में आप, हम और हमारी पहले की पाँच पीढ़ियाँ भी जानती हैं। दोस्तों, पूरे संसार में रंगभेद के उदाहरण बिखरे हुए हैं। दक्षिण अफ्रीका में भी इसने लंबे समय तक पाँव पसार कर रखा। आज भी यह वहाँ देखने को मिल जाता है जब आपको स्थानीय लोग गोरे लोगों के नीचे दबे हुए नजर आ जाते हैं। अब मैं बात करता हूँ हम शालीन भारतीयों की। हम सब तरफ से सिर्फ पिटते-कुटते ही नजर आते हैं। लेकिन यकीन मानिए कि भारत ने जिस प्रकार से भेद किया वैसा तो संसार में शायद कहीं हुआ ही ना हो। इंसान की प्रवृत्ति में ही भेद है। भारत की वर्णव्यवस्था ने सबसे ज्यादा सत्यानाश किया। हमने कई शताब्दियों तक दलितों को कुचला, उनकी ऐसी-तैसी कर डाली...हमारे बाप-दादाओं ने उन्हें इतना परेशान करके रखा कि वो मोहल्ले के कुएँ की तरफ भी रुख नहीं कर पाते थे। कोई छू जाए तो उसे जिंदा जला दिया जाता था। उनपर इतने जुल्म हुए कि आज वे तंग आकर मायावती जैसी नेता के पीछे खड़े हैं। अंबेडकर के कहने पर उनमें से कईयों ने हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्धधर्म को अपनाया। हम लोगों ने उन्हें बहुत तंग किया जबकि वो सब तो हमारे भाई ही थे, इसी देश के और हमारे ही रंग के....!!!!!!!!!
मित्रों, आधुनिक संसार में रंगभेद जघन्य अपराध है। लेकिन क्या हम ही आपस में रंगभेद नहीं करते....आज भी हमारे मन में गोरी चमड़ी के प्रति खौफ, प्रेम, आकर्षण और रहस्य का मिलाजुला मिश्रण नहीं है..??
हर भारतीय आज विदेश में जाकर बसना चाहता है। मेरे स्कूल के ज्यादातर सहपाठी आज विदेशों में हैं। उन्हें वहाँ जाकर फर्क होता है। विदेशों में पढ़ने जाने के लिए भी छात्र मरे जाते हैं। उनके माता-पिता कहीं से भी लाखों रुपए का कर्ज लेकर उन्हें वहाँ भेजते हैं। ये छात्र वहाँ जाकर मन लगाकर मेहनत भी करते हैं। सफल होते हैं और अपने पेशे में नाम करते हैं। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही स्थानीय लोगों को ये लगने लगता है कि ये हमारी रोटी में से हिस्सा ले रहा है उनके मन में रंगभेद जाग जाता है। रंगभेद की फिलहाल सबसे बड़ी दी जाने वाली मिसाल बराक ओबामा ने भी अपने कार्यकाल के कुछ सबसे पहले निर्णयों में से एक यह किया कि भारत को आईटी क्षेत्र में दिया जाने वाला काम बंद करवा दिया। हमारे देश के हजारों नौजवान बेघर हो गए। तो आपको क्या लगा कि बराक ओबामा या अमेरिका रंगभेद में विश्वास नहीं करता है..??
