November 25, 2008

शिक्षा का व्यवसायीकरण और स्कूलों की भूमिका



भारत में शिक्षा के क्षेत्र का क्या महत्व है ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है। हमारे देश के करोड़ों बच्चे हर सुबह अपना बस्ता लेकर स्कूल जाते हैं। हर माता-पिता की तमन्ना रहती है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर खूब बड़ा बने और दुनिया में खूब नाम रोशन करे। इन स्वप्नों को पूरा करने में स्कूल और हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। लेकिन विडंबना है कि लोगों के जीवन को गढ़ने वाली यह पाठशाला आजकल एक ऐसे भयावह काले वातावरण से घिरती जा रही है जिससे निकलना फिलहाल तो काफी मुश्किल नजर आ रहा है। यह काला स्याह वातावरण व्यावसायिकता का है। वो व्यवसायिकता, जिसने अच्छी शिक्षा को सिर्फ रईस लोगों की बपौती बनाकर रख दिया है और साधारण तथा मध्यमवर्गीय परिवार अब बड़े स्कूलों को दूर से टकटकी लगाकर देखते हैं और सोचते हैं कि काश उनका बच्चा भी ऐसे स्कूलों में पढ़ पाता।

अब आप लोगों के लिए एक जानकारी। कि भारत में स्टेट पीरियड यानी आजादी के पहले स्थापित हुए कुछ स्कूलों का आज भी बहुत नाम है। ये स्कूल अपनी उच्च स्तर की शिक्षा के लिए देश में ही नहीं पूरी दुनिया में अपना नाम बनाए हुए हैं। इन स्कूलों की लिस्ट में कुछ स्कूल आजादी के बाद भी जुड़े हैं। इन स्कूलों को शान से कॉलेज भी कहा जाता है। लेकिन आम बातचीत में इन्हें पब्लिक स्कूल कहा जाता है। इनकी संख्या देश में नौ है। ये पब्लिक स्कूल हैं ग्वालियर का सिंधिया स्कूल, कोलकाता का बिशप स्कूल, राजकोट का राजकुमार कॉलेज, अजमेर का मेयो कॉलेज, इंदौर का डेली कॉलेज, देहरादून का दून स्कूल, दिल्ली का दिल्ली पब्लिक स्कूल आदि। इन स्कूलों में प्रतिवर्ष फीस के रूप में प्रति छात्र एक लाख से दो लाख रुपए खर्चा आता है। तो साहब ये स्कूल पब्लिक स्कूल जरूर हैं लेकिन ये पब्लिक के लिए हैं नहीं, आम लोगों को इन शानदार स्कूलों से दूर ही रखा गया है, बस पब्लिक सिर्फ इनके नाम के साथ, और नाम के लिए ही जुड़ी हुई है। तो दोस्तों इन स्कूलों में क्या कुछ नहीं है। कई वर्ग किलोमीटर वर्ग क्षेत्र में ये स्कूल फैले होते हैं। इनमें पढ़ने के साथ-साथ संगीत, कला के साथ ही घुड़सवारी, तैराकी, ग्लाइडर और छोटे हवाई जहाज उड़ाने से लेकर विदेशों की ट्रिप तक शामिल होती है। तो ये स्कूल पढ़ने वालों के लिए जन्नत हैं और हमारी पहुँच से बहुत दूर हैं इसलिए हम इनकी ज्यादा बात नहीं करेंगे। मैं सिर्फ यह कहूँगा कि इनमें पढ़ना और अपने बच्चों को यहाँ पढ़ाना दोनों ही स्टेटस सिंबल हैं और पूरी जिंदगी ये बताने के काम में आते हैं कि हमारी पढ़ाई इन स्कूलों से हुई।

