April 24, 2009
अब ये कसाब भी छूटेगा..!!!!!!
मुंबई (भाषा), शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009( 14:28 IST )
मुंबई आतंकवादी हमलों में गिरफ्तार एकमात्र जिंदा आतंकवादी मोहम्मद अजमल आमिर कसाब की उम्र का पता लगाने के लिए अदालत ने जाँच का आदेश दिया। अदालत ने यह पता लगाने को कहा है कि कसाब नाबालिग अपराधी है या नहीं न्यायाधीश एमएल टाहिलियानी ने विशेष सरकारी वकील उज्ज्वल निकम को 28 अप्रैल को उन गवाहों से पूछताछ करने की अनुमति दी, जिनमें डॉक्टर तथा जेलर शामिल हैं। इन गवाहों से यह पूछा जाएगा कि क्या अपराध को अंजाम देते समय कसाब 18 साल से ऊपर का था और क्या वह नाबालिग अपराधी नहीं है। अदालत ने इसके साथ ही जेल प्रशासन को उसकी उम्र के निर्धारण के लिए कसाब को दंत परीक्षण और ओसिफिकेशन परीक्षण की खातिर भी ले जाने का निर्देश दिया। परीक्षण करने वाले रेडियोलॉजिस्ट तथा दंत चिकित्सक से अदालत के समक्ष 28 अप्रैल से पहले रिपोर्ट पेश करने को भी कहा गया है। आरोपी के वकील अब्बास काजमी ने बताया कि कसाब को भारी सुरक्षा बंदोबस्त के साथ इन परीक्षणों के लिए ले जाया जाएगा। यदि जाँच से यह साबित हो जाता है कि कसाब नाबालिग है, तो मामला बाल अपराध अदालत को सौंप दिया जाएगा। काजमी ने बताया कि बाल अपराध न्याय अधिकरण के तहत अधिकतम सजा तीन साल है।
इन बातों से समझे आप कुछ....????
यह कसाब भी अब छूटने के करीब जा रहा है। हमारे देश की सरकार और यहाँ की व्यवस्था को तो हम कोसते-कोसते थक गए हैं लेकिन फिर भी क्या कुछ नहीं बदलने वाला..?? एक कम उम्र लड़का (हत्यारा) हमारे देश में अपने सरीखे ही कुछ लड़कों के साथ घुस आता है। 200 मासूम लोगों को जान से मार डालता है, 300 लोगों को गंभीर रूप से घायल कर देता है। कई घर उजाड़ देता है। लेकिन हमारे देश का ढच्चर कानून है कि अपनी आदतों से बाज ही नहीं आ रहा। वह उस हत्यारे की उम्र का परीक्षण करवाना चाहते है। पहले ही हम उस अफजल को पाल रहे हैं अब इस कसाब को पालने की भी पूरी तैयारी की जा रही है। क्या हम कभी किसी को ऐसी सजा नहीं दे पाएँगे कि दूसरे उससे सबक सीखें..?? मुझे तो अब लगने लगा है कि भारत पर कोई परमाणु बम भी फैंक दें जिसमें कई लाख लोग मारे जाएँ,
और इत्तेफाक से उस बम को फैंकने वाला हमारी पकड़ में आ जाए तो हमारा कानून उस हत्यारे की भी लल्लो-चप्पो में लगा रहेगा और हम उसको भी सजा नहीं दे पाएँगे। अब तो कहने के लिए नए शब्द भी नहीं मिलते हैं। आखिर में चलते-चलते बस इतना ही एक सच्चा मुसलमान ही मुसलमान का साथ देता
है। कसाब के वकील अब्बास आजमी (जो शक्ल में ही सूअर की तरह दिखता है) ने बता दिया है कि कसाब अगर नाबालिग साबित हो जाता है तो वह अधिकतम 3 साल में छूट जाएगा। धन्य है हमारा देश...धन्य है हमारा कानून... और अन्त में धन्य हैं हम सब कि हमने यहाँ जन्म लिया। शायद यही कारण है कि देश की जनता का हमारी राजनीति और नेताओं से मोहभंग हो गया है। गिरता मतदान प्रतिशत इस बात को दर्शा रहा है। मुझ समेत देश की जनता अब इस सरकार और राजनीति से नफरत
करती है....सिर्फ नफरत..।
आपका ही सचिन..।
April 20, 2009
खतरनाक होगा 'ग्लोबल वार्मिंग' का असर
सचिन शर्मा
