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हत्याएँ करने वाले इन दरिंदों से हम क्यों सहानुभूति रखें?
भारत के नक्सली आतंकवादी हैं। वामपंथ विचारधारा वाले लोगों को सुनकर यह बुरा लग सकता है लेकिन मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि इस समस्या को मूल रूप से खत्म कर देना चाहिए क्योंकि इन लोगों ने जिन छोटे किसानों को अधिकार दिलवाने के नाम पर ये खतरनाक आंदोलन शुरू कर रखा है उसे कई दशकों तक चलाने के बाद भी ये उन किसानों के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं। इन्होंने सिर्फ हत्याएँ की हैं और उन निरीह पुलिस के हवलदारों को अपना निशाना बनाया है जो ना तो पूँजीवादी व्यवस्था के परियाचक थे और ना ही उन्होंने किसी किसान की कोई जमीन हड़पी थी। कई मामलों में तो नक्सलियों ने वाकई दुस्साहस दिखाया है। उन्होंने कई नेताओं, उनके पुत्रों को मार डाला, कई आईपीएस और आईएएस अफसरों की हत्या की और मुख्यमंत्रियों के काफिलों तक पर हमले किए जिनमें चंद्रबाबू नायडू शामिल हैं। अब ये नक्सली कह रहे हैं कि भारत सरकार उनके खिलाफ युद्ध छेड़ सकती है.....तो और क्या करेगी भाई, आरती उतारेगी तुम्हारी..??
दोस्तों, पिछलों दिनों भारत के वायुसेना प्रमुख नाइक साहब ने जब कहा कि सेना तो सीमा पर चौकसी के लिए होती है और वे इस बात के पक्षधर नहीं हैं कि नक्सलियों पर सेना कार्रवाई करे, तब मेरा मन खट्टा हो गया था। नाइक साहब के लिए बस इतना ही कि जब आप सीमा पर चौकसी कर रहे हैं और अंदर मासूम नागरिक मारे जा रहे हैं तब उस सीमा की चौकसी का फायदा ही क्या, क्योंकि उस सीमा के भीतर ही हमारे देश के नागरिकों के सिर काटे जा रहे हैं। देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने हाल ही में कहा कि नक्सली समस्या राज्य सरकारों की निजी जिम्मेदारी है। हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान में थोड़ा सुधार किया और कहा कि नक्सलियों से मिलजुलकर निपटा जाएगा, लेकिन सवाल यह है कि चिदंबरम जी ऐसे-कैसे गृहमंत्री हैं...!!!!! ये साहब पहले भी कह चुके हैं कि देश के हर नागरिक की रक्षा केन्द्र सरकार नहीं कर सकती। अब कह रहे हैं कि नक्सलवाद से राज्य सरकारें निपटें। उनके ही मंत्रीमंडल के एक साथी शरद पवार सूखे की समस्या पर ठीक इसी प्रकार की उलट बयानी कर चुके हैं। वो कह चुके हैं कि सूखा राज्य सरकारों का निजी मामला है और केन्द्र उसमें कुछ नहीं करेगा। तो भईया वो सारा टैक्स कहाँ जाएगा जो हम केन्द्र सरकार को हर साल चुकाते हैं और छतरी की तरह सैंकड़ों प्रकार के टैक्स आम आदमी के ऊपर लगाए जा चुके हैं। तो पूरा देश एक है चिदंबरम साहब, और आपको इन नक्सलियों को जड़ से उखाड़ फैंकना ही होगा नहीं तो आपको भारत का गृहमंत्री बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।
यहाँ मैं एक चिरपरिचित उदाहरण देना चाहूँगा। श्रीलंका के एक बड़े भूभाग पर लिट्टे ने कई दशकों तक शासन किया। उन्होंने श्रीलंका के कई मंत्री, प्रधानमंत्री और यहाँ तक की राष्ट्रपति तक को मार डाला। उनकी हिम्मत इतनी बढ़ गई थी कि वो कई हमलों के लिए हवाई जहाज का इस्तेमाल करते थे। लेकिन महिन्द्रा राजपक्षे ने दिखा दिया कि अगर कोई लड़ाई जीतनी ही है तो थोड़ा घाटा तो उठाना ही पड़ेगा। सबसे पहले मातृभूमि की खातिर उन्होंने लिट्टे के खिलाफ आपरेशन शुरू करवाया और अंत तक लड़ाई लड़ी। पूरी दुनिया ने इस खूनखराबे को रोकने के लिए राजपक्षे पर दबाव डाला, लेकिन वो पीछे नहीं हटे। आखिर में प्रभाकरण के सिर में सूराख कर घुसी गोली वाली तस्वीर संसार भर में दिखी और राजपक्षे ने दिखा दिया कि अगर तबीयत से पत्थर उछाला जाए तो आसमान में भी सुराख हो सकता है।
तो चिदंबरम साहब, हम में भी वो दम है कि हम आसमान में सुराख कर सकते हैं। लेकिन आप पत्थर तो उछालिए, जब हम अपनी ही धरती पर कार्रवाई करने में इतना हिचकेंगे तो पाकिस्तान और चीन को आँखे दिखाने की कभी सोच भी नहीं सकेंगे (हालांकि अब भी नहीं सोचते हैं)। क्या आप भी यह इंतजार कर रहे हैं कि नक्सली भारत सरकार के भवनों और प्रतिष्ठानों पर हवाई जहाज से आक्रमण करे। भारत अगर अंदर से कमजोर हुआ तो चारों ओर दुश्मनों से घिरे हम कैसे उनका मुकाबला कर पाएँगे। राज्य सरकारें बिचारी इस सबमें क्या करेंगी जबकि उनके पास संसाधनों की विकट कमी है। भारतीय सेना पर केन्द्र सरकार इस साल एक लाख पाँच हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है फिर उस खर्चे का क्या फायदा जब घर के अंदर ही फफूँद लग रही है। चिदंबरम साहब ने स्वीकारा है देश के 20 राज्यों के 223 जिलों में नक्सली जम चुके हैं और उन्होंने वहाँ प्रभाव जमा रखा है। नक्सली हिंसा से देश में सबसे अधिक लोग मारे जा रहे हैं। तो अब क्यों देरी की जाए। भारतीय सेना को केन्द्र सरकार के आदेश से राज्यों की पुलिस के साथ संयुक्त कार्रवाई कर नक्लियों के खिलाफ ठीक वैसी ही कार्ऱवाई करनी चाहिए जैसी इसराइल अपने विरोधियों के खिलाफ करता है। हर जंग निर्णायक नजरिए से देखी जानी चाहिए और लड़ी जानी चाहिए, कई बार छोटी जीत भी बड़ी साबित होती है और यह जंग तो बहुत बड़ी है। हमारे देश को अंदर से कमजोर बिल्कुल नहीं होने देना चाहिए।
और अंत में चलते-चलते नक्सलियों के लिए...
