जी. पार्थसारथी
3 नवंबर 2000 को जमात-उद-दावा (पूर्व में लश्कर-ए-तोइबा) के मुख्यालय पर एकत्रित हजारों जेहादियों की भीड़ के सामने गरजते हुए आमिर-ए-लश्कर हाफिज मोहम्मद सईद ने कहा था, 'जिहाद सिर्फ कश्मीर तक सीमित नहीं है। पन्द्रह साल पहले अगर कोई सोवियत संघ के टुकड़े होने की बात कहता था तो लोग उस पर हँसते थे। इंशाअल्लाह, आज मैं भारत के टूटने की घोषणा करता हूँ। हम तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक की सारा हिन्दुस्तान पाकिस्तान में समा नहीं जाता।'
पिछले दो दशकों से सईद खुलेआम जंग की ऐसी घोषणा कर रहा है कि जैसे उसके जरिए सारे भारत को लील जाएगा। मुंबई में हुए 26/11 के हमले तक किसी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन भारत को तोड़ने की हाफिज की मुहिम नौ साल से जारी है। नवंबर 2000 में दिए इस भाषण के तुरंत बाद सईद ने देश के दिल में स्थित ऐतिहासिक लालकिले पर हमला करने के लिए अपने मुजाहिदीन भेजे, तारीख थी 22 दिसंबर 2000। इस हमले के बाद इस्लामी पार्टियों के राजनेताओं के सामने सईद ने छाती ठोक कर कहा कि उसने दिल्ली के लालकिले पर इस्लाम का हरा झंडा फहरा दिया है।
हाफिज मोहम्मद सईद न कभी एक साधारण आदमी था, न अब है। उसे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरपरस्ती भी हासिल थी।
गौरतलब है कि 1998 में पंजाब के गवर्नर शाहिद हमीद और सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन सैयद को खुद हाफिज से बात करने और आभार जताने के लिए भेजा था। क्यों न हो? आखिरकार सईद द्वारा पाले-पोसे वहाबी/ सलाफी इस्लामी स्कूल को नवाज शरीफ के वालिद मियाँ मोहम्मद शरीफ का संरक्षण (तबलीगी जमात के जरिए) हासिल था। इसके अलावा जमीनी स्तर पर लश्कर का करीबी रिश्ता पाकिस्तानी आर्मी तथा आईएसआई के साथ भी है, जो कि चरमपंथी गुटों को हथियार, प्रशिक्षण और सैन्य सहायता देते हैं, किंतु भारत के टुकड़े करने संबंधी सईद के बयान क्या सिर्फ उसकी अपनी सोच है या उसके इस वक्तव्य में पाकिस्तान और विशेषकर पाकिस्तानी सेना की व्यापक रणनीति उजागर होती है? उस रणनीति से पाकिस्तान के हुक्मरान भी नावाकिफ या अलग नहीं हो सकते। चाहे वे फौजी शासक हों या वोट से चुनकर आए प्रतिनिधि हों।
पाकिस्तान का विचार सबसे पहले चौधरी रहमत अली ने 1933 में प्रकट किया था जिसने आकार ग्रहण किया 1944 में मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव में। पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ एक आम मान्यता रही थी कि भारत एक कमजोर देश होगा क्योंकि हैदराबाद में निजाम का राज है और द्रविड़ लोग अपना अलग द्रविड़िस्तान बना लेंगे।
अलगाववाद को प्रोत्साहन देते हुए मोहम्मद अली जिन्ना सवर्ण हिन्दुओं के प्रति तिरस्कारपूर्वक बोलते थे। वे इस बात पर जोर देते थे कि दक्षिण भारत के लोगों की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और पहचान अलग-अलग है और उनकी पहचान शेष भारत से भिन्न है।
दूसरी ओर महात्मा गाँधी ने बाबा साहेब आम्बेडकर जैसे नेताओं के साथ मिलकर दलितों के प्रति सदियों से हो रहे अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, तब भी जिन्ना ने दलितों को अलग करने की ओछी कोशिश की।
