अपनी बात इस खबर को सुनाने के बाद ही शुरू कर पाउंगा। यह खबर मैंने अखबार में छपे एक लेख के अंदर पढ़ी, या कहें पूरा लेख ही इस खबर के ऊपर निर्भर था। इसके लेखक पारसनाथ चौधरी अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं। यह पूरी खबर अपने आप में एक विवेचना भी है। दोस्तों मैं चाहता हूँ कि पहले आप इसे पढ़े और फिर मैं इस लेख के दूसरे भाग में अपनी बात कहूँगा। हालांकि जो दोस्त मुझे पहले पढ़ते रहे हैं उन्हें महसूस होगा कि इस खबर के अंदर की ज्यादातर बातें मैं पूर्व के अपने लेखों में अलग-अलग तरह से कहता रहा हूँ लेकिन यह खबर मेरी उन सभी बातों पर एक सील या कहें एक ठप्पे की तरह होगी जो उन सब बातों की सच्चाई खुद बयान करेगी। तो खबर इस प्रकार है....
हाल ही में जर्मनी के हाइडलबर्ग शहर में भारत पर एक क्लब द्वारा आयोजित परिसंवाद में युवा जर्मन अर्थशास्त्री क्रिस्टियान ओलडिगस ने ग्लोबीकृत (भूमंडलीकृत) हो रहे भारत की जमकर आलोचना की। उनके मुताबिक भारत का भूमंडलीकरण महज एक भ्रम है और इससे आम भारतीयों को कुछ भी लेना-देना नहीं है। इस ग्लोबलाइजेशन के बाद भारत में गैर-बराबरी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और भारतीय समाज खतरनाक ढंग से विभाजित होने लगा है। माली हालत इतनी खराब है कि अफ्रीका के गरीबों से तुलना किए बिना नहीं रहा जा सकता। भारत में सरकार केवल पंद्रह से बीस प्रतिशत लोगों के लिए ही काम करती है और वह देश में व्यापक आर्थिक-सामाजिक रूपांतर संगठित करने के बिल्कुल ही काबिल नहीं है। आँकड़ों और तथ्यों का हवाला देते हुए ओलडिगस ने कहा कि आज भी भारत में ६० से ७० प्रतिशत बच्चों को जन्म लेने पर माँ का दूध नसीब नहीं हो पाता, ४६ प्रतिशत बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं,, ५६ प्रतिशत बच्चों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है और ८० प्रतिशत बच्चे रक्तहीनता से पीड़ित हैं। प्राथमिक स्कूलों में नामांकन का अनुपात ८७ प्रतिशत है जो पड़ोसी देश बांग्लादेश के ९५ प्रतिशत के मुकाबले बेहद शर्मनाक है। (विदित है कि बांग्लादेश का नाम संसार के कुछ सबसे गरीब देशों में शुमार है और आर्थिक रूप से उसे भारत के आस-पास भी स्वीकार नहीं किया जाता)उच्चतर शिक्षा की भी स्थिति दयनीय है और शिक्षण संस्थानों की भारी कमी है। यही कारण है कि भारत में हर साल ४० प्रतिशत मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा ग्रहण करने से वंचित होना पड़ता है। इतना ही नहीं सालाना दो लाख भारतीय छात्र उच्चतर पढ़ाई के लिए पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं और उन्हें फीस के रूप में वहाँ करोड़ों डॉलर का भुगतान करना पड़ता है। इस परिसंवाद में भाग लेने वाले दूसरे जर्मन विशेषज्ञ के मुताबिक भूमंडलीकरण के बाद से हर क्षेत्र में भारत की स्थिति में गिरावट देखी जा रही है। सस्ते श्रम और अत्यंत सीमित तकनीकी और औद्योगिक क्षमता के मिश्रण पर आधारित भारतीय सफलता की कहानी भ्रम पैदा करने वाली है। भारत में प्रशिक्षित श्रम और यहाँ तक की