'ग्लोबल वार्मिंग' दुनिया के लिए कितनी बड़ी समस्या है, ये बात एक आम आदमी समझ नहीं पाता है। उसे ये शब्द थोड़ा 'टेक्निकल' लगता है इसलिए वो इसकी तह तक नहीं जाता है। लिहाजा इसे एक वैज्ञानिक परिभाषा मानकर छोड़ दिया जाता है। ज्यादातर लोगों को लगता है कि यह एक दूर की कौड़ी है और फिलहाल संसार को इससे कोई खतरा नहीं है। कई लोग इस शब्द को पिछले दशक से ज्यादा सुन रहे हैं इसलिए उन्हें ये बासी लगने लगा है।
भारत में भी ग्लोबल वार्मिंग एक प्रचलित शब्द नहीं है और भाग-दौड़ में लगे रहने वाले भारतीयों के लिए भी इसका अधिक कोई मतलब नहीं है। लेकिन विज्ञान की दुनिया की बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। यह खतरा तृतीय विश्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह (एस्टेरोइड) के पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है।
ये हुई कुछ ऊपरी बातें जो ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कही गईं लेकिन अगर हम इसकी तह में जाएँ तो हमें पता चलेगा कि वाकई यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है। पूरी दुनिया इससे प्रभावित हो रही है। अगर इसे नहीं संभाला गया तो यह किसी विश्वयुद्ध से ज्यादा जान-माल की हानि कर सकता है। सबसे पहले हमें इसकी कुछ शुरुआती बातें समझनी होंगी।
माना जाता है कि पिछली शताब्दी में यानी सन 1900 से 2000 तक पृथ्वी का औसत तापमान 1 डिग्री फैरेनहाइट बढ़ गया है। सन 1970 के मुकाबले वर्तमान में पृथ्वी 3 गुणा तेजी से गर्म हो रही है। इस बढ़ती वैश्विक गर्मी के पीछे मुख्य रूप से मानव ही है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, गाड़ियों से निकलने वाला घुँआ और जंगलों में लगने वाली आग इसकी मुख्य वजह हैं। इसके अलावा घरों में लक्जरी वस्तुएँ मसलन एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, ओवन आदि भी इस गर्मी को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रीन हाउस गैस वो होती हैं जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश तो कर जाती हैं लेकिन फिर वो यहाँ से वापस 'स्पेस' में नहीं जातीं और यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे।
दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जाएँगी, समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से दुनिया के कई हिस्से जलमग्न हो जाएँगे। भारी तबाही मचेगी। यह तबाही किसी विश्वयुद्ध या किसी 'एस्टेरोइड' के पृथ्वी से टकराने के बाद होने वाली तबाही से भी बढ़कर होगी। हमारे ग्रह पृथ्वी के लिए वो दिन बहुत बुरे साबित होंगे।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारक : जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के पीछे मुख्य रूप से ग्रीन हाउस गैसों का होना है। तो सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि ये गैसें कौन-सी हैं और कैसे पैदा होती हैं। ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें शामिल होती हैं। इनमें भी सबसे अधिक उत्सर्जन कार्बन डाइऑक्साइड का होता है। इस गैस का उत्सर्जन सबसे अधिक 'पॉवर प्लांट्स' से होता है।
याद रखें कि बूँद-बूँद से ही घड़ा भरता है। अगर हम ये सोचें कि एक अकेले हमारे सुधरने से क्या हो जाएगा तो इस बात को ध्यान रखें कि हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। सभी लोग अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें तो ग्लोबल वार्मिंग को भी परास्त किया जा सकता है
