भारत में झूठ तथा फरेब सबसे ज्यादा है
दोस्तों, आज का मुद्दा गंभीर है। आपसे और मुझसे ये सीधे ही जुड़ा हुआ है। जो दोस्त मुझे दूर देश रहकर पढ़ते हैं उनके लिए भी यह प्रासंगिक रहेगा लेकिन भारतीय साथियों के मन की कुछ बातें मैं कहूँगा। यह सही है कि इस मुद्दे पर मुझे बहुत पहले ही लिख डालना था लेकिन हर चीज की एक अति होती है और भारत में मुझे यह अति अब होती हुई दिखाई दे रही है। इसलिए मैं अपने कुछ विचार आप लोगों के समक्ष रखूँगा। जाहिर है टॉपिक आप समझ ही गए होंगे और यहाँ बात अब मंदी पर होने वाली है। वैश्विक कम और भारतीय ज्यादा...तो साथ में पढ़िए।
दोस्तों, आज अपने ही अखबार में छपने वाली एक खबर पढ़ रहा था। इसमें भारतीय रिटेल समूह के किंग किशोर बियाणी का बयान था। वे कह रहे हैं कि भारत में मंदी नहीं है, सिर्फ तेजी कम हुई है। मतलब लोगों ने खर्च करना कम कर दिया है इस वजह से मंदी दिखाई दे रही है। अब आप किशोर बियाणी के बारे में तो जानते ही होंगे। इन्होंने देश में बिग बाजार, पेंटालून और ई-जोन जैसी रिटोल चेन की स्थापना की। अब ये देश भर में सेन्ट्रल मॉल के नाम से आलीशान मॉल्स की श्रृंखला खोलने में व्यस्त हैं। काफी शानदार मॉल्स हैं ये। एक इंदौर में भी खुला है। सबसे बड़ी पहचान कि बियाणी साहब अरबपति ग्रुप, फ्यूचर ग्रुप के सीईओ हैं। तो दोस्तों, मैंने फिलहाल बियाणी जी के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई है लेकिन मेरा खुद का भी यही मानना है कि देश में कोई मंदी नहीं है और जो लोग अपने कर्मचारियों के वेतन में इस मंदी के नाम पर कटौती कर रहे हैं या उन्हें नौकरी से निकाल रहे हैं ऐसी सभी लोग और कंपनियाँ धूर्त हैं।
मित्रों, भारत के संदर्भ में मंदी को समझना चाहिए। जिस आईटी सेक्टर में मंदी की सबसे बड़ी मार हुई उसका भारतीय जीडीपी में मात्र 5 प्रतिशत का हिस्सा है। 20 प्रतिशत हिस्सा तो कृषि क्षेत्र का है। और अगर इंद्र देवता की इस बार मेहरबानी हुई और देश में बारिश अच्छी हो गई तो ये 20 प्रतिशत हिस्सा तो आप मजबूत समझिए। अब बात उसकी करते हैं जिससे मंदी की शुरूआत हुई। यानी भारतीय शेयर बाजार की। मैं पिछले पाँच साल से भारतीय शेयर बाजार को वॉच कर रहा हूँ। बहुत पहले तो यह (बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज) 3-4 हजार के अंक के आस-पास ही झूलता रहता था। फिर ये धीरे-धीरे सरक-सरककर 10 हजार के अंक तक पहुँचा। और उसके बाद यह घोड़े की चाल से दौड़ने लगा। हर दिन कुछ सैंकड़ा का उछाल और बाद में तो एक-डेढ़ हजार भी आसानी से भागता रहता था। तब किसी ने सोचा कि ये इतना क्यों उछाल मार रहा है। ये नकली तेजी थी। फिर अचानक मंदी आ गई। ये 21 हजार से गिरकर 7 हजार के अंक तक पहुँच गया। हाँ, उस समय शेयर बाजार में मंदी थी। लेकिन आप देखिए कि पिछले कुछ महीनों में यह सफर करता हुआ फिर से 14500 तक के आँकड़े तक पहुँच गया। यानी जो इसकी असलियत थी या कहें ये डिसर्व करता था वहाँ तक यह फिर पहुँच गया। दिवाली तक यह 17 हजार के आँकड़े तक पहुँच जाएगा ऐसे अनुमान हैं। कुल मिलाकर ये तथाकथित मंदी भारत से स्वतः दूर हो रही है और वैसे भी शेयर बाजार कोई पैमाना नहीं होता। लेकिन मैं इस मंदी के दौर में एक क्षेत्र विशेष की बात करता हूँ।
