September 04, 2009

भारत को समेटने के प्रयास में एकजुट दुश्मन

हमें पड़ोसियों की हर चाल पर नजर रखनी होगी


दोस्तों, कुछ दिनों से भारत को लेकर कुछ मनहूस खबरें सामने आ रही हैं। सबसे पहले पता चला कि हमारे दुश्मन नंबर 1 चीन ने भारत के खिलाफ अपनी कूटनीतिक चालें तेज कर दी हैं। फिर पता चला कि पाकिस्तान ने अमेरिका से मिली हारपून मिसाइलों में कुछ छेड़छाड़ कर उन्हें भारत के खिलाफ प्रभावी बनाने के लिए तैयार किया है। बाद में इसी टुच्चे पाकिस्तान की ओर से एक खबर यह भी आई कि वह अपने परमाणु हथियारों का जखीरा बढ़ाने में लगा है। वह अपने परमाणु कार्यक्रम का विस्तार कर रहा है और यह भी कि वह अपने परमाणु हथियारों की तैनाती की तैयारी में भी जुटा हुआ है। साथ ही यह भी कि वह सोमालियाई लुटेरों का भी साथ दे रहा है और हिन्द महासागर में जहाजों को लुटवाने में मदद कर रहा है और हाल ही में इस मामले में 12 पाकिस्तानी नागरिकों को पकड़ा भी गया है। सबसे बड़ा तुर्रा यह कि पकड़े गए जहाजों को छुड़वाने या अपने जहाजों को लूट से बचाने वाली बात कहकर चीन अपने नौसेना बेड़े की हिन्द महासागर में तैनाती कर चुका है और कुल मिलाकर बात भारत को घेरने की है। एक अनुमान के मुताबिक पाकिस्तान के पास 70-80 परमाणु बम हैं जबकि चीन के पास कितने हैं उनकी तो गिनती ही नहीं है और यह सिर्फ उसे ही पता है। उसकी सब बातों की तरह यह भी एक रहस्य ही है। इनमें से ज्यादातर बातों का खुलासा दूर बैठे अमेरिका ने किया है। आखिर हम क्यों मेहनत करें जब अमेरिका खुद ही सबकुछ पता करके हमें बता देता है (!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!)...

दोस्तों, यह खबरें तब आई हैं जब हमारे यहाँ राजनीतिक हल्ला मचा हुआ है। भाजपा में घमासान मचा हुआ है, जसवंत सिंह आडवाणी की पोलें खोले जा रहे हैं और कांग्रेस ने हाल ही में अपना एक प्रभावी मुख्यमंत्री खो दिया है। इससे पहले एक और घमासान मच चुका था। लेकिन यह दूसरे मगर रिलेटेड टॉपिक पर था। भारत के रज्ञा वैज्ञानिक संथानम जी ने यह मुद्दा उछाला था। उनका कहना है कि भारत द्वारा किया गया फ्यूजन बम या कहें हाईड्रोजन बम फुस्स था। इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि वो उतनी शक्ति का नहीं था जितना की दावा किया गया था। भारत को अपनी शक्ति सुनिश्चित करने के लिए और विस्फोट करने चाहिए। उल्लेखनीय है कि फिजन तकनीक से अणु बम (एटम बम) बनाया जाता है जबकि फ्यूजन तकनीक हाईड्रोजन बम में काम आती है। इस खबर से जहाँ भारत में हंगामा मच गया वहीं हमारे दुश्मनों की बाँछें खिल गईं। वो नई तैयारियों में लग गए जबकि हमारे यहाँ सफाई देने का सिलसिला चल पड़ा। संथानम के इस दावे को पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम और विख्यात परमाणु वैज्ञानिक डॉ. अनिल काकोड़कर ने तुरंत खारिज किया। लेकिन मीन-मेख निकालने वाले तत्कालीन भाजपा सरकार को घेरे में लेने लगे, बिना ये सोचे कि इससे दुनिया में हमारी क्या छवि प्रस्तुत होगी और ये भी कि हमारे बनाए हुए बमों की ताकत पर फिर कौन विश्वास करेगा और क्योंकर हमसे डरेगा..?? इस बीच हमारे वित्तीय दिमाग के रक्षामंत्री चिदंबरम ने तो यह तक कह दिया कि संथानम के इस दावे की जाँच कराई जाएगी जबकि हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बात को संभाला और कहा कि इस बात पर बहस नहीं होनी चाहिए और डॉ. कलाम के बोलने के बाद इस बहस को समाप्त माना जाना चाहिए।