बिजली संयंत्रों को बिजली पैदा करने के लिए भारी मात्रा में जीवाश्म ईंधन (मसलन कोयला) का उपयोग करना पड़ता है। इससे भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होती है। माना जाता है कि संसार में 20 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड गाड़ियों में लगे गैसोलीन इंजन की वजह से उत्सर्जित होती है। इसके अलावा विकसित देशों के घर किसी भी कार या ट्रक से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं। इनको बनाने में कार्बन डाइऑक्साइड की बहुत मात्रा उत्सर्जित होती है। इसके अलावा इन घरों में लगने वाले उपकरण भी इन गैसों का उत्सर्जन करते हैं।
जागरूकता ही उपाय : ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का कोई इलाज नहीं है। इसके बारे में सिर्फ जागरूकता फैलाकर ही इससे लड़ा जा सकता है। हमें अपनी पृथ्वी को सही मायनों में 'ग्रीन' बनाना होगा। अपने 'कार्बन फुटप्रिंट्स' (प्रति व्यक्ति कार्बन उर्त्सजन को मापने का पैमाना) को कम करना होगा। हम अपने आसपास के वातावरण को प्रदूषण से जितना मुक्त रखेंगे इस पृथ्वी को बचाने में उतनी बड़ी भूमिका निभाएँगे।
याद रखें कि बूँद-बूँद से ही घड़ा भरता है। अगर हम ये सोचें कि एक अकेले हमारे सुधरने से क्या हो जाएगा तो इस बात को ध्यान रखें कि हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। सभी लोग अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें तो ग्लोबल वार्मिंग को भी परास्त किया जा सकता है। ये एक ऐसा राक्षस है जो जब तक सो रहा है, हम सुरक्षित हैं लेकिन अगर यह जाग गया तो हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा।
कहाँ से होता है ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन
पॉवर स्टेशन से - 21.3 प्रतिशत
इंडस्ट्री से - 16.8 प्रतिशत
यातायात और गाड़ियों से - 14 प्रतिशत
खेती-किसानी के उत्पादों से - 12.5 प्रतिशत
जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल से - 11.3 प्रतिशत
रहवासी क्षेत्रों से - 10.3 प्रतिशत
बॉयोमॉस जलने से - 10 प्रतिशत
कचरा जलाने से - 3.4 प्रतिशत
बढ़ रहा है खतरा : हमने टेलीविजन के माध्यम से संसार में ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बढ़ रहे खतरों को देखा है। आर्कटिक में पिघलती हुई बर्फ, चटकते ग्लेशियर, अमेरिका में भयंकर तूफानों की आमद बता रही है कि हम 'मौसम परिवर्तन' के दौर से गुजर रहे हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इसका असर सिर्फ समुद्र तटीय इलाकों पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि सभी जगह पड़ेगा।
माना जा रहा है कि इसकी वजह से उष्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी। मैदानी इलाकों में भी इतनी गर्मी पड़ेगी जितनी कभी इतिहास में नहीं पड़ी। इस वजह से विभिन्न प्रकार की जानलेवा बीमारियाँ पैदा होंगी। वैज्ञानिकों के अनुसार आज के 15.5 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान के मुकाबले भविष्य में 22 डिग्री सेंटीग्रेट तक तापमान जा सकता है।