ठीक-ठाक अंग्रेजी बोलने वालों की कमी भी साफ दिखने लगी है। विदेशी कंपनियों का भारत के श्रम बाजार से मोहभंग होने लगा है और यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। आकलन के मुताबिक भारत योग्य श्रम के निर्माण में पिछड़ने लगा है और इसके कारण उसकी प्रगति की गति धीमी हो सकती है। स्कूली शिक्षा इतनी महंगी होती जा रही है कि अधिकांश भारतीय अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकेंगे। प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई छोडऩे वाले बच्चों की संख्या अभी ही तीस प्रतिशत तक चली गई है। उनका मानना है कि एक कायदे की शिक्षा व्यवस्था के बिना भारतीय अर्थव्यवस्था आवश्यक सक्रियता हासिल नहीं कर सकती है। परिसंवाद में भाग लेने वाले अन्य विद्वानों ने भी भारत में हो रहे वर्तमान विकास मॉडल की सख्त आलोचना की। नब्बे के दशक से भारत संतुलित विकास हासिल करने के बजाए एक निष्ठुर समाज में परिवर्तित होता दिख रहा है। आम लोगों के हितों की रक्षा की बात विवेकहीन तर्क लगने लगी है। हालत यह हो गई है कि हर तीस मिनट में भारत का एक किसान कर्ज या भुखमरी की समस्या से तंग आकर आत्महत्या कर लेता है। भारत में दसवीं कक्षा के छात्रों में आत्महत्या करने वालों की संख्या पश्चिमी देशों की तुलना में १५ प्रतिशत से भी अधिक है। चमकदार मॉल और मल्टीप्लेक्स की भरमार वीभत्स लगती है, लेकिन इन्हें मध्यम वर्ग के मुक्ति के प्रभावी स्त्रोतों के रूप में प्रचारित किया जाता है। उपभोग आतंक के ये केन्द्र गंदे, मलिन, बदबूदार और मध्यकालीन अड़ोस-पड़ोस से घिरे दिखते हैं। शालीन मानवीय जीवन कहीं भी दिखाई नहीं देता है। इस हालत में कौन कहता है कि भारत में धनी लोग भी रहते हैं। भूमंडलीकरण तो मात्र मोहभ्रम मुहैया करने की साजिश लगता है। भारत पर बहस में भाग लेते हुए भौतिक शास्त्र के जर्मन नोबेल विजेता प्रोफेसर गुंडबर्ग ने अपने भाषण में भारत की शिक्षा के महज प्रतियोगिता में रूपांतरण पर अफसोस जाहिर किया। नोबेल विजेता के मुताबिक यह दुख की बात है कि भारत जैसे प्राचीन सभ्यता से सुसज्जित देश में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति की सुखद प्रक्रिया होने के बजाए परीक्षाओं में सौ प्रतिशत अंक प्राप्त करने के एकमात्र लक्ष्य के रूप में संकुचित हो गई है। यह प्रवृत्ति भारत की गौरवशाली बौद्धिक संस्कृति को तहस-नहस कर देगी। पश्चिम में भारत पर हो रही नई बहसें लीक से हटकर और रोचक लगती हैं। भारत का भूमंडलीकरण प्रेमी राजनीतिक वर्ग इन बहसों से बहुत कुछ सीख सकता है। हालांकि मैं इन सारे विचारों का समर्थन नहीं करता क्योंकि मैं कोई इन जर्मनों का अंधभक्त नहीं हूँ, कि जो ये कहेंगे मैं मान लूँगा लेकिन यह भी तय है कि उन्होंने अधिसंख्य बातें वास्तविक धरातल पर सही कही हैं। तो इस विषय पर और इन बिंदुओं पर मेरे स्वयं के विचार इस लेख (इसे खबर भी पढ़ सकते हैं) के दूसरे भाग में आप पढ़ सकेंगे......तब तक के लिए विदा दोस्तों। आपका ही सचिन......।
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