दोस्तों, इस पूरे घटनाक्रम को मैं दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ लेकिन संथानम की एक बात का मैं समर्थक हूँ। मुझे लगता है कि भारत को और अधिक परमाणु विस्फोट करने चाहिए। उसे अपनी ताकत लगातार बढ़ाते रहना चाहिए और उसे समय-समय पर जाँचते भी रहना चाहिए क्योंकि हम चारों ओर दुश्मनों से घिरे हुए हैं। इस ताकत की कब जरूरत पड़ जाए यह कहा नहीं जा सकता। दूसरे, हमारे चारों ओर अमेरिका भी अपना शिकंजा कस रहा है। ठीक रेटीक्युलेटेड पाइथन (अजगर की संसार का सबसे बड़ी प्रजाति जो 10 मीटर तक लंबी होती है) की तरह। हालांकि फिलहाल हमारे उससे संबंध अच्छे चल रहे हैं लेकिन वो हमारी तरफ सिर्फ दो कारणों से झुका हुआ है। एक तो उसे चीन से खतरा है और दूसरे इस्लामिक आतंकवाद से। ये दोनों ही हमारे आस-पास हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जहाँ इस्लामिक आतंकवाद का गढ़ हैं वहीं चीन तो हमारे सिर से ही लगा हुआ है। ऐसे में अमेरिका का हमारे साथ रहना लाजिमी है। लेकिन परमाणु समझौते के बाद हमारे सभी परमाणु रिएक्टर उसकी नजरों में आ जाएँगे और एक बार इन रिएक्टरों का काम शुरू होने के बाद हमारा आगे परमाणु विस्फोट करने का रास्ता मुश्किल भरा या कहें असंभव हो जाएगा। ऐसे में हमें ये कदम तुरंत उठाना होगा।

हालांकि भारत जैसे सघन आबादी वाले देश में मैं परमाणु संयंत्रों को लगाने का विरोधी हूँ। इसके कुछ अपने कारण भी हैं। मैंने हमारे हिन्दी वैब पोर्टल पर इस विषय पर तीन विस्तृत लेख लिखें हैं। आप भी इन्हें पढ़ सकते हैं और इसके बाद अपनी राय भी जाहिर कर सकते हैं। ये रहीं इनकी लिंक्स..।
परमाणु समझौते के पीछे का काला सच
पहले भारत के परमाणु संयंत्र तो सुधरें
परमाणु ऊर्जा से पीछा छुड़ा रहा है अमेरिका

दोस्तों, अमेरिका पाकिस्तानी मंसूबों को भाँपकर उसे जल्दी ही दी जाने वाली 7.5 अरब डॉलर की सहायता को रोक सकता है लेकिन इससे क्या हो जाएगा..?? वो पहले ही पाकिस्तान के पाले में 20 अरब डॉलर की मदद फैंक चुका है और इससे पाक ने दो नए प्लूटोनियम रिएक्टर और उपयोग में आने वाले रासायनिक पदार्थों का निमार्ण शुरू कर दिया है। उसके विनाशक हथियारों का जखीरा उसकी राजधानी इस्लामाबाद के नजदीक ही जमा हो रहा है। वो इन्हें बंकरों में जमा कर रहा है और अमेरिका ने तो इन बंकरों की उपग्रह से ली गई तस्वीरें भी जारी कर दी हैं। इसके अलावा पाक शाहीन-2 का विकास, बैलेस्टिक मिसाइल वाली पनडुब्बी निर्माण, दो नई परमाणुचालित क्रूज मिसाइल और बाबर व राड मिसाइलों के उन्नतीकरण में लगा हुआ है। पाकिस्तान किस कदर दोगला है यह तो हम पिछले 60 सालों से जान-समझ रहे हैं। उसके लिए तैयारी भी कर रहे हैं लेकिन दिन पर दिन वह फिर भी नए उदाहरण पेश करता रहता है। हाल ही उसने अपने 15 मोस्ट वांडेट आतंकियों की सूची तैयार की है। लेकिन इसमें लश्कर-ए-तयैबा का सर्वेसर्वा वो हाफिज सईद शामिल नहीं है जिसने पिछले वर्ष मुंबई पर हमला करवाया था। इसके भी दो कारण हैं। पहला तो यह कि सईद को पाकिस्तान में धर्म गुरू समझा जाता है ना कि आतंकवादी सरगना। दूसरे, सईद ने फिलहाल अमेरिका का कुछ नहीं बिगाडा़ है इसलिए वो लिस्ट से बाहर है क्योंकि इस लिस्ट में वही आतंकी शामिल हैं जो अमेरिका और उसकी फौजों के लिए खतरा बने हुए हैं।