नक्लियों को लगता है कि उनके साथ सहानुभूति रखी जाए, उनकी विचारधारा को समझा जाए, सरकार उनके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही है। उनके पास ज्यादा हथियार भी नहीं है। उन्हें डर है कि सरकार उनके खिलाफ लिट्टे वाली स्टाइल में लड़ाई ना छेड़ दे। तो नक्सली भाईयों (माफ करना क्योंकि तुम हमारे देश के हो इसलिए कहना पड़ा) तुम बंदूक उठाए रहो और लोगों के मन में खौफ पैदा कर दो तो ऐसे में इस देश के लोगों को तुम्हारी विचारधारा के बारे में कैसे पता चलेगा। अगर तुम्हें वाकई केन्द्र सरकार से बातचीत करनी है तो कंधे से बंदूक उतारकर बात करनी होगी। देश में चंबल के डाकूओं की बात हो या कश्मीर में आतंकवादियों की...अगर बात नहीं की जाएगी तो गोली दोनों ओर से चलेगी, कभी हमारे सीने पर लगेगी तो कभी तुम्हारे सीने पर लगेगी, लेकिन ये याद रखना कि जीत हमारी ही होगी। भारत में लाल गलियारा नहीं बनने दिया जाएगा। सरकार कठोर कदम उठाए, उसे देश की जनता का समर्थन और स्वागत जरूर मिलेगा।
आपका ही सचिन...।
4 comments:
एक बार फ़िर मेरे दिल की बात कह दी सचिन आपने… :)
रिलायंस, टाटा, जिंदल, वेदांत जैसे कोर्पोरेट्स का क्या करेंगे जिन्होंने नेताओं से सांठगाँठ कर नैशनल लैंड लूट एक्ट बनवा लिया और आदिवासियों का अंतिम सहारा भी छीन लिया. आंध्र की वर्तमान बाढ़ वर्तमान वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे की फेक्ट्री की लाई हुई है, यह आप भी जानते हैं. नियमगिरि (उडीसा) के घने जंगलों का सफाया सिर्फ कुछ कोर्पोरेट्स को फायदा पहुँचाने के लिए किया जा रहा है. इसमें हारते सिर्फ और सिर्फ आदिवासी हैं, जिन्हें सिर्फ विस्थापन के आलावा कुछ नहीं मिलता.
असली बात यही है की आप मीडिया में हैं जो कोर्पोरेट्स के दिए पैसों से चलता है. और उन्ही के हितों की बात करता है. तो आपको सिक्के का दूसरा पहलु दिखाई कैसे दे? पर ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती, देश में नेताओं, नौकरशाही और कोर्पोरेट्स ने मिल कर ऐसी लूट मचाई हुई है की अभी और भी लोगों को न चाहते हुए भी हथियार उठाने पड़ेंगे. और रास्ता भी क्या है? सत्याग्रह? असहयोग? सविनय अवज्ञा?
बिना किसी पूर्वाग्रह के आप कुछ दिन आदिवासियों का पक्ष भी जानने की कोशिश भी कीजिये, आखिर कुछ तो उनकी दलीलों में भी दम होगा.
@ ab inconvenienti
महोदय, आपकी और मेरी विचारधारा में फर्क हो सकता है। लेकिन आपकी मीडिया वाली तोहमत का मैं जवाब देना चाहता हूँ। मैंने यहाँ कोई अखबार नहीं खोला जो मैं कॉरपोरेट सेक्टर के हितों का ध्यान रखूँगा। मैंने यहाँ अपनी पहचान इसलिए सार्वजनिक नहीं की है और आप लोग जब भी मीडिया को कोसें तो साथ ही मेरे को भी कोसने लगें। ये मेरे अपने विचार हैं और ब्लॉग मैंने इसलिए ही शुरू किया है कि अखबारों में लिखने का स्कोप खत्म हो चुका है इसलिए उन विचारों को यहाँ लिखा जा सके। मैं ब्लॉग की दुनिया में कोई मीडिया का पक्ष रखने नहीं आया हूँ, सिर्फ और सिर्फ अपना पक्ष रखने आया हूँ। -सचिन
good post--------
keep it up
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