मंदी के दौर में मैं मीडिया को भी इसी मामले में रोता हुआ सुनता रहता हूँ। यहाँ मैंने मीडिया की बात इसलिए छेड़ी क्योंकि मैं इसी लाइन से आता हूँ। तो मीडिया ने भी भारी छंटनियाँ की हैं। बहुत सारे चैनल और अखबार के एडिशन बंद हो गए इसी मंदी की दुहाई देकर। लेकिन मैं जब भी टीवी चैनलों को देखता हूँ या थोड़े बहुत भी चलने वाले अखबार देखता हूँ तो वो मुझे विज्ञापनों से पूरी तरह से रंगे हुए नजर आते हैं। इतने-इतने विज्ञापन की मन ही ऊब जाए। कई बार तो मैं इन विज्ञापनों से तंग आकर हिन्दी टीवी न्यूज चैनल बदलकर अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी न्यूज चैनलों पर चला जाता हूँ। लेकिन मुझे तब एकदम से आश्चर्य होता है जब मैं वहाँ तस्वीर का दूसरा रुख देखता हूँ। मंदी ने सबसे ज्यादा अपनी चपेट में योरप और अमेरिका को ही लिया है। बावजूद इसके आप कभी भी बीबीसी या सीएनएन पर पागलों की तरह विज्ञापनों की बाढ़ को नहीं पाओगे। तो क्या कारण है कि हम लोग रोए जा रहे हैं और वो लोग स्थिर है। किसी भी भारतीय न्यूज चैनल या अखबार की क्षमताएँ विदेशियों के सामने कुछ भी नहीं हैं। उन चैनलों के संवाददाता सारे संसार में तैनात हैं, जबरदस्त संसाधन हैं तो फिर वे ये सब कैसे मैनेज कर रहे हैं और हम क्यों नहीं कर पा रहे या उनसे यह सब क्यों नहीं सीख पा रहे। आपने सुना होगा कि गूगल संसार की सबसे तेज बढ़ती हुई कंपनियों में से एक है। बीच में चर्चा चली थी कि वो न्यूयार्क टाईम्स अखबार समूह को खरीदने जा रही है। बाद में खुद गूगल ने उसका खंडन कर दिया था लेकिन आपने कभी गूगल की किसी सुविधा पर विज्ञापनों की बाढ़ देखी? मैं खुद गूगल की तमाम सेवाओं का उपयोग करता हूँ लेकिन मैंने कभी वहाँ झिलाऊ विज्ञापनों को नहीं झेला। विकिपीडिया मेरे ज्ञान में हमेशा वृद्धि करता रहता है। मेरे लिए वो ज्ञान का कोष है। आपने भी उसका उपयोग किया होगा। क्या कभी आपने उसमें विज्ञापनों की भरमार देखी।
इसी प्रकार आप विदेशी नामचीन अखबारों को उठाकर देखिए...वे विज्ञापनों के लिए उस प्रकार से पागल नहीं दिखेंगे जैसे ये हिन्दी या भारतीय अंग्रेजी के अखबार दिखते हैं। विदेशी अखबारों में पढ़ने के लिए बहुत कुछ होगा जबकि कीमत कम होगी। वहीं हमारे यहाँ मामला उल्टा है। अखबारों को अब आप कुछ ही मिनट में फैंक देते हैं। हमारे देश में खबरों के लिए अखबार शुरू हुए थे और समाजसेवा के लिए स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ या कहें गैर सरकारी संगठन) लेकिन ये दोनों ही अपने रास्ते से भटक गए। आज अखबार खबरों को छोड़कर विज्ञापन के पीछे लगे हुए हैं और एनजीओ समाजसेवा को छोड़कर फंड कलेक्टिंग के पीछे लगी हुई है। कम से कम भारत में तो ये अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। आज कोई अखबार खुलता है तो पहले वहाँ विज्ञापनों की जुगाड़ की बात होती है। पन्ने विज्ञापनों से भरे होते हैं और बची जगह पर खबरें लग जाती हैं। हद तो तब है, जब उसके बाद भी मंदी की बातें होती हैं। अगर ऐसा ही है तो अखबार मालिकों को पहले ये देखना चाहिए कि विदेशी अखबार अपने पाठकों को विज्ञापनों से ज्यादा खबर कैसे दे पा रहे हैं। मैंने कई विदेशी कंपनियों खासकर मीडिया कंपनियों को भारतीय कंपनियों से ज्यादा ईमानदार पाया। अगर उन्हें भ्रष्ट होना भी पड़ता हो तो वो एकाध बार ही ऐसा करती हैं नहीं तो ज्यादातर वो ईमानदारी से अपना डंका संसार में बजाती हैं। मुझे नहीं लगता कि वैश्विक धंधे में इतनी कम भूमिका रखने वाला भारत मंदी से इतना ग्रस्त है कि अपने यहाँ काम करने वाले लोगों को उसे खाना पड़ रहा है। हमें धंधे के साथ जीवन में भी ईमानदार होना सीखना होगा। नहीं तो इस देश में एक व्यक्ति तो रईस होता चला जाएगा जबकि दूसरा सिर्फ गरीब। इस चीज की परिणिती अच्छी नहीं होगी। ये भारतीय व्यापारियों और उद्योगों के मालिकों को समझना होगा। बाकी आने वाला समय ही बताएगा।
आपका ही सचिन...।
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2 comments:
वैसे यही सही निष्कर्ष है कि बाकी आने वाला समय बतायेगा.
हमारा हाल बेहाल है जी, बाहर वाले मार्केट को मन चाहे उठा देते हैं, घर में बीवी से लडाई हो जाये तो गिरा भी देते हैं. और हम आप उसे तेजी मंदी कहते हैं. वैसे मंदी तो जरूर है लेकिन इतनी नहीं जितना हल्ला मचाया जा रहा.
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