January 14, 2009

देश की राजनीति और हम युवाओं का धर्म

इसे भी विकल्प के तौर पर आजमाना होगा

दोस्तों, जैसा कि मैंने आप लोगों से वादा किया था कि बात अब दूर तलक जाएगी। तो सत्यम से बात शुरू हुई थी, स्वरोजगार एक पड़ाव आया और अब पोलिटिकल कैरियर की बात करूँगा। मतलब मंथन के इस दौर में क्या हम युवाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए। इस बात पर कुछ तर्क....

मुंबई आतंकी हमले के बाद पिछले एक माह से देश की जनता को राजनीतिज्ञों के ऊपर उबलते हुए देख रहा हूँ। महीने भर इन सब बातों को पढ़कर ख्याल आया कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन हम क्या कर रहे हैं इस देश की राजनीति को सुधारने के लिए...आखिर हम युवा हैं...हमारे पास काफी समय है तो हम क्यों नहीं उठाते यह सब ठीक करने का जिम्मा......

राजनीति चोर...उचक्कों...बदमाशों....बाहुबलियों के लिए है....हम शरीफों के लिए नहीं है..... हम सिर्फ बैठकर कोसेंगे और कहेंगे कि राजनेता होते ही बदमाश हैं........लेकिन सोचने वाली बात है कि हमारी मदद के बिना नेताओं द्वारा मनमानी किया जाना क्या वाकई संभव है???????........कुछ माह पहले इंदौर के जाल सभाग्रह में एक व्याख्यान सुनने गया था......देश के मशहूर राजनीतिक विश्लेषक श्री योगेन्द्र यादव वहाँ आए थे.....एक स्मृति व्याख्यान दिया था उन्होंने...उन्होंने क्या कहा था यह बताने की जरूरत नहीं क्योंकि वह सब अखबारों में छपा था.......लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि इन लोगों को चुनकर तो हम ही भेजते हैं तो फिर दोष तो हमें भी अपने ऊपर लेना होगा ना.......श्री यादव ने इस व्याख्यान में वैकल्पिक राजनीति की चर्चा की थी....कई अच्छी बातें हुई लेकिन हम में से कितने युवा आज राजनीति में जाने की सोचते हैं??????.........और क्यों नहीं सोचते इसपर एक लंबी बहस हो सकती है। हालांकि आज की युवा पीढ़ी को रुपया कमाने और विपरीत लिंगी को फुसलाने में ज्यादा आनंद आता है लेकिन जो युवा देश के लिए सोचने का दावा करते हैं वो भी क्या कर रहे हैं, इस बात पर मंथन होना चाहिए। अपना एक अनुभव सुनाऊंगा......५-६ साल पहले एक बार ग्वालियर में अपने अखबार के लिए साध्वी रितंभरा का इंटरव्यू कर रहा था.....कुछ बातों पर उनसे बहस हो रही थी....वे अचानक कहने लगीं कि अगर तुम इतने ही चिंतित हो तो देश की राजनीति में क्यों नहीं आ जाते.......उस समय अटलजी प्रधानमंत्री थे......साध्वी ने कहा कि अब अटलजी के हाथ बूढ़े हो चुके हैं, देश को तुम्हारे जैसे युवा नेताओं की जरूरत है.....मैंने उनसे कहा कि साध्वी जी मेरा कोई बैकग्राउण्ड नहीं है राजनीति में आने के लिए....तब उन्होंने कहा था कि एक बार आगे तो बढ़ो सब अपने आप साथ आ जाएँगे.......

दोस्तों मैं हालांकि तब से अभी तक पत्रकारिता में ही हूँ और राजनीति में नहीं गया लेकिन मैंने कोई हार नहीं मानी है.....मेरे एजेंडे में यह आज भी शामिल है लेकिन अपने जैसों की तलाश कर रहा हूं जो इस दावानल में कूदने की साथ में जुर्रत कर सकें...क्योंकि अगर हम ही आगे नहीं बढ़ेंगे तो देश का क्या होगा वर्तमान नेताओं के भरोसे....आजकल सभी राजनीतिक पार्टियों के नारे समान ही हैं.....