November 23, 2008

विज्ञापन की दुनिया में लड़कियाँ!



भारत का फिल्में बनाने में बहुत नाम है। इस देश में कोई डेढ़ हजार फिल्में प्रतिवर्ष बनती हैं और सिर्फ हॉलीवुड ही फिल्में बनाने के मामले में भारत से आगे है। यह बात अलग है कि भारत में फिल्मों को सफलता मिलने का प्रतिशत १० फीसदी से भी कम है और ९० प्रतिशत से ज्यादा फिल्में दर्शकों द्वारा ठुकरा दी जाती हैं। लेकिन मैं यहाँ फिल्मों की बात नहीं कर रहा हूँ। मेरा विषय विज्ञापन की दुनिया है। यह मेरा पसंदीदा विषय भी है क्योंकि विज्ञापन की भाषा के ऊपर ही मेरी पीएचडी (डॉक्टरेट) भी हुई है।

तो दोस्तों बहुत कम लोगों को यह पता है कि भारत संसार में अपनी फिल्मों को लेकर उतना प्रसिद्ध नहीं है जितना विज्ञापनों को लेकर है। इस देश में बनने वाले विज्ञापनों का क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) के मामले में नंबर बहुत ऊँचा आता है। यहाँ के कई एड मेकर्स ने देश-विदेश के कई जाने-माने पुरस्कार प्राप्त किए हैं और एड गुरु भी कहलाए हैं। मैं आपको कुछ उदाहरण भी दे सकता हूँ, मसलन पीयूष पांडे फैवीकॉल का एड बनाकर पूरी दुनिया में प्रसिद्धि पा चुके हैं। प्रसून जोशी भी बड़ा नाम बन गए हैं। प्रह्लाद कक्कड़ को कौन नहीं जानता। इस मीनार पर चढ़ने की शुरुआत अलीक पद्मसी ने की थी, लिंटास से। प्रीतीश नंदी भी इस क्षेत्र को खंगाल कर बहुत से हीरे निकाल चुके हैं। तो दोस्तों लिस्ट लंबी है। बहुत से गोल्डन ग्लोब और कांस एड या क्लेरियान अवार्ड इन सबने जीते। इस देश में कई विज्ञापनों का बजट ही कई हिन्दी फिल्मों के बजट से बड़ा होता है। वह भव्यतम तरीके से और अत्याधुनिक तकनीक से फिल्माए जाते हैं। लेकिन यहाँ मैं कुछ बुरी शक्ल बनाना चाहता हूँ।

आजकल मैं जिन विज्ञापनों को देख रहा हूँ उन सबमें एक कॉमन बात मुझे दिख रही है। कि सारे विज्ञापनों में लड़कियों की भरमार है। यह बुरी बात नहीं है लेकिन रचनात्मकता के नाम पर विज्ञापनों में इस बात को तरजीह दी जा रही है कि मर्द (मेल) औरतों (फीमेल) को किस प्रकार रिझा पाएँ। अगर अच्छी मोटरसाइकिल या कार का विज्ञापन हो तो भी मकसद वही दिखाया जाता है, यानी लड़कियों को रिझाना। शेविंग क्रीम का एड हो या अंडरवियर का.........ये सब अश्लीलता की हदें पार कर रहे हैं। सबमें बस उक्त बात ही कॉमन है। अब लोग कोल्ड ड्रिंक और पानी भी विज्ञापनों में सिर्फ इसलिए ही पी रहे हैं। कपड़े भी इसलिए पहने जा रहे हैं। किस-किस विज्ञापन का उदाहरण दूँ, सब एक जैसी थीम पर ही बन रहे हैं।

भारत जिसने विज्ञापन की दुनिया में इतना नाम कमाया क्या ऐसे विज्ञापन बना बनाकर अपनी शानदार इमेज को ध्वस्त नहीं कर लेगा। जब मैं बार-बार भारत के बारे में यह बात कर रहा हूँ तो आपको अतिश्योक्ति लग सकती है। तो आप विदेशी चैनलों पर जाकर देखिए। अरब या रूस या पाकिस्तान यहाँ तक की योरप के विज्ञापन देखिए....आपको मेरी बात पर विश्वास हो जाएगा। कि वो रचनात्मकता को लेकर हमारे आगे कहीं नहीं हैं। अमेरिका के विज्ञापन देखिए.....उनमें शूँ..शाँ ज्यादा रहती है। मतलब कि डिजीटल तकनीक का उपयोग। जैसा कि हॉलीवुड फिल्मों में होता है। भारतीय विज्ञापन टचिंग होते हैं, संवेदनशील होते हैं, समाज की बातें करते हैं। उनमें थ्रिल के साथ-साथ बात कहने वाला माद्दा भी होता है। लेकिन वर्तमान में जो बहलाने-फुसलाने वाले विज्ञापन बन रहे हैं वो हमारी उस रचनात्मकता वाली इमेज को धक्का पहुँचा रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि विज्ञापन की दुनिया तक हमारे मन की बात जरूर किसी दिन पहुँचेगी और आगे भी वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार जीतने के प्रयास करती रहेगी। इसके लिए उसे गंभीर प्रयास करने होंगे। सिर्फ लड़कों को लड़कियाँ पटाते या ऐसा ही करते हुए दिखाने से विज्ञापन का संसार बाज आएगा ऐसी आशा और विश्वास हमें करना चाहिए।

आपका ही सचिन......।

3 comments:

संगीता पुरी said...

बिल्‍कुल सही कहना है आपका।

manglam said...

बधाई हो डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने की। धन्यवाद ब्लॉगवाणी का कि आपके दीदार हुए। सराहनीय उपस्थिति दजॅ कराई है आपने। विज्ञापन पर बहुत ही सटीक तरीके से आपने अपना पक्ष रखा है। धन्यवाद। आजकल आप कहां हैं, इसकी सूचना ई-मेल manglammk@gmail.com से देंगे। धन्यवाद।

वेद रत्न शुक्ल said...

धूमिल की यह कविता याद आ गई---
"स्त्री पूंजी है
बीड़ी से लेकर
बिस्तर तक
विज्ञापन में फैली हुई।"
वास्तव में हद तो हो ही गई है। विज्ञापनों में रचनात्मकता होती थी लेकिन बाजारीकरण इसे चबा चुका है अब लीलना बाकी है। नारी को तो उसने भोग की वस्तु बना दिया है।