भेद तो इंसान के मन में होता है। उसका रंग फिर भले ही कुछ भी क्यों ना हो। अगर आपके पड़ौसी के पास अचानक कहीं से रुपया आ जाए तो आप देखेंगे और महसूस करेंगे कि उसने भी अचानक ही रंग बदल लिया है और आप रंगभेद के शिकार हो गए हैं। उसकी आपसे बात करनी की स्टाइल तक बदल जाएगी। वो आपको घास डालना बंद कर देगा और उसे लगने लगेगा कि बस अब उसने दुनिया जीत ली। तो रंगभेद असुरक्षा या अतिसुरक्षा दोनों ही भावनाओं से पैदा होता है। आस्ट्रेलिया में किया जाने वाला रंगभेद असुरक्षा की भावना वाला है जबकि भारत में यह अतिसुरक्षा की वजह से जन्म लेता है। संसार से रंगभेद का खत्म होना मुश्किल है दोस्तों, कभी आप तो कभी हम इसका शिकार बनते हैं या फिर दूसरे को शिकार बनाते हैं।
आपका ही सचिन.......।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
अच्छा लिखा है। यह जानकर आश्वासन होता है कि रंगभेद की समस्या विश्वव्यापी है, और केवल भारतीय ही इसकी चपेट में नहीं आते।
जब अमरीका-यूरोप से कुछ सैलानी हमारे यहां आते हैं, तो हम भी उनके साथ ऐसा ही या इससे भी बर्बरतापूर्ण व्यवहार करते हैं। गोवा में अभी एक बर्तानी लड़की का बलात्कार ही कर डाला था हमारे प्यारे लोगों ने और फिर उसे मौत के घाट उतार दिया था। दिल्ली में भी ऐसी घटनाएं आए दिन घटती रहती हैं।
पर सवाल यह उठता है कि राज ठाकरे निरीह उत्तर भारतीयों को तो मुंबई में बड़ी दिलेरी से पीट डालते हैं, पर जब देश पर बाहरी आतंकियों का हमला होता है, या हमारे देशवासियों पर विदेशों में हमला होता है तो न जाने वह कौन से बिल में दुबककर पड़ा रहता है। यदि अपने गुर्गों को आस्ट्रेलिया भेजकर इन गोरे आंतकियों की धुनाई करके उन्हें नानी याद दिला देता, तो देश उसे सलाम कर उठती। अपने वैचारिक ट्विन वरुण गांधी की भी इसमें मदद ले सकता है राज ठाकरे।
बालसुब्रमण्यम जी, आपने मेरे मुंह की बात छीन ली। सच बताऊँ तो लिखते समय राज ठाकरे मेरे दिमाग में था लेकिन बाद में निकल गया और मैं उसका उल्लेख नहीं कर पाया। असलियत तो यही है कि जब हम अपने देश के लोगों को ही एक दूसरे राज्य में बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरे देश के लोग ( और वो भी गोरें) हमें किसलिए बर्दाश्त करेंगे। हमें दूसरों के ऊपर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा। हम भी कई प्रकार के भेदों से घिरे हुए हैं।
हम भारतीय (भारतीय, हिन्दुस्तानी या इंडियन??) सबसे बड़े रेसिस्ट हैं| बकवास करने में हम सबसे आगे हैं| १९४७ में देश आजाद हुआ, सपने दिखाए नेहरु चाचा ने, जब तक पता चला कि सपना सपना ही रहेगा, तब तक देर हो चुकी थी| आज आलम ये है कि भेडचाल मची है, मैं अमेरिका रिटर्न हूँ, वाह, पुरे मोहल्ले में ढोल पीटा जाता है|
उंच नीच में तो हमारा मुकाबला ही नहीं है, खुद कमजोर को गाली देते हैं, मुंबई की सड़कों पर दौड़ा दौड़ा कर दिहाडी मजदूरों को धोते हैं| क्या मतलब मुझे, मेरे को क्या तकलीफ है| और जब कोई विदेश में हमें कमजोर जानकर धो देता है तो प्रलाप करते हैं|
मजे की बात यह है कि हमारे लड़के वहां जाना पढना बंद कर दें, तो ऑस्ट्रेलिया में त्राहिमाम हो जाए|
सचिन भाई! दुनिया में जब तक भूख, गरीबी और बेकारी रहेगी, मंदी रहेगी, लोगों को बेरोजगार करेगी। ये व्यवस्था खुद को बचाने को ये भेद पोसती रहेगी।
Post a Comment