महाराष्ट्र के चुनावों ने यह जता दिया है
दोस्तों, कल आईबीएन-7 पर एक कार्यक्रम देख रहा था। उस कार्यक्रम का नाम था 'एजेण्डा'। उसमें बताया जा रहा था कि कैसे इस बार महाराष्ट्र के चुनावों में जीतकर आने वाले विधायकों में युवाओं की भरमार है। उनमें से कई युवा खूबसूरत थे। फल-फूल रहे थे और उनके चेहरे से रईसी टपक रही थी। उन्हें टीवी पर किसी स्टार की तरह दिखाया जा रहा था। ऐसा क्यों था इसके लिए आप अगला पेरा पढ़े, उन युवाओं के नाम के साथ-साथ उनके माँ-बाप के नाम भी पढ़े। तब ही बात थोड़ी क्लीयर हो पाएगी और आगे बढ़ पाएगी।
तो हमारे इस महान लोकतंत्र में जिसने राजशाही का चोगा कोई 62 साल पहले उतारकर फैंक दिया था, में महाराष्ट्र के ये चुनाव हुए। इनमें जो यंग ब्रिगेड आई है वो इस प्रकार है। चुने गए विधायकों में विलासराव देशमुख के पुत्र अमित देशमुख, सुशीलकुमार शिंदे की बेटी प्रणिती शिंदे, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के बेटे राव साहेब शेखावत, पूर्व केन्द्रीय मंत्री माणिकराव गावित की बेटी निमर्ला गावित, सांसद एकनाथ गायकवाड की बेटी वर्षा गायकवाड, पूर्व सांसद रामशेठ ठाकुर के बेटे प्रशांत ठाकुर आदि शामिल हैं। मजे की बात यह है कि इनमें से कई पहली बार ही मंत्री बनने की फिराक में हैं, अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं और मंत्रिमंडल में इनकी जगह पक्की कराने के लिए इनके माँ-बाप ने पूरा जोर लगा रखा है।
कई बार मुझे अपने देश के लोकतंत्र पर गुस्सा आता है। जब जनता ही सुधरना नहीं चाहती तो क्या किया जा सकता है। राज ठाकरे ने महाराष्ट्र चुनावों में सफलता पाई। मुझे लगता था कि ऐसा नहीं होगा लेकिन उसपर लिखे गए एक लेख और उसपर आई टिप्पणियों में मराठियों से गालियाँ खाने के बाद पढ़ें इसे मुझे लग गया था कि वो जरूर जीतेगा क्योंकि वहाँ का मानस उसके साथ था और भारतीयता के तमाम तर्क महाराष्ट्र के लोगों ने अपने-अपने तर्कों के साथ ठुकरा दिए थे। जब लोग ही लोकतंत्र को दुत्कार कर राजशाही, जात-पात में फँस जाएँ तो सिर्फ लेख लिखने भर से क्या हो जाएगा..?? अब इस खानदानवाद और नफरत की राजनीति का विस्तार हो रहा है। लेकिन हम यहाँ सिर्फ खानदानवाद की ही बात करेंगे।
पहले हमारे देश में राजा सत्ता हस्तांतरण किया करता था। अपने बेटे या कहें राजकुमार या युवराज को। राजकुमार अधिकृत रहता था अपने पिता से राज गद्दी लेने के लिए। बाद में वह राज करता था, फिर उसका बेटा, फिर उसका भी बेटा। यही नियम था। हिन्दू राजाओं ने भी यही नियम चलाया और बाद में आने वाले मुगल राजाओं ने भी। लोकतंत्र से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन आप भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की ओर जरा नजर डालकर देखिए। देश के ऊपर ज्यादातर किस खानदान का राज रहा है..?? बीच-बीच में कुछ छुटभैये आ गए लेकिन वो गाँधी-नेहरू परिवार की छाँव में ही पले-बढ़े। अन्यथा यह खानदान ही पिछले 60 बरसों से देश पर राज कर रहा है। पिछले दस वर्षों से देश पर पार्श्व में रहकर सोनिया गाँधी राज कर रही हैं। बीच में छह सालों के लिए भाजपा आई लेकिन अटलजी के बाद उसका कोई खेवनहार नहीं रहा और वो पूरे भारत में इस समय कमजोरी और हार का सामना कर रही है। उसके कमजोर होने से पहले से ही चरमराई और खत्म सी हो रही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है। बाकी क्षेत्रीय पार्टियाँ तो चल ही खानदानों के बूते रही हैं। उनमें शुरूआत भले ही किसी कद्दावर नेता ने की हो लेकिन वो आखिरी में सत्ता का हस्तांतरण अपने बेटे-बेटियों को ही करता है। मैं यहाँ नाम नहीं गिनाना चाहता लेकिन आप सभी क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में सोच कर देख लीजिए बात अपने आप प्रूव हो जाएगी।
