आखिर कैसे बचेगा बाघ?
सचिन शर्मा
अभी कुछ दिन पहले देश की प्रसिद्ध वाइल्ड लाइफ पत्रिका "सेंक्चुअरी एशिया" ने एक व्यंग्यात्मक अभियान शुरू करने की घोषणा की। पत्रिका भारत के लिए नए राष्ट्रीय पशु को खोजना चाह रही है। इसमें देश की जनता को गधे, बंदर, बकरी और चूहे में से किसी एक को अपना राष्ट्रीय पशु चुनने के लिए कहा गया है। पत्रिका का कहना है कि बाघों की संख्या बहुत तेजी से घटती जा रही है और बहुत जल्दी ही ये भारत से लुप्त हो जाएँगे। ऐसे में उक्त जन्तुओं में से ही किसी एक को हमें अपना राष्ट्रीय पशु चुनना होगा।
दरअसल ये व्यंग्यात्मक अभियान एक ऐसी हकीकत के बारे में लोगों को बताना चाहता है जिसे हम जानना-समझना नहीं चाहते। लगभग डेढ़ दशक पहले दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आया करता था "प्रोजेक्ट टाइगर"। इसे नसरुद्दीन शाह प्रस्तुत किया करते थे। इस कार्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा प्रारंभ की गई महत्वाकांक्षी परियोजना प्रोजेक्ट टाइगर के बारे में विस्तार से बताया जाता था। उसमें बाघ और बैंगन को जोड़ने की कहानी बताई जाती थी। तब वो कहानी इतनी समझ नहीं आती थी। लेकिन अब तो दुनिया की सबसे बड़ी वन्यजीव संस्था वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) भी ऐसे कार्यक्रम दिखा रही है जो बताते हैं कि बाघ है तो जंगल है।
किसी जंगल में बाघ का होना बताता है कि वहाँ स्वस्थ माहौल है। तो ऐसा क्या हो गया कि हमारे जंगल भी खत्म हो रहे हैं और उसमें रहने वाले बाघ भी। इसकी शुरुआत भी काफी पहले से हुई है। तह में जाएँ तो पिछली शताब्दी की शुरुआत में भारत में करीब ४०००० बाघ थे। ये संख्या संसार में सबसे ज्यादा थी। लेकिन १९७० के दशक में बाघ घटकर १२०० रह गए। इंदिरा गाँधी के प्रयासों और प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता के चलते १९९० के दशक तक देश में बाघों की संख्या फिर से ३५०० तक जा पहुँची। लेकिन २००८ में देश भर में हुई बाघ गणना के आँकड़े चौंकाने वाले थे और इन नतीजों ने देशभर के वन्यजीव प्रेमियों की नींद उड़ाकर रख दी। इस गणना के मुताबिक भारत में मात्र १४११ बाघ बचे हैं जो १९७० के दशक में आए संकट के आसपास ही हैं। मतलब देशभर में प्रोजेक्ट टाइगर विफल रहा था और विशेषज्ञों ने मान लिया कि इस बार बाघ को बचाना उतना आसान नहीं होगा जितना इंदिरा गाँधी के काल में था। वन्यजीव प्रेमियों और विशेषज्ञों की निराशा की कई वजहों में से एक "ट्राइबल बिल" भी है। ये बिल जनवरी २००७ में पास हो गया था।
अगर इस बिल की खोज-परख की जाए तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि क्यों इस बार हम अपने राष्ट्रीय पशु को हमेशा के लिए खोने की आशंका से ग्रस्त हैं। ट्राइबल बिल (आदिवासी बिल) की सिफारिशों पर गौर करें तो वनों को बचाने के लिए आंदोलनरत लोगों के अपने आप ही होश उड़ जाएँगे। ये बिल अब लागू करवाया जा रहा है। प्रक्रियाधीन है और इसे लेकर देशभर में ग्रामसभाओं की बैठक चल रही है। बिल के अनुसार देश के सभी जंगलों में रह रहे आदिवासियों को (इनमें बाघ परियोजनाएँ, राष्ट्रीय उद्यान और समस्त अभयारण्य शामिल हैं) वह सभी हक वापस दिलाए जा रहे हैं जो उन्हें आजादी से पहले मिले हुए थे। मतलब जंगलों में रह रहे आदिवासियों की जमीनों का ना सिर्फ नियमन हो रहा है बल्कि उन्हें जंगलों में चराई की खुली छूट भी मिल गई है। अपनी जमीनों पर आदिवासी फिर से खेती-बाड़ी शुरू कर रहे हैं। जहाँ ये आदिवासी रह रहे हैं उस जगह के उन्हें कागजात भी मिल रहे हैं।
