अमूमन देश की राजधानी दिल्ली में विश्व भर के बड़े राजनेता आते रहते हैं। मैं उन्हें सुनता रहता हूँ। वे योरप से आते हैं, अमेरिका से आते हैं, रूस से आते हैं, कई बार अफ्रीका से आते हैं। अरब और इसराइल से भी आते हैं। तो दोस्तों, वे राजनेता जब भी आते हैं हमारे देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ देश की मीडिया को भी संबोधित करते हैं। मैंने देखा है कि वे मीडिया से कई मामलों पर बात करते हैं लेकिन बोलते हमेशा अपनी मातृभाषा में ही हैं। मसलन सरकोजी आए तो फ्रैंच में बोले, मेदवेदेव या पुतीन आए तो रूसी में बोले लेकिन जब भी हमारी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटील या प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह मीडिया से मुखातिब होते हैं तो वे अंग्रेजी में ही ज्ञान देते हैं....आखिर क्यों??...यही सबसे बड़ी समस्या है और इसकी जड़ों को हमें खोदना ही होगा......
मैंने अपने लेख की हैडिंग में भाषाई साम्राज्यवाद की बात की....इसका मतलब बताने से पहले थोड़ा साफ करना चाहूंगा कि हिन्दी विश्व में कुछ सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है....इसके बावजूद इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में स्थान प्राप्त नहीं है जिसकी की वह हकदार है....जबकि इसमें स्पेनिश और रूसी भाषाएं शामिल हैं जिनके बोलने वाले गिने-चुने हैं....तो भाई हम खुद ही अपनी भाषा की भद्द पिटवाते रहते हैं....इस देश में जिसे अंग्रेजी नहीं आती उसे गंवार समझा जाने लगा है...वह खुद ही घुट-घुट कर मरने वाली स्थिति में आ जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी जी को छोड़कर हमारा कोई प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र को हिन्दी में संबोधित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया तो अब कोई इसमें क्या कर सकता है.....लोग कहते हैं कि अंग्रेजी जानने वालों ने बहुत तरक्की की है.....तो मैं बता दूं कि रूसी लोग रूसी भाषा के बूते विश्व शक्ति बने थे और चीनी लोग चीनी भाषा के बूते दुनिया भर में अपना और अपनी तकनीक का लोहा मनवा रहे हैं......दुनिया की सर्वश्रेष्ठ तकनीकें मानी जाने वाली जर्मन और जापानी तकनीक भी उन्हीं की भाषाओं यानी जर्मन और जापानी में विकसित हुई हैं.......
आपको पता ही होगा कि यूरोप ने बहुत तरक्की की है....तो यह भी जान लीजिए कि उस महाद्वीप के ४८ देशों में से दो-तीन को छोड़कर कोई अंग्रेजी नहीं बोलता.....इटली में इटालियन, जर्मनी में जर्मन, स्पेन में स्पेनिश, स्वीडन में स्वीडिश, फ्रांस में फ्रैंच के साथ ही वहां के हर देश की अपनी खुद की भाषा है.....हां अब चूंकी महाशक्तिशाली अमेरिका दुनिया में सबसे अंग्रेजी में बात कर रहा है तो स्वाभाविक तौर पर सब लोग अंग्रेजी समझने की कोशिश करने लगे हैं......
तो अब सही समय है भाषाई साम्राज्यवाद की बात करने का..... पिछले पांच हजार सालों में पृथ्वी और इसपर पनपने वाली सभ्याताओं ने अपनी सहूलियत के हिसाब से कई भाषाएँ विकसित कीं.....समाजशास्त्र के एक अध्ययन के अनुसार विश्व में संगठित रूप से तकरीबन दस हजार भाषाएँ बोली जाती थीं जो पिछले दशक तक घटते-घटते डेढ़ हजार भाषाओं तक पहुँच गईं.....पिछली कुछ शताब्दियां भाषाओं को मारने और खत्म करने में अहम रहीं....हालांकि कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि दुनिया में एक दिन वैश्विक नागरिक (ग्लोबल सिटीजन) और वैश्विक भाषा यानी वर्ल्ड लैग्वैज (संभवतः अंग्रेजी) की अवधारणा मूर्त रूप लेगी.....लेकिन मुझे शक है कि ऐसा हो पाएगा....हां ग्लोबलाइजेशन के चलते यह सब संभव तो हुआ है लेकिन हावी कौन हुआ है यह हम सब जानते हैं.....कुल मिलाकर अंग्रेजी और अंग्रेजियत दुनिया पर हावी हो रहे हैं....और मेरा यह मानना है कि हम जिस घर, सभ्यता और भाषा के बीच पैदा हुए हैं उसे बचाना हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है..तो अब एक उदाहरण......