अब बात स्थानीय स्कूलों की करते हैं। इंदौर, जयपुर, पूना, हैदराबाद जैसे बी ग्रेड शहरों (बी ग्रेड यानी जो देश के चारों महानगरों में नहीं आते लेकिन महानगर बनने की ओर अग्रसर हैं) में तमाम ऐसे स्कूल हैं जो वाकई पब्लिक के लिए हैं लेकिन उन्होंने एक नई विडंबना पैदा कर दी है। इन स्कूलों में अपने बच्चों को ४-५ साल पहले जिन माता-पिता ने ५ हजार रुपए सालाना फीस में भर्ती किया था, उन स्कूलों में इतने वर्षों में फीस बढ़कर २५-३५ हजार रुपए साल हो गई। यानी चार-पाँच साल पहले की फीस के मुकाबले पाँच से छह गुना ज्यादा। तो क्या वाकई पिछले पाँच सालों में हमारी कमाई में पाँच से छह गुना इजाफा हुआ है। और मान भी लेते हैं कि हुआ है तो ऐसे कितने प्रतिशत लोग हैं जो इस स्तर की कमाई कर रहे हैं। इंदौर में रहते हुए मैं आज भी ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जो तीन हजार रुपए में अपने परिवार का महीना भर पेट पालते हैं, तो क्या वे ऐसे स्कूलों के बारे में सोच भी सकते हैं जो उनके बच्चे को महीने भर पढ़ाने के बदले ३ हजार रुपए मांग रहा है......???

दोस्तों, स्कूलों ने काली कमाई कर-करके नाक में दम कर दिया है। जो स्कूल कुछ साल पहले कुछ कमरों में चल रहा था वो आज एकड़ों में फैले कैम्पस और कई हजार बच्चों की स्ट्रेन्थ के साथ सिर उठाए खड़ा है और शहर के कई नामी-गिरामी लोग अपने बच्चों को वहाँ एडमिशन करवाने के लिए लाइन लगाकर खड़े हुए हैं। आखिर उनके बच्चे को वहाँ ऐसा क्या मिलने वाला है, पश्चिमी कल्चर और धड़ाधड़-फटाफट अंग्रेजी बोलने में पारंपगतता........???अभी इस सेशन में मैं अपनी बच्ची को इंदौर के एक स्कूल में ले गया। वो स्कूल यहाँ का जाना-माना है। उन्होंने मेरी तीन साल की छोटी बच्ची को एडमिशन देने के लिए ३२ हजार रुपए माँगे। मैं भौंचक्का रह गया क्योंकि ये उनकी फीस थी कोई डोनेशन नहीं। अरे भाई एक साल में आप ऐसा क्या निहाल कर देंगे, ३ साल के एक बच्चे के साथ कि आपको ३२ हजार रुपए दे दिए जाएँ। इतने रुपए जितने में हमारी तो पूरी पढ़ाई ही हो गई। क्या इसी वजह से लोग एक बच्चे के बाद दूसरे बच्चे के बारे में सोच नहीं रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इतनी महंगी परवरिश वे कहाँ से दे पाएँगे......??? ........... लोग अपना पेट काटकर ऐसे फाइव स्टार स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं बिना ये सोचे कि क्या ये स्कूल वाकई ऐसा कुछ उनके बच्चों को दे रहे हैं कि वो १२ साल में कई लाख रुपए उन स्कूलों को दे दें। हालांकि मैंने ये ३२ हजार रुपए कम ही बताए हैं। मेरे ही घर के पास एक ऐसा स्कूल भी है जिसकी सालाना फीस ६५ हजार रुपए है। ५० हजार सालाना फीस वाले कई स्कूलों के बारे में भी मैं जानता हूँ। आप सच मानिए, मैं हैरान और आश्चर्यचकित हूँ।

