भारत में दिनोदिन पानी की कमी की खबरों के बीच कई बार मन शंकित हो उठता है। भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है। एक शोध के
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इसकी बदौलत पूरे भारतीय भू-भाग पर कई नदियों ने जन्म लिया और कई अपने को जीवित रख पाईं, लेकिन लगता है वह दिन दूर नहीं जब इन्सान के (कु)कर्मों का फल उसके सामने आ जाएगा और नदियाँ, तालाब, जंगल सब हमसे रूठ जाएँगे। मानसून का मिजाज बिगाड़ने में 'ग्लोबल वार्मिंग' अपनी भूमिका निभा ही रही है। ऐसे में देश को अगले कुछ दशकों में ही उस स्थिति का सामना करना पड़ सकता है, जिसकी फिलहाल हम कल्पना भी नहीं कर रहे हैं।
पानी की महत्ता के बारे में हमें सब तरह के संचार माध्यमों से लगातार पता चलता रहता है। यह जानकारी संसार में रह रहे तमाम रंग-रूप के इन्सानों तक पहुँचती है, लेकिन इस सबके बावजूद सब एक ही तरह की नासमझी करने में लगे रहते हैं। शायद वर्तमान पीढ़ी को लग रहा है कि वो तो कैसे भी इस धरती से विदा हो लेगी लेकिन क्या कोई ये नहीं सोच रहा कि हम अपने बच्चों को कौन सी पृथ्वी देकर जाएँगे।
एक बंजर, सूखी और उजाड़ पृथ्वी, प्रकृतिविहीन पृथ्वी? हालाँकि इस मुद्दे पर संसार भर में चर्चा हो रही है, विभिन्न देशों की सरकारें पानी को बचाने के लिए उपाय करने की बात कर रही हैं, लेकिन हो कुछ भी नहीं पा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो लोग पशुओं की तरह मरेंगे और वैज्ञानिकों की वह बात चरितार्थ हो जाएगी कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।
पानी पर आजकल बहुत लिखा जा रहा है। टीवी पर भी बहुत कुछ दिखाया जा रहा है। पानी को नीला सोना और 21वीं सदी का पेट्रोलियम बताया जा रहा है, लेकिन इन व्यापारिक बातों के अलावा धरातल पर सरकारें क्या कर रही हैं? पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दोगुनी हो रही है। लेकिन गौर करने वाली बात है कि व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढ़ोतरी के बावजूद घरों में तथा नगर पालिकाओं में पानी की खपत कुल खपत का मात्र 10 फीसदी ही है। समस्या की असली जड़ तो उद्योग-धंधे हैं।
एक अनुमान के मुताबिक संसार के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का 25 प्रतिशत तो सिर्फ उद्योगों द्वारा ही इस्तेमाल कर लिया जाता है। इसके बाद भी उद्योगों की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। सर्वाधिक तेजी से बढ़ रहे कई उद्योग पानी की बेतहाशा खपत करते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेरिकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना 400 अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाता है। वहीं हीरा उद्योग भी बेतहाशा पानी का खर्च करता है। कपड़ा उद्योग और सॉफ्ट ड्रिंक्स उद्योग भी पूरी तरह पानी पर ही निर्भर हैं।
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इस देश की सरकार के पास टैक्स लगाने के तो नए-नए रास्ते हैं लेकिन इन नदियों का जल बचाने के लिए उपायों की कमी है। आखिर ऐसा कब तक चल पाएगा? बस कुछ साल और, फिर जब लोग ही नहीं रहेंगे तो सरकार टैक्स किस पर लगाएगी और शासन किस पर चलाएगी?
आर्कटिक क्षेत्र में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, यह बात किसी को भारत में बताओ तो वो कहेगा कि हमें क्यों 10000 किमी दूर की बात बता रहे हो। हमें उससे क्या मतलब? लेकिन उसे यह महसूस नहीं होगा कि उसका असर देर-सबेर उस पर भी पड़ेगा। लेकिन तब उसे संभलने का मौका नहीं मिलेगा। आने वाले समय की गंभीरता का लोगों को अब भी अंदाजा नहीं हो रहा है।
काश, कि वे समझ जाएँ कि वो कितनी बड़ी मुसीबत में फँसने वाले हैं और हम अपनी जीवनचर्या सुधारने की कोशिश करें। इससे सिर्फ पृथ्वी ही नहीं बचेगी बल्कि हम खुद भी बचेंगे।
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