हम इस समय इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं जब हमारे चारों ओर शुत्रओं का जमावड़ा है और जिसमें से दो शत्रु परमाणु शस्त्रों से लैस हैं। भारत और यहाँ की राजनीतिक पार्टियों और अपनी दैनंदिन राजनीति से ऊपर आकर हाल फिलहाल भारत और उसके भविष्य के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि हर बार हमें खतरे के प्रति अमेरिका ही आगाह नहीं करेगा......!!!!!!!!!!!!!

आपका ही सचिन....।

2 comments:

Mithilesh dubey said...

आपकी चिन्ता जायज है। धारदार लेख, बधाई.......

ab inconvenienti said...

गलत, अमेरिका का हाल फ़िलहाल भारत की और झुकाव दर्शाना मात्र एक बुनियादी कारण से है : विशालकाय बाज़ार और आकूत प्राकृतिक सम्पदा का लालच.

इस्लामिक कट्टरवाद भी अमेरिका का ही खडा किया हुआ है, यह बात साबित की जा चुकी है की 911 का हमला अमेरिका की खाड़ी (पढें तेल) हड़पने की दूरगामी योजना का उद्घाटन था. अमेरिका की नीतियाँ वहां के शक्तिशाली व्यापारिक घराने तय करते हैं न की बुद्धिजीवी.

डब्लूटीओ और एलपीजी की नीतियाँ अमेरिका ने ही भारत में लागु करवाई जबकि इसमें भारत और भारतीय किसानों का नुकसान ही था, जो आज लाखों किसानों की बर्बादी और आत्महत्याओं के रूप में सामने आ चुका है. अमरीकी शिकंजा भारत को हर तरह से फंसा चुका है, सरकार, पक्षविपक्ष, अर्थव्यवस्था, नौकरशाही, बैंकिंग, निवेश, अधोसंरचना, थिंक टैंक्स और सशस्त्र सेनाओं तक में अमरीकी एजेंट लगे हुए हैं.

याद होगा की परमाणु विस्फोट के बाद जब भारत अपनी शर्तों को लेकर अड़ गया था तो अमेरिका ने भारतीय नेताओं और नौकरशाहों के बच्चों के वीसा और ग्रीनकार्ड निरस्त करने शुरू कर दिए, भारत तुंरत नर्म पड़ गया.

क्या यह आश्चर्य नहीं है की सुई से लेकर अंतरिक्षयान की टेक्नोलोजी में आत्मनिर्भर भारत आज भी हर छोटे बड़े हथियार और फाइटर जेट्स की आपूर्ति के लिए अमरीकी और इस्राइली कम्पनियों पर निर्भर है? जबकि चीन (१९४७ में हमसे अधिक गरीब था ) आज पूरी तरह आत्मनिर्भर है और महाशक्ति है. कारण साफ़ है, की अगर भारत में ही सैन्य उपकरणों की दिज़ईनिंग और उत्पादन होने लगा तो रक्षा विभाग के नौकरशाह, मंत्री, बिचौलिए सेना के बड़े अधिकारी कैसे दलाली खा पाएंगे?

भारत अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका का उपनिवेश बन चुका है, न केवल आर्थिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी.

पड़ोस के एक बड़े देश को अमेरिका ने इतनी आसानी से कब्जे में ले लिया और चीन देखता रह गया, यह बात अब चीन से हजम नहीं हो रही. उसकी सोच है की पडोसी होने के नाते उसका हक़ पहले बनता है, बस इसी बात की लडाई है. वर्ना न तो अमरीका भारत का सगा है न चीन पाकिस्तान का, दोनों मतलब के यार हैं.