आप ताकतवर परिवारों की बात करें। देश के सारे बिजनिस हाउस अपने परिवारों के तले अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं और उसे विस्तार भी देते हैं। इसके ढेरों उदाहरण हैं, बताने की जरूरत नहीं। खैर ठीक भी है, वो पूँजीवादी व्यवस्था है इसलिए बिजनिस एंपायरों के मालिकों के बेटे-बेटियाँ ही सबकुछ संभालते हैं। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को देखिए..वो कला से संबंधित होते हुए भी सिर्फ परिवार के लोगों के बलबूते ही चल रही है। पुराने एक्टर का बेटा पैदा होते ही स्टार बन जाता है, उसके बड़े होने का निर्माता इंतजार करते हैं, जबकि स्ट्रगल करने वाले प्रतिभाशाली युवा एड़ियाँ घिसते-घिसते ही बूढ़े हो जाते हैं। महाराष्ट्र चुनावों में मंत्रियों के बेटे-बेटियाँ युवाओं को मौका मिलने की बात कहकर आगे आना चाहते हैं लेकिन उनका क्या जो मौके की तलाश करते-करते बूढ़े हो गए। मतलब जब वो युवा थे तब उनसे अनुभव की अपेक्षा की गई थी और अब जब वे अनुभवी हैं तो उनसे युवा होने की अपेक्षा है। बेचारे, अब वो ना इधर के रहे ना उधर के।
ऐसा ही आपके और हमारे साथ भी है। अगर आपका 'बैक' नहीं है तो मजे करिए, आपके लिए कहीं कोई जगह खाली नहीं। लेकिन अगर है तो आप भी युवा हैं और आपको भी निश्चित ही मौका मिलेगा, बाकी अपने को तो कोई युवा ही मानने को तैयार नहीं। कुल मिलाकर अगर हम देश की राजनीति में जाना चाहें तो हमें दुआ करनी होगी कि अगले जन्म में भगवान हमें किसी सक्षम राजनीतिक परिवार में पैदा करे और किसी बड़े नेता की संतान बनाए...आमीन..।
आपका ही सचिन....।
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3 comments:
भारत मैं गुलामी वाली मानशिकता जब तक रहेगी तब तक खान्दान्वाद हावी रहेगा ...
सही लिखा है.....इस दॆश का यह दुर्भाग्य है कि देश की मानसिकता ही ऐसी बन गई है......
भारत का पढ़ा लिखा तबका इस उधर के संसदीय नेतातंत्र को खारिज कर चुका है. अभी मुंबई में वोटर टर्नआउट देख लें, सबसे ज्यादा वोट स्लम्स से पड़े, और कोलाबा (जहाँ देश की चुनिन्दा हस्तियां रहती हैं) से नहीं के बराबर वोट पड़े.
वोट अधिकतर पिछडे तबके से ही पड़ते है, क्योंकि पढ़े लिखे लोगों को तो पता होता है की वे वोट दे भी देंगे, तब भी जो विकल्पहीनता की स्थिति है उसमे सांपनाथ या नागनाथ में से ही कोई चुना जाएगा. यानि इस सिस्टम में सब वैसा ही रहेगा तो फायदा क्या?
जब एक तरफ माफिया का दलाल और एक तरफ खाऊ नेता का चश्मोचिराग, तो क्यों इस पाप में भागी बनें?
जब सालों से एक के बाद एक चुनाव में वोटर टर्नआउट पचास प्रतिशत से भी कम रह जाए तो क्या इसका मतलब यह नहीं है की देश ने बहुमत से मौजूदा संसदीय लोकतंत्र को नाकार दिया है?
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