August 24, 2009

युवाओं की यह कैसी सोच!

सिर्फ कोसने भर से नहीं चलेगा काम

दोस्तों, आज मैंने डॉयचे वेले, जर्मन रेडियो की हिन्दी वैबसाइट पर एक खबर पढ़ी। यह खबर जर्मनी के युवाओं को लेकर है। खबर के अनुसार जर्मनी में 1968 में जन्मी पीढ़ी ने अपने माँ-बाप और उनके नाजी इतिहास के खिलाफ आवाज उठाई है। आज की जर्मन पीढ़ी खफा है कि उन्हें खराब पर्यावरण व लचर सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था मिली है। जर्मनी में कई युवाओं को लगता है कि समाज में हर तरह के बोझ को उचित ढंग से नहीं बाँटा गया है। एक युवती कहती है, 'कभी-कभार मुझे बहुत गुस्सा आता है। खासकर जब मैं उन लोगों को देखती हूँ जो अब 65 साल की उम्र के हैं। यह सही है कि उन्होंने बहुत सालों तक खूब काम किया, उन्होंने शायद युद्ध भी देखा। लेकिन वे लोग अब अपनी पेंशन के साथ मजे में जिंदगी गुजार रहे हैं। और मुझे यह भी नहीं पता कि जब मैं पेंशन पाने लायक होऊँगी, तो उस पैसे से मेरा गुजारा हो भी पाएगा या नहीं।

ऐसी ही राय एक युवक की भी है। वह कहता है, 'मैं बुजुर्गों को दोष नहीं देना चाहता हूँ, लेकिन यह बात सही है कि उनके फैसलों की वजह से पर्यावरण को लेकर गंभीर समस्याएँ पैदा हुई हैं। यह भी सही है कि जर्मनी घाटे में चल रहा है, इस देश को बहुत कर्ज लेना पड़ा है। 25 वर्ष के इस युवक वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर ने राजनीति शास्त्र की पढ‍ाई की है। हाल ही में उनकी तीसरी किताब निकली है। शीर्षक है, 'युवाओं की क्रांति, कैसे हम पीढ़ियों के संघर्ष से बच सकते हैं। वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर बताते हैं, 'हमको हमारी नानी या हमारे माँ-बाप से कोई नफरत नहीं है, लेकिन हकीकत यह है कि जर्मन समाज में विवाद बढ़ रहे हैं। उदाहारण के लिए जर्मनी में फैसला लेने वालों के पास जो भी पैसा होता है, उन्हें बहुत गौर से सोचना पड़ता है कि वे इसे कैसे खर्च करें। वे इसे पेंशन में बढ़ोतरी लाने के लिए इस्तेमाल करें, या फिर शिक्षा और पर्यावरण के लिए।'

वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर का मानना है कि जर्मन सांसद सभी फैसले ज्यादातर बुजुर्ग पीढ़ी की जरूरत के अनुसार लेते हैं। आठ करोड़ की आबादी वाले जर्मनी में करीब दो करोड़ लोगों की उम्र 65 साल से ज्यादा है। वह एक बहुत ही महत्वपूर्ण समुदाय है और एक बड़ा वोट बैंक भी है। इसके अलावा वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की हालत को देखते हुए चिंतित हैं। वे कहते हैं, 'सबसे चिंता वाली बात यह है कि जो हम अपने बच्चों को विरासत में देंगे और जो हमें अपने माँ-बाप से विरासत में मिला है वह है पर्यावरण आपदा। जब मैं 40 या 50 साल का होऊँगा, तब मैं इस आपदा को महसूस भी करने लगूँगा। पृथ्वी ज्यादा गरम होगी, जलवायु में भी बदलाव आएगा। यानी हमें आज वह भुगतना पड़ेगा जिसके लिए बीते हुए कल के फैसले लेने वाले जिम्मेदार हैं।' वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर का कहना है कि पृथ्वी का शोषण किया गया है। कई इलाकों में तो पीने के साफ पानी की भी कमी है, तो कहीं बाढ़ बढ़ गई है। विकसित देशों में खासकर पश्चिमी यूरोप के देशों में या अमेरिका में यह देखा जा सकता है कि कम बच्चों की वजह से समाज बूढ़े ही होते जा रहे हैं।

क्या बुजुर्ग पीढ़ी को युवाओं की स्थिति पर अफसोस है। इसपर एक बुजुर्ग की राय है, 'नहीं, मुझे किसी बात का अफसोस नहीं है क्योंकि आप पीढ़ियों और उनकी समस्याओं की तुलना नहीं कर सकते हैं। सबकी अपनी-अपनी चुनौतियाँ हैं। मैं भी तो अपनी तुलना अपने पिता से नहीं करता हूँ जिन्होंने दो युद्ध देखे हैं। मैं खुद को किसी चीज का दोषी नहीं मानता हूँ बल्कि मुझे बहुत उम्मीद है कि युवा सभी चुनौतियों को पार कर पाएँगे।। वहीं एक बुजुर्ग महिला कहती हैं, 'मैं इस बात से बहुत दुःखी हूँ कि हमने युवाओं को विरासत में कुछ अच्छा नहीं दिया, खासतौर पर पर्यावरण की अगर बात हो। कई मामलों में हम शायद अंधे ही थे जैसे कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद हर कीमत पर अर्थव्यवस्था के विकास में जुटे रहे। उपभोग ही सब कुछ है।' वोल्फगांग ग्रुएंडिंगर कहते हैं, 'मैं अपनी पीढ़ी से अपील करूँगा कि वह भी अपने हितों की रक्षा की माँग करे और चीजें जैसी हैं, उन्हें वैसी ही स्वीकार न करे। इस पीढ़ी को परिवर्तनों के लिए काम करना चाहिए। यह हमारी दुनिया है, हम इसमें जीना चाहते हैं और आज की नीतियों का असर हमें सबसे लंबे समय तक भुगतना होगा।'