हमें ध्यान रखना होगा कि हम प्रकृति को इतना नाराज नहीं कर दें कि वह हमारे अस्तित्व को खत्म करने पर ही आमादा हो जाए। हमें उसे मनाकर रखना पड़ेगा। हमें उसका ख्याल रखना पड़ेगा, तभी तो वह हमारा ख्याल रखेगी।
April 11, 2009
अपने में इतिहास समेटे बाग की गुफाएँ
प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ इतिहासबोध
सचिन शर्मा
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खासतौर से बौद्ध धर्म से जुड़े लोगों के लिए यह किसी तीर्थ से कम नहीं है। यह धार जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध बाग की गुफाएँ हैं जो अपने भित्ति चित्रों की वजह से अजंता के समकक्ष मानी जाती हैं। इन्हें भारत सरकार ने राष्ट्रीय महत्व का सुरक्षित पुरा स्मारक घोषित कर रखा है।
क्या है बाग में :
बाग नदी और बाग कस्बे के नाम की वजह से इन गुफाओं को 'बाग की गुफाओं' के नाम से जाना जाता है। गुफाओं के बनाने के लिए खूबसूरत जगह का चुनना यह बताता है कि बाग गुफा मंडप के निर्माता प्राकृतिक सौन्दर्य के उपासक थे। वर्ष 1953 में भारत सरकार द्वारा बाग गुफाओं को 'राष्ट्रीय स्मारक' घोषित किया गया। इसके संरक्षण का जिम्मा पुरातत्व विभाग को सौंपा गया। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के एक रेतीले पत्थर के पर्वत पर निर्मित इन गुफाओं की संख्या 9 है।
सातवीं, आठवीं और नौवीं गुफाओं की हालत ठीक नहीं है और वे अवशेष मात्र ही नजर आती हैं। इन गुफाओं की एक विशेषता यह भी है कि इनके अंदर जाकर इतनी ठंडक का अहसास होता है जैसे आप किसी एयरकंडीशन कक्ष में आ गए हों। गुफाओं के अंदर कई जगह से पहाड़ों से प्राकृतिक तरीके से पानी भी रिसकर आता रहता है। ये गुफाएँ कई शताब्दी पुरानी हैं।
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भित्ति चित्र अब संग्रहालय में :
बाग की गुफाओं के भित्ति चित्र कई शताब्दियों तक प्रकृति ने सहेजकर रखे थे। बाद में जंगलों की कटाई और गुफाओं में बाबाओं-महात्माओं द्वारा आग जलाने और धुँआ करने के बाद इन भित्ति चित्रों पर संकट मंडराने लगा। गुफाओं के अंदर चमगादड़ों ने भी अपने डेरे बना लिए थे। नमी और आर्द्रता की वजह से भी भित्ति चित्र प्रभावित हो रहे थे। तब इन्हें गुफा से हटाने का निर्णय लिया गया।
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बाद में इन चित्रों को गुफाओं के सामने निर्मित संग्रहालय में रखा गया। इन चित्रों को अब संग्रहालय में ही देखा जा सकता है। गुफाओं के भीतर अब सिर्फ मूर्तियाँ ही बची हैं जिनमें से अधिकांश बुद्ध की हैं या फिर बुद्ध के जीवनकाल से जुड़ी घटनाओं को बयान करती हैं।
कैसे जाएँ, कब जाएँ :
बाग की गुफाएँ बहुत सुंदर स्थान पर स्थित हैं। सामने बाग नदी बहती है और चारों ओर हरियाली तथा जंगल हैं। धार जिले में विंध्य श्रेणी के दक्षिणी ढाल पर, नर्मदा नदी की एक सहायक नदी बागवती के किनारे उसकी सतह से 150 फुट की ऊँचाई पर यह विश्व प्रसिद्ध गुफाएँ हैं। अगर आप स्वंय के वाहन से बाग जाना चाहते हैं तो उसमें काफी सहूलियत रहेगी। इंदौर से 65 किलोमीटर दूर है धार।
धार से 71 किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी क्षेत्र टांडा है। यहाँ पहुँचने के बाद बाग कस्बा सिर्फ 20 किमी दूर रह जाता है। बाग पहुँचने के बाद 7 किमी का रास्ता तय करके इन गुफाओं तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने का सबसे अच्छा मौसम बारिश का है क्योंकि गुफाओं के सामने बहने वाली बाग नदी उस समय बहती है। यह मौसमी नदी है और गर्मियाँ आने तक सूख जाती है। नदी के सूखने से वहाँ का दृश्य थोड़ा अधूरा-अधूरा सा लगने लगता है।