उन्होंने तो जोधपुर एवं त्रावणकोर-कोचिन जैसी रियासतों को भी अपने आपको स्वतंत्र घोषित करने के लिए उकसाया था। उनका लक्ष्य स्पष्ट था- भारत के छोटे-छोटे टुकड़े कर दो ताकि उपमहाद्वीप में मुस्लिम राज्य का दबदबा रहे। 1946 के कैबिनेट मिशन प्लान के अनुसार जिन्ना की सोच यह थी कि दस साल के भीतर पश्चिम से संयुक्त पंजाब व सिंध तथा पूर्व से बंगाल व असम कमजोर भारत से टूटकर अलग हो जाएँगे।
अँगरेजों के साथ जिन्ना का भी मानना था कि भारत के केन्द्र में एक कमजोर सरकार है जो देश के विभिन्न हिस्सों को मजबूती से थामे रखने में अक्षम है। इस तरह जिन्ना का लक्ष्य, भारत के प्रति, हाफिज मोहम्मद सईद के इरादों से कुछ अलग नहीं था। हालाँकि जिन्ना वस्तुतः अनीश्वरवादी इस्माइली थे जबकि सईद वहाबी मंसूबों का पक्षधर है।
लियाकत अली खान से लेकर जनरल परवेज मुशर्रफ तक जिन्ना के वारिसों ने भारत से अपने रिश्तों को इसी सोच के आधार पर बनाए रखा कि भारत एक कमजोर देश है। 1965 में फील्ड मार्शल अयूब खान ने यही सोचकर भारत पर हमला किया कि प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री एक कमजोर नेता हैं जो कि गंभीर अलगाववाद से जूझ रहे हैं। ये समस्याएँ थीं पंजाब में पंजाबी सूबा आंदोलन, द्रविड़ पार्टियों द्वारा दक्षिण में हिन्दी विरोधी दंगे तथा उत्तर-पूर्व में लगातार चलती दिक्कतें, लेकिन हिन्दुस्तानियों की एकता के सामने पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी।
जनरल जिया-उल-हक ने भारत में अलगाववाद को भड़काने के लिए एक विस्तृत नेटवर्क बनाया और पंजाब में हिन्दू-सिख विभाजन का षड्यंत्र रचा। यह साजिश नाकाम सिद्ध हुई क्योंकि हिन्दू और सिख दोनों ही पाकिस्तान की मंशा को समय रहते ताड़ गए थे। लेकिन जम्मू- कश्मीर में पाकिस्तानी आईएसआई की कोशिशें जारी हैं।
इसलिए यह बात हैरान करती है जब कोई भारतीय जिन्ना के दिलो-दिमाग के गुणों की स्तुति करता है। सिर्फ इसलिए कि वे कभी धर्मनिरपेक्ष हुआ करते थे। लेकिन उन्हें इस इल्जाम से बरी नहीं किया जा सकता कि मजहबी आधार पर देश के बँटवारे और कत्लेआम के लिए जिन्ना की जिम्मेदारी बनती है।
पूर्व राजनयिक नरेन्द्रसिंह सरिला ने बहुत सतर्कतापूर्वक एक किताब लिखी है- 'द शैडो ऑफ द ग्रेट गेम-द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ पार्टीशन' जिसमें उन्हें खुलासा किया है कि मई 1946 में कैबिनेट मिशन के भारत आने से पहले, एक के बाद एक आए ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो तथा लॉर्ड वेवैल पहले ही फैसला कर चुके थे कि भारत का बँटवारा करके उत्तर-पश्चिम में एक मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना की जाए। सीमाएँ ईरान, अफगानिस्तान तथा चीन के सिंकियांग सूबे से लगती हों। यह इसलिए था कि फारस की खाड़ी में मौजूद तेल के खजाने पर ब्रिटिश हित सुरक्षित किए जा सकें।
मोहम्मद अली जिन्ना ने 1939 में अँगरेजों के इस उद्देश्य को आगे बढ़ाने का काम किया। पाकिस्तान के रूप में उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की स्थापना की जो अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का केन्द्र बन गया है। पाकिस्तान अब एक ऐसा देश है जिस पर सामंतवादी फौज का राज चलता है और जो हाफिज मोहम्मद सईद और मौलाना मसूद अजहर को पाल-पोस रहा है। अंततः समस्त विश्लेषण का लब्बोलुआब यही निकलता है कि ये कायदे आजम जिन्ना की विरासत है जो वे दुनिया और इस उपमहाद्वीप को देकर गए हैं, जिसमें हम सभी रहते हैं।
(लेखक पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रहे हैं) (साभारः वैबदुनिया)
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