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दोस्तों, जब मैं इस खबर को पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि भारतीय मध्यवर्ग के युवाओं जैसी ही सोच है जर्मन युवाओँ की। वो तीस साल की उम्र के आसपास ही पेंशन की सोचकर चिंतित रहने लगे हैं। इसी चिंता के बूते पर आपको टीवी पर दिन रात पेंशन प्लान बताने वाली कंपनियों के विज्ञापन देखने को मिल जाएँगे जो पूरे समय बताते रहते हैं कि आप कभी भी मर सकते हैं इसलिए जल्दी ही इंश्योरेंस पॉलिसी ले लीजिए या आप बूढ़े हो जाएँगे तब आपको कोई भी नहीं पूछेगा इसलिए फटाफट पेंशन स्कीम ले लीजिए। इसके साथ ही हमें यह भी बताया जाता है कि आपको आज जितने खर्चे मेंटेन करने के लिए तीस साल बाद पेंशन स्कीम वाली बैंक या कंपनी को 25 लाख (कम से कम) रुपए जमा करवाने होंगे तभी आप आज जितनी राशि पेंशन के तौर पर पा सकेंगे।

ऊपर बताई गई खबर से एक बात और साफ होती है कि जर्मनी के युवाओं को यह नहीं लगता कि उनके बुजुर्गों ने दो विश्व युद्धों की विभिषिका को झेला और उन्हें एक बेहतर जर्मनी बनाकर दिया..हाँ वे सामाजिक ढाँचे को जरूर कोस रहे हैं और जानना चाह रहे हैं कि उनके पास पेंशन वाली नौकरी क्यों नहीं है गोया कि वे वर्तमान में जीकर भविष्य की उलझन में हैं और भूतकाल को कोस रहे हैं।

पर्यावरण और पानी के मुद्दे पर हमें अपने भूत को ही नहीं वर्तमान को भी कोसने की जरूरत है क्योंकि समय अभी भी है लेकिन हम कुछ करते नहीं, सिर्फ हाथ पर हाथ धरे समाज को कोसते रहते हैं। मुझे लगता था कि यह आदत सिर्फ भारत के युवाओं में ही है लेकिन जर्मनी जैसे विकसित देश के युवा भी नाकारा हैं और अपनी असफलताओं का दोष अपने बुजुर्गों पर मढ़ रहे हैं जिन्होंने उनको पालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया।

दोस्तों, अभी कुछ ही दिन पहले मेरी किसी से बात चल रही थी। बात महंगाई पर थी। तो उन्होंने अचानक बोल दिया कि कहाँ है महंगाई...मैंने कहा अरे भाई, दाल 90 रुपए किलो बिक रही है। और मैंने इसी दाल को 15 रुपए में भी खरीदा है जबकि मेरी उम्र तो अभी ज्यादा भी नहीं है। फिर कैसे नहीं हुई महंगाई। इसपर वो बोले, अरे भईया एक समय जब महंगाई बढ़ती थी तो लोग आंदोलन पर उतर आते थे। युवाओं की भी उसमें भूमिका होती थी क्योंकि कोई भी आंदोलन बिना युवाओं के कभी हो ही नहीं सकता। आज जब आम आदमी का खर्चा भी नहीं चल रहा है और शादीशुदा युवा खर्चे के डर से बच्चे पैदा करने से भी बच रहा है ऐसे में भी भारतीय मानस और युवा सिर्फ सरकार, देश या यहाँ की व्यवस्थाओं को कोसने में ही लगा हुआ है। वह सिर्फ सह रहा है लेकिन कोई कदम नहीं उठा रहा। कुल मिलाकर हम (युवा) किसी एक मामले में भी आंदोलनकारी नहीं होते। कभी बहस में भी भाग नहीं लेते, वोट करने और लोकतंत्र की प्रक्रिया में भी भाग नहीं लेते, हाँ नेताओं और राजनीति को गाली जरूर देते हैं लेकिन ये जानते हुए भी कि बिना वहाँ जाए वो सुधर नहीं सकती, हम राजनीति में भी नहीं जाते। हाँ, बहुत हुआ तो बेहतर सुविधाओं के नाम पर अपना देश छोड़कर जरूर चल देते हैं। ये स्थाई हल नहीं है और हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस ट्रांसीशन फेज में यही समय है कि हम (युवा) बिना डरे राष्ट्र निर्माण की भूमिका में उतरें। हमें जर्मनी के युवाओं से अलग रुख अपनाना ही होगा क्योंकि भारत को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है और इसमें युवाओं की भूमिका निश्चित ही बहुत महत्वपूर्ण है।

आपका ही सचिन....।

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