January 08, 2009

राजनीति के दबाव में मुस्लिम हित

राकेश सिन्हा
भारत में मुस्लिमों की सामाजिक -आर्थिक अवस्था का मूल्यांकन करने का सांप्रदायिक व औपनिवेशिक फॉर्मूला अपनाया गया है। वह है मुस्लिमों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति की हिन्दुओं से तुलना किया जाना और खास निष्कर्ष पर पहुँचना। फॉर्मूला औपनिवेशिक हुकूमत ने 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद निकाला था। भारतीय राष्ट्रवाद का उभरता उग्र स्वरूप उसके अस्तित्व पर खतरे की तरह मँडरा रहा था।

अतः साम्राज्यवादियों ने हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच अविश्वास, संदेह व प्रतिद्वंद्विता 
  हंटर ने बखूबी मुसलमानों के आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन का दोष सरकारी नीतियों एवं हिन्दुओं के ऊपर मढ़ दिया। उसने निष्कर्ष निकाला कि अँगरेजी शिक्षा हिन्दुओं को लाभ पहुँचा रही है और मुसलमानों को इसके प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह के कारण इससे दूर रख रही है      
को स्थापित करने के लिए सोच-समझकर व्यूह रचना की। इसी की पहली व मजबूत कड़ी थी मुसलमानों के आर्थिक, रोजगार, शिक्षा से जुड़े पहलुओं का अध्ययन कराना। इसकी जिम्मेदारी विलियन विल्सन हंटर को 1871 में सौंपी गई थी। हंटर 'भारतीय' प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं 'बंगाल गजट' के संपादक थे।


हंटर ने बखूबी मुसलमानों के आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन का दोष सरकारी नीतियों एवं हिन्दुओं के ऊपर मढ़ दिया। उसने निष्कर्ष निकाला कि अँगरेजी शिक्षा हिन्दुओं को लाभ पहुँचा रही है और मुसलमानों को इसके प्रति धार्मिक पूर्वाग्रह के कारण इससे दूर रख रही है। अतः मुसलमानों का हिस्सा भी हिन्दुओं के खाते में जा रहा है। वहाबी आंदोलन ने हिंसात्मक गतिविधियों के द्वारा शासक वर्ग को बेचैन कर रखा था अतः कट्टरपंथियों को विश्वास में लेने की कोशिश में अँगरेज बुद्धिजीवियों के द्वारा रास्ते सुझाए जा रहे थे। इसी में एक कलकत्ता मदरसा के मानद प्राचार्य डब्ल्यूएन लीस की भूमिका महत्वपूर्ण साबित हुई।

उन्होंने 'लंदन टाइम्स' में अक्टूबर-नवंबर 1871 में तीन पत्र लिखकर अँगरेजी शिक्षा पद्धति को मुस्लिमों की धार्मिक भावना के प्रतिकूल बताया और सुझाया कि मदरसा उर्दू-फारसी, इस्लामिक शिक्षा को महत्व देकर मुसलमानों को शांत किया जा सकता है। इस प्रकार लीस-हंटर की जोड़ी ने भारत में मुसलमानों को राज्य के प्रगतिशील हस्तक्षेप से दूर रखने की सलाह दी।

इसे 1883 के शिक्षा आयोग ने स्वीकार कर लिया। ऐसा नहीं था कि इसका विरोध नहीं हुआ। प्रांतों में शिक्षा से जुड़े अधिकारियों ने राजनीति के लिए आधुनिकता को दबाने की इस मुहिम को मुसलमानों के लिए अहितकारी बताया, परंतु राजनीति के सामने यह विवेक परास्त हुआ।

आजादी के बाद भी यही मापदंड और सूत्र अपनाया जा रहा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों को 'संतुष्ट' रखने के लिए अलग से 'मदरसा नीति' चलाई जा रही है। मदरसा शिक्षा का परिणाम भारतीय समाज के लिए कितना लाभकारी है यह प्रश्न पूछना ही मानो अपराध बन गया है। मदरसा के प्रमाण-पत्रों को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के प्रमाण-पत्रों के समान मानने की सिफारिश करना मदरसा शिक्षा को मजबूत करने वाला कदम है।

मुट्ठी भर मुस्लिम कुलीनों ने आधुनिक शिक्षा को बेरोकटोक अपनाया है, परंतु धर्म की पहचान व फतवों के राज ने आम मुसलमानों को मुख्यधारा की शिक्षा से दूर करने का काम किया है। जिन मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने न तो मदरसा में स्वयं अध्ययन किया है न ही वे अपनी संतानों को ही इसमें भेजते हैं वे ही इसके बड़े पैरोकार बने हुए हैं। पाठ्यक्रम मौलवियों के अधिकार में है और दो तिहाई हिस्सा इस्लामिक शिक्षा तक सीमित है। 

