April 04, 2009

पुष्प की अभिलाषा




माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के, 
गहनों में गूँथा जाऊँ, 

चाह नहीं प्रेमी-माला में, 
बिंध प्यारी को ललचाऊँ, 

चाह नहीं, सम्राटों के शव, 
पर, हे हरि, डाला जाऊँ 

चाह नहीं, देवों के शिर पर, 
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! 

मुझे तोड़ लेना वनमाली! 
उस पथ पर देना तुम फेंक, 

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने 
जिस पथ जाएँ वीर अनेक।

1 comment:

Udan Tashtari said...

आभार माखन लाल जी की इस रचना को प्रस्तुत करने का.