दुनिया में अपना रौब कायम करने वाली अंग्रेजी १४०० ई. तक खुद बहुत मुसीबत में फंसी हुई थी....ब्रिटेन की अदालतों तक में फ्रैंच भाषा का बोलबाला हो गया था और यूरोप में फ्रैंच का राज चल रहा था....तब अंग्रेजी के ख्यात साहित्यकार चौसर ने अपने देश के लोगों में अपनी भाषा का मान बनाए रखने के लिए प्रयास शुरू किए.....कई किताबें, कई कविताएं और बहुत सारा साहित्य लिखा....चौसर कामयाब भी हुए....उनकी बचाई भाषा आज दुनिया पर राज करने की स्थिति में है....इसलिए चौसर को अंग्रेजी साहित्य का फादर कहा जाता है.......
कुछ ऐसा ही हमारे यहाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी भाषा के लिए किया....उन्हें भी बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है.....और अब एक तुलना और करना चाहूंगा...अंग्रेजी के ख्यात साहित्यकार और साहित्य की दुनिया के सुपर सितारे विलियम शैक्यपीयर ने अपनी समग्र रचनाओं में १५००० अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया है जबकि तुलसीदास ने सिर्फ रामचरितमानस में ही ३५,००० शब्दों का इस्तेमाल किया है.....तौ कौन महान हुआ यह बताने की जरूरत नहीं है.......
लेकिन सवाल यह है कि हम क्या कर रहे हैं.....क्या हम अपनी मातृभाषा को यूं ही भाषाई साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ जाने देंगे......और हिन्दी के बस दिवस और पखवाड़े की बनते रह जाएँगे.....??????? आज टीवी चैनल पर एक दिल दुखाने की खबर और देख ली। कि दिल्ली के अंग्रेजीदां स्कूलों ने अपनी फीस और अधिक बढ़ा दी है। इनमें से काफी स्कूल तो पहले ही चार हजार रुपया महीना या उससे अधिक वसूल रहे थे। स्कूलों का इस मामले पर कहना है कि वो बच्चों का ओवरआल डवलपमेंट करते हैं और उन्हें अंग्रेजी माहौल उपलब्ध कराते हैं। उनके स्कूलों में हिन्दी बोलने पर सजा है। तो दोस्तों, यह तर्क देकर हमारे देश की राजधानी के स्कूल बच्चों के अभिभावकों से अधिक रकम वसूल रहे हैं और वे उन्हें गधा बनकर दे भी रहे हैं। भगवान ही बचाए इस देश की शिक्षा पद्धति से...।
हालांकि इस बीच अच्छी खबर भी है। प्रसिद्ध कोशकार श्री अरविंद कुमार कहते हैं कि हिन्दी एक दिन विश्व विजेता भाषा बनेगी.....उन्होंने पेंग्विन प्रकाशन के लिए एक कोश तैयार किया है जिसमें हिन्दी के पांच लाख शब्द हैं.....उन्होंने दिल को राहत देने वाली कई बातें कही हैं..... लेकिन क्या हम उनकी बातों को सही साबित करने के लिए अपना कुछ अंश देंगे.....आशा तो यही है......
उम्मीद है दोस्त मेरी बातों से सहमत होंगे......
आपका ही सचिन.....।
2 comments:
चिंताजनक बात है| दरअसल देश के अन्दर ही विरोध के इतने स्वर हैं, पुरा दक्षिण भारत अंग्रेजियत अपनाने को तत्पर है| उत्तर पूर्व का भी यही हाल है| रहे हम तो कॉन्वेंट स्कूलों में हिन्दी बोलने पर मिलने वाली सजा पर वह वाह करते रहते हैं|
यहाँ विरोध है वहाँ विरोध है, यह कहना ही बकवास है. आज प्रधानमंत्री हिन्दी में बोले तो किसका बाप विरोध करेगा? हम दासत्त्व में हद से ज्यादा धंसे है.
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