भारत में मुसलमानों के बीच औपनिवेशिक काल की मानसिकता को पुष्ट करने के लिए अनेक वैचारिक धाराएँ काम कर रही हैं। जैसे महिलाओं को सह शिक्षा विद्यालयों-महाविद्यालयों में जाने से रोकना एक आम बात बन गई है। यह बात सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं है, रोजगार के क्षेत्र में भी प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। 

मध्य वर्ग मुस्लिम परिवार शिक्षा के दौरान छात्राओं द्वारा विषयों के चयन एवं बाद में 
  मुस्लिम समाज को लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के आईने में अपने आपको देखने का प्रयास करना चाहिए। उनकी सामाजिक,आर्थिक व शैक्षणिक स्थितियों की तुलना हिन्दुओं से करना न सिर्फ बेमानी है बल्कि राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का जाने-अनजाने में किया जा रहा प्रयास भी है      
उनके रोजगार की प्रकृति पर कड़ी नजर रखता है। उस अध्ययन में पाया गया कि यहाँ तक कि गरीब परिवारों की महिलाओं को भी घर से बाहर जाकर रोजगार करने पर रोक लगा दी जाती है। मदरसा शिक्षा का सीधा संबंध आतंकवाद से हो या न हो परंतु यह प्रगतिगामी तो नहीं ही है, मुस्लिम मन को राष्ट्रवाद से अधिक अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक समुदाय से जोड़ने का काम करता है।


1866 में देवबंद मदरसा की स्थापना हुई थी। बाहरी तौर पर यह एक उदारवादी इस्लामिक शिक्षा केंद्र दिखाई पड़ता है, परंतु इसकी भूमिका मुसलमानों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने की कितनी रही है यह एक बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। वर्तमान यूपीए सरकार द्वारा स्थापित प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट ने तो इस बात की पुष्टि कर दी है कि अनियंत्रित मदरसा शिक्षा आतंकवाद को बढ़ाने वाली ही साबित हो रही है। इसने धार्मिक कट्टरपंथी शिक्षा को आतंकवाद की जननी माना है। इस रिपोर्ट के बाद देवबंद भी कठघरे में खड़ा है।

कट्टरपंथी विचारधारा मुस्लिम राजनीति व सामाजिक जीवन पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए बहुआयामी प्रयत्न कर रही है। इसी का एक उदाहरण है इस्लामिक बैंकों की माँग करना। देवबंद की वेबसाइट पर शिक्षित मुसलमानों के द्वारा आर्थिक जीवन संबंधी प्रश्न एवं फतवों का अंबार है। रियल इस्टेट में रोजगार करूँ या नहीं, शेयर बाजार में किस प्रकार की कपंनियों में धन लगाऊँ, शून्य ब्याज दर होने पर भी किस्तों पर मोटरसाइकल खरीदूँ या नहीं, जीवन बीमा कराऊँ या नहीं?

ये प्रश्न मौलवियों के बढ़ते प्रभाव को तो दर्शाते ही हैं, मुस्लिम समाज को पिछड़ेपन की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति के भी सूचक हैं। स्वतंत्र भारत की कथित सेकुलरवादी ताकतों ने मुस्लिमों की तुलना हिन्दुओं से करने का काम किया है। इसी सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया था, जिसने हिन्दुओं व मुसलमानों को दो प्रतिद्वंद्वी समुदायों के चश्मे से देखने का काम कर औपनिवेशिक फॉर्मूले को पुनर्जीवित करने का काम किया है।

वस्तुतः मुस्लिम समुदाय का संवाद लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के जीवंत मापदंडों के साथ किया जाना चाहिए। इसी प्रकार का संवाद हिन्दुओं, पारसियों या इसाइयों के द्वारा होता रहा है। बहुसंख्यक समाज ने तो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ संवाद को जारी रखने और समाज सुधार में राज्य के हस्तक्षेप का भी स्वागत किया, लेकिन भारतीय मुसलमान इससे दूर भागते रहे हैं।

अतः मुस्लिम समाज को लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के आईने में अपने आपको देखने का प्रयास करना चाहिए। उनकी सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्थितियों की तुलना हिन्दुओं से करना न सिर्फ बेमानी है बल्कि राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का जाने-अनजाने में किया जा रहा प्रयास भी है। 
(लेखक इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक हैं) - साभार- वैबदुनिया

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