April 07, 2009
प्यार की घनी छाँव हैं ये बेटियाँ
(उर्मि कृष्ण)
प्यार की घनी छाँव हैं ये बेटियाँ
भर देती जिंदगी के अभाव ये बेटियाँ
बापू की आन में
पति की शान में
चाचा, ताऊ और जेठ, देवर
के भार में
मन के गुबार को, सद्भावना के नीचे
दफना रही हैं ये बेटियाँ
कुल की लाज में
सपूतों के निर्माण में
अपने अरमान को
मौन में
पी रही हैं ये बेटियाँ
कला की आड़ में
सौंदर्य के गुमान में
रंगमंच हो या टीवी
बेटी हो या बीवी
अखबार हो या पत्रिका
उघाड़ी जा रही हैं ये बेटियाँ
आग की आँच पर
चौपड़ की बिसात पर
सीता सावित्री के नाम पर
हर युग में दाँव पर
लगी हैं ये बेटियाँ
तुम कुछ भी कहो
कुछ भी करो
हर युग में मिटती आई है बेटियाँ
घर को सँवारती
जग को सुधारती
कभी न हारती
नया जन्म फिर फिर
लेती हैं बेटियाँ
नया जन्म फिर फिर
देती हैं बेटियाँ
April 04, 2009
पुष्प की अभिलाषा
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April 01, 2009
क्या सहेज पाएँगे हम नीले सोने को?
सचिन शर्मा
भारत में दिनोदिन पानी की कमी की खबरों के बीच कई बार मन शंकित हो उठता है। भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है। एक शोध के
अनुसार 70 साल बाद भारत में पानी की स्थिति काफी दयनीय स्तर तक पहुँच जाएगी। खबरों में रही इस शोध के अनुसार भारत में पिछले 150 वर्षों से लगातार अच्छी बारिश हो रही है।
इसकी बदौलत पूरे भारतीय भू-भाग पर कई नदियों ने जन्म लिया और कई अपने को जीवित रख पाईं, लेकिन लगता है वह दिन दूर नहीं जब इन्सान के (कु)कर्मों का फल उसके सामने आ जाएगा और नदियाँ, तालाब, जंगल सब हमसे रूठ जाएँगे। मानसून का मिजाज बिगाड़ने में 'ग्लोबल वार्मिंग' अपनी भूमिका निभा ही रही है। ऐसे में देश को अगले कुछ दशकों में ही उस स्थिति का सामना करना पड़ सकता है, जिसकी फिलहाल हम कल्पना भी नहीं कर रहे हैं।
पानी की महत्ता के बारे में हमें सब तरह के संचार माध्यमों से लगातार पता चलता रहता है। यह जानकारी संसार में रह रहे तमाम रंग-रूप के इन्सानों तक पहुँचती है, लेकिन इस सबके बावजूद सब एक ही तरह की नासमझी करने में लगे रहते हैं। शायद वर्तमान पीढ़ी को लग रहा है कि वो तो कैसे भी इस धरती से विदा हो लेगी लेकिन क्या कोई ये नहीं सोच रहा कि हम अपने बच्चों को कौन सी पृथ्वी देकर जाएँगे।
एक बंजर, सूखी और उजाड़ पृथ्वी, प्रकृतिविहीन पृथ्वी? हालाँकि इस मुद्दे पर संसार भर में चर्चा हो रही है, विभिन्न देशों की सरकारें पानी को बचाने के लिए उपाय करने की बात कर रही हैं, लेकिन हो कुछ भी नहीं पा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो लोग पशुओं की तरह मरेंगे और वैज्ञानिकों की वह बात चरितार्थ हो जाएगी कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।