दोस्तों, कालांतर में इस व्यवसाय बनती शिक्षा का क्या होगा, मैं नहीं कह सकता लेकिन इतना तय है कि सरकारी स्कूल अपनी सिकुड़ती भूमिका में हैं और जिस देश के सरकारी स्कूलों में १८ करोड़ से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हों, उस देश में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई करने वाले बच्चों को नाकारा और ठुस्स करार दे दिया जाता है, ये निहायत ही दुख वाली बात है। हम मानते हैं कि हमारी सरकार शिक्षा को राज्य स्तर में बाँटने के कारण स्कूली शिक्षा का स्तर बनाए रखने में पिछड़ गई लेकिन केन्द्रीय विद्यालयों की सफलता बताती है कि स्कूली लेवल पर शिक्षा का अच्छा स्तर बनाकर रखा जा सकता है बशर्ते केन्द्र इसमें दिलचस्पी ले। केन्द्र को यह भी सोचना चाहिए कि वो आम जनता को क्यों इस प्रकार लुटने दे रही है। इन व्यवसायिक निजी स्कूलों के स्तर की ही शिक्षा मिशनरी स्कूल (मसलन सेंट पॉल, कॉन्वेन्ट, सेंट जेवियर, सेंट रैफल, सेंट नारबर्ट आदि) भी दे रहे हैं और अपेक्षाकृत काफी कम फीस में, तो कुछ स्कूलों को ऐसा अधिकार क्यों कि वो बच्चों के भोले-भाले अभिभावकों से एक साल की पढ़ाई का आधा लाख रुपया वसूल ले। मुझे लगता है कि मैंने आज कई लोगों की दुखती रग पर हाथ रखा होगा, ये मेरी भी दुखती रग है लेकिन क्या करें फिलहाल इसका कोई इलाज नहीं दिख रहा है।

आज से पाँच साल पहले हम चार रिपोर्टरों ने इसी इश्यू पर दैनिक भास्कर, जयपुर के लिए १५ दिनों तक लगातार स्टोरियाँ की थीं, निजी स्कूलों की जमकर खाल उतारी थी, और उन दिनों हमारे मोबाइलों पर एक दिन में १५०-१५० फोन तक आते थे ( तब अभिभावकों की शिकायतें सुनने के लिए हमारे मोबाइल नंबर अखबार में छापे जा रहे थे) जिनमें निजी स्कूलों के रवैए से दुखी अभिभावक अपना दुख-दर्द हमसे बाँटते थे। उन्हें लगता था कि हम उन्हें इस लूटमारी से बचा लेंगे, क्या पता था कि आज पाँच साल बाद हम खुद उस लूटमारी का शिकार बनेंगे और हमारे पास अपना दर्द बाँटने के लिए कोई मोबाइल नंबर तक ना होगा.......।

आपका ही सचिन.........।

2 comments:

हुत्थल said...

सचिन जी आप की चिंता वाजिब है । लेकिन दोष पब्लिक या फिर र्पाईवेट स्कूल का नही बल्कि हमारे सरकारी ढाँचे की है जो शिक्षा की योजनाऍ बनाते है ओर यह तय करते है कि वो केसे क्रियांवित होती है। वैसे ये समस्या इससे भी जटिल है।

ab inconvenienti said...

पब्लिक स्कूल न सही सरकारी ही सही, वह भी नहीं तो को अनौपचारिक सेवाभावी संगठन भी चलेगा. पर असल चीज़ है की लोग अपने बच्चों को पढाएं. कम से कम यह पढ़े लिखे होंगे जैसे इनके बाप और आजोंदादों का शोषण इन एलीटों ने किया, आगे की पीढियां यह नहीं भोगेंगी.

एलीट तो हमेशा चाहते हैं की आम लोगों को शिक्षा से दूर रखा जाए, और जिनको मिल गई उन्हें स्वतंत्र सोच और पुस्तकों तक न पहुँचने दिया जाए. उदहारण के लिए इंदौर में कितने सार्वजानिक सरकारी पुस्तकालय हैं, और कितने सुविधासम्पन्न हैं, इंदौर के कितने छात्र महीने में कम से कम एक पुस्तक सिलेबस के आलावा पढ़ते हैं, समझ आ जाएगा की शिक्षा के साथ विचारों की क्या स्थिति है.