इस बिल को वन्यजीवन से जुड़े विशेषज्ञों ने भारत के पहले से ही खत्म हो रहे जंगलों के लिए ताबूत की आखिरी कील घोषित कर रखा है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस बिल के पास होने के बाद देशभर के जंगलों के बीच वाइल्ड कॉरिडोर्स के विकास की योजना अब सिर्फ कागजों में ही रह जाएगी क्योंकि जिन जंगलों में खेती हो रही है वहाँ ऐसे कॉरिडोर्स की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस बारे में 'नेचर कनजरवेशन फाउंडेशन" ने केन्द्र को एक दस्तावेज सौंपा था जिसमें 'फॉरेस्ट राइट्स"के बारे में विस्तार से बताया गया था। उसमें यह तथ्य भी बताया गया था कि जिन जंगलों में आदिवासियों की संख्या ज्यादा है वहाँ से वन्यजीवन लगभग समाप्त हो चुका है। जंगलों में अगर खेती होती रही तो वे टापुओं में तब्दील हो जाएँगे और उनका अन्य किसी जंगल से कोई संपर्क नहीं रह जाएगा। ऐसे जंगलों में वन्यजीवों को 'ट्रांसलोकेशन" की समस्या आती है और कहीं और ना जा पाने के कारण उनके समाप्त होने की पूरी आशंका रहती है। राजस्थान के सरिस्का के साथ भी यही समस्या आई थी और अब इस देश को कई सरिस्का मिलने वाले हैं। इस बिल से एक मुख्य बात और निकलकर सामने आती है कि जंगलों में आदिवासी मवेशी रखते हैं जिनका बाघ जैसे मांसाहारी जानवर शिकार कर लेते हैं। इस शिकार से खिन्न आकर आदिवासियों का फिर एकमात्र मकसद उस शिकारी वन्यजीव को खत्म करना होता है। बाघ इस प्रकार के षडयंत्रों का हिस्सा बनता रहा है। अंत में याद रखने वाली एक बात ये भी कि यह सब उन्हीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हो रहा है जो बाघों की खत्म होती आबादी से व्यथित होकर राजस्थान के रणथम्भौर पहुँचे थे। लेकिन पिछले आम बजट में उन्होंने बाघ परियोजनाएँ के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा जो इस राष्ट्रीय पशु को बचाने के लिए नाकाफी सिद्ध होगा।
अभी कुछ दिन पहले देश की प्रसिद्ध वाइल्ड लाइफ पत्रिका "सेंक्चुअरी एशिया" ने एक व्यंग्यात्मक अभियान शुरू करने की घोषणा की। पत्रिका भारत के लिए नए राष्ट्रीय पशु को खोजना चाह रही है। इसमें देश की जनता को गधे, बंदर, बकरी और चूहे में से किसी एक को अपना राष्ट्रीय पशु चुनने के लिए कहा गया है। पत्रिका का कहना है कि बाघों की संख्या बहुत तेजी से घटती जा रही है और बहुत जल्दी ही ये भारत से लुप्त हो जाएँगे। ऐसे में उक्त जन्तुओं में से ही किसी एक को हमें अपना राष्ट्रीय पशु चुनना होगा।
दरअसल ये व्यंग्यात्मक अभियान एक ऐसी हकीकत के बारे में लोगों को बताना चाहता है जिसे हम जानना-समझना नहीं चाहते। लगभग डेढ़ दशक पहले दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आया करता था "प्रोजेक्ट टाइगर"। इसे नसरुद्दीन शाह प्रस्तुत किया करते थे। इस कार्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा प्रारंभ की गई महत्वाकांक्षी परियोजना प्रोजेक्ट टाइगर के बारे में विस्तार से बताया जाता था। उसमें बाघ और बैंगन को जोड़ने की कहानी बताई जाती थी। तब वो कहानी इतनी समझ नहीं आती थी। लेकिन अब तो दुनिया की सबसे बड़ी वन्यजीव संस्था वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) भी ऐसे कार्यक्रम दिखा रही है जो बताते हैं कि बाघ है तो जंगल है।
किसी जंगल में बाघ का होना बताता है कि वहाँ स्वस्थ माहौल है। तो ऐसा क्या हो गया कि हमारे जंगल भी खत्म हो रहे हैं और उसमें रहने वाले बाघ भी। इसकी शुरुआत भी काफी पहले से हुई है। तह में जाएँ तो पिछली शताब्दी की शुरुआत में भारत में करीब ४०००० बाघ थे। ये संख्या संसार में सबसे ज्यादा थी। लेकिन १९७० के दशक में बाघ घटकर १२०० रह गए। इंदिरा गाँधी के प्रयासों और प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता के चलते १९९० के दशक तक देश में बाघों की संख्या फिर से ३५०० तक जा पहुँची। लेकिन २००८ में देश भर में हुई बाघ गणना के आँकड़े चौंकाने वाले थे और इन नतीजों ने देशभर के वन्यजीव प्रेमियों की नींद उड़ाकर रख दी। इस गणना के मुताबिक भारत में मात्र १४११ बाघ बचे हैं जो १९७० के दशक में आए संकट के आसपास ही हैं। मतलब देशभर में प्रोजेक्ट टाइगर विफल रहा था और विशेषज्ञों ने मान लिया कि इस बार बाघ को बचाना उतना आसान नहीं होगा जितना इंदिरा गाँधी के काल में था। वन्यजीव प्रेमियों और विशेषज्ञों की निराशा की कई वजहों में से एक "ट्राइबल बिल" भी है। ये बिल जनवरी २००७ में पास हो गया था।
अगर इस बिल की खोज-परख की जाए तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि क्यों इस बार हम अपने राष्ट्रीय पशु को हमेशा के लिए खोने की आशंका से ग्रस्त हैं। ट्राइबल बिल (आदिवासी बिल) की सिफारिशों पर गौर करें तो वनों को बचाने के लिए आंदोलनरत लोगों के अपने आप ही होश उड़ जाएँगे। ये बिल अब लागू करवाया जा रहा है। प्रक्रियाधीन है और इसे लेकर देशभर में ग्रामसभाओं की बैठक चल रही है। बिल के अनुसार देश के सभी जंगलों में रह रहे आदिवासियों को (इनमें बाघ परियोजनाएँ, राष्ट्रीय उद्यान और समस्त अभयारण्य शामिल हैं) वह सभी हक वापस दिलाए जा रहे हैं जो उन्हें आजादी से पहले मिले हुए थे। मतलब जंगलों में रह रहे आदिवासियों की जमीनों का ना सिर्फ नियमन हो रहा है बल्कि उन्हें जंगलों में चराई की खुली छूट भी मिल गई है। अपनी जमीनों पर आदिवासी फिर से खेती-बाड़ी शुरू कर रहे हैं। जहाँ ये आदिवासी रह रहे हैं उस जगह के उन्हें कागजात भी मिल रहे हैं।
इस बिल को वन्यजीवन से जुड़े विशेषज्ञों ने भारत के पहले से ही खत्म हो रहे जंगलों के लिए ताबूत की आखिरी कील घोषित कर रखा है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस बिल के पास होने के बाद देशभर के जंगलों के बीच वाइल्ड कॉरिडोर्स के विकास की योजना अब सिर्फ कागजों में ही रह जाएगी क्योंकि जिन जंगलों में खेती हो रही है वहाँ ऐसे कॉरिडोर्स की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस बारे में 'नेचर कनजरवेशन फाउंडेशन" ने केन्द्र को एक दस्तावेज सौंपा था जिसमें 'फॉरेस्ट राइट्स"के बारे में विस्तार से बताया गया था। उसमें यह तथ्य भी बताया गया था कि जिन जंगलों में आदिवासियों की संख्या ज्यादा है वहाँ से वन्यजीवन लगभग समाप्त हो चुका है। जंगलों में अगर खेती होती रही तो वे टापुओं में तब्दील हो जाएँगे और उनका अन्य किसी जंगल से कोई संपर्क नहीं रह जाएगा। ऐसे जंगलों में वन्यजीवों को 'ट्रांसलोकेशन" की समस्या आती है और कहीं और ना जा पाने के कारण उनके समाप्त होने की पूरी आशंका रहती है। राजस्थान के सरिस्का के साथ भी यही समस्या आई थी और अब इस देश को कई सरिस्का मिलने वाले हैं। इस बिल से एक मुख्य बात और निकलकर सामने आती है कि जंगलों में आदिवासी मवेशी रखते हैं जिनका बाघ जैसे मांसाहारी जानवर शिकार कर लेते हैं। इस शिकार से खिन्न आकर आदिवासियों का फिर एकमात्र मकसद उस शिकारी वन्यजीव को खत्म करना होता है। बाघ इस प्रकार के षडयंत्रों का हिस्सा बनता रहा है। अंत में याद रखने वाली एक बात ये भी कि यह सब उन्हीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हो रहा है जो बाघों की खत्म होती आबादी से व्यथित होकर राजस्थान के रणथम्भौर पहुँचे थे। लेकिन पिछले आम बजट में उन्होंने बाघ परियोजनाएँ के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा जो इस राष्ट्रीय पशु को बचाने के लिए नाकाफी सिद्ध होगा।
4 comments:
देखिए जी, हम तो कहते हैं कि हमें गधे को चुन लेना चाहिए. आख़िर इतने वर्षों से हम ऐसी व्यवस्था को ढोते आ रहे हैं!
ट्राइबल बिल पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। मेरा मानना है कि जंगल में रहने वाले आदिवासी वन और वन्य जीवों के रक्षक हैं। लेकिन बाघों की कीमत पर यदि ये बिल आए तो इस पर देश भर में एक स्वस्थ बहस होनी चाहिए।
निश्चित ही बहस और चिन्ता का विषय है.
bahut accha likha hai aapne...
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