पानी पर आजकल बहुत लिखा जा रहा है। टीवी पर भी बहुत कुछ दिखाया जा रहा है। पानी को नीला सोना और 21वीं सदी का पेट्रोलियम बताया जा रहा है, लेकिन इन व्यापारिक बातों के अलावा धरातल पर सरकारें क्या कर रही हैं? पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दोगुनी हो रही है। लेकिन गौर करने वाली बात है कि व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढ़ोतरी के बावजूद घरों में तथा नगर पालिकाओं में पानी की खपत कुल खपत का मात्र 10 फीसदी ही है। समस्या की असली जड़ तो उद्योग-धंधे हैं।
एक अनुमान के मुताबिक संसार के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का 25 प्रतिशत तो सिर्फ उद्योगों द्वारा ही इस्तेमाल कर लिया जाता है। इसके बाद भी उद्योगों की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ़ रहे कई उद्योग पानी की बेतहाशा खपत करते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेरिकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना 400 अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाता है। वहीं हीरा उद्योग भी बेतहाशा पानी का खर्च करता है। कपड़ा उद्योग और सॉफ्ट ड्रिंक्स उद्योग भी पूरी तरह पानी पर ही निर्भर हैं।
मैं जब राजस्थान में रह रहा था तो वहाँ पानी की किल्लत देखता था। सोचता था कि इस प्रदेश में 60 फीसदी से ज्यादा भू-भाग पर रेगिस्तान फैला है इसलिए ऐसा है। वो रेगिस्तान भी वहाँ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अब मैं अपने मध्यप्रदेश में आकर देख रहा हूँ तो यहाँ के हालात भी बहुत बेहतर नहीं हैं। कुछ दशक पहले तक इस प्रदेश में 40 फीसदी जंगल हुआ करते थे, लेकिन अब यह घटकर 18 फीसदी से भी कम रह गए हैं। इस प्रदेश को नर्मदा की अथाह जलराशि की नेमत मिली हुई है, लेकिन उसका रत्तीभर भी उपयोग यहाँ नहीं हो रहा। प्रति मिनट करोड़ों गैलन पानी इस प्रदेश से बहकर निकल जाता है। वह मीठा पानी जिसको पीकर, इस्तेमाल करके कई जीवन सँवर सकते हैं, लेकिन वो सब समुद्र में जाकर मिल जाता है।
इस देश की सरकार के पास टैक्स लगाने के तो नए-नए रास्ते हैं लेकिन इन नदियों का जल बचाने के लिए उपायों की कमी है। आखिर ऐसा कब तक चल पाएगा? बस कुछ साल और, फिर जब लोग ही नहीं रहेंगे तो सरकार टैक्स किस पर लगाएगी और शासन किस पर चलाएगी?
आर्कटिक क्षेत्र में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, यह बात किसी को भारत में बताओ तो वो कहेगा कि हमें क्यों 10000 किमी दूर की बात बता रहे हो। हमें उससे क्या मतलब? लेकिन उसे यह महसूस नहीं होगा कि उसका असर देर-सबेर उस पर भी पड़ेगा। लेकिन तब उसे संभलने का मौका नहीं मिलेगा। आने वाले समय की गंभीरता का लोगों को अब भी अंदाजा नहीं हो रहा है।
काश, कि वे समझ जाएँ कि वो कितनी बड़ी मुसीबत में फँसने वाले हैं और हम अपनी जीवनचर्या सुधारने की कोशिश करें। इससे सिर्फ पृथ्वी ही नहीं बचेगी बल्कि हम खुद भी बचेंगे।
भारत में दिनोदिन पानी की कमी की खबरों के बीच कई बार मन शंकित हो उठता है। भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है। एक शोध के
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इसकी बदौलत पूरे भारतीय भू-भाग पर कई नदियों ने जन्म लिया और कई अपने को जीवित रख पाईं, लेकिन लगता है वह दिन दूर नहीं जब इन्सान के (कु)कर्मों का फल उसके सामने आ जाएगा और नदियाँ, तालाब, जंगल सब हमसे रूठ जाएँगे। मानसून का मिजाज बिगाड़ने में 'ग्लोबल वार्मिंग' अपनी भूमिका निभा ही रही है। ऐसे में देश को अगले कुछ दशकों में ही उस स्थिति का सामना करना पड़ सकता है, जिसकी फिलहाल हम कल्पना भी नहीं कर रहे हैं।
पानी की महत्ता के बारे में हमें सब तरह के संचार माध्यमों से लगातार पता चलता रहता है। यह जानकारी संसार में रह रहे तमाम रंग-रूप के इन्सानों तक पहुँचती है, लेकिन इस सबके बावजूद सब एक ही तरह की नासमझी करने में लगे रहते हैं। शायद वर्तमान पीढ़ी को लग रहा है कि वो तो कैसे भी इस धरती से विदा हो लेगी लेकिन क्या कोई ये नहीं सोच रहा कि हम अपने बच्चों को कौन सी पृथ्वी देकर जाएँगे।
एक बंजर, सूखी और उजाड़ पृथ्वी, प्रकृतिविहीन पृथ्वी? हालाँकि इस मुद्दे पर संसार भर में चर्चा हो रही है, विभिन्न देशों की सरकारें पानी को बचाने के लिए उपाय करने की बात कर रही हैं, लेकिन हो कुछ भी नहीं पा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो लोग पशुओं की तरह मरेंगे और वैज्ञानिकों की वह बात चरितार्थ हो जाएगी कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।
पानी पर आजकल बहुत लिखा जा रहा है। टीवी पर भी बहुत कुछ दिखाया जा रहा है। पानी को नीला सोना और 21वीं सदी का पेट्रोलियम बताया जा रहा है, लेकिन इन व्यापारिक बातों के अलावा धरातल पर सरकारें क्या कर रही हैं? पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दोगुनी हो रही है। लेकिन गौर करने वाली बात है कि व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढ़ोतरी के बावजूद घरों में तथा नगर पालिकाओं में पानी की खपत कुल खपत का मात्र 10 फीसदी ही है। समस्या की असली जड़ तो उद्योग-धंधे हैं।
एक अनुमान के मुताबिक संसार के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का 25 प्रतिशत तो सिर्फ उद्योगों द्वारा ही इस्तेमाल कर लिया जाता है। इसके बाद भी उद्योगों की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ़ रहे कई उद्योग पानी की बेतहाशा खपत करते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेरिकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना 400 अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाता है। वहीं हीरा उद्योग भी बेतहाशा पानी का खर्च करता है। कपड़ा उद्योग और सॉफ्ट ड्रिंक्स उद्योग भी पूरी तरह पानी पर ही निर्भर हैं।
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इस देश की सरकार के पास टैक्स लगाने के तो नए-नए रास्ते हैं लेकिन इन नदियों का जल बचाने के लिए उपायों की कमी है। आखिर ऐसा कब तक चल पाएगा? बस कुछ साल और, फिर जब लोग ही नहीं रहेंगे तो सरकार टैक्स किस पर लगाएगी और शासन किस पर चलाएगी?
आर्कटिक क्षेत्र में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, यह बात किसी को भारत में बताओ तो वो कहेगा कि हमें क्यों 10000 किमी दूर की बात बता रहे हो। हमें उससे क्या मतलब? लेकिन उसे यह महसूस नहीं होगा कि उसका असर देर-सबेर उस पर भी पड़ेगा। लेकिन तब उसे संभलने का मौका नहीं मिलेगा। आने वाले समय की गंभीरता का लोगों को अब भी अंदाजा नहीं हो रहा है।
काश, कि वे समझ जाएँ कि वो कितनी बड़ी मुसीबत में फँसने वाले हैं और हम अपनी जीवनचर्या सुधारने की कोशिश करें। इससे सिर्फ पृथ्वी ही नहीं बचेगी बल्कि हम खुद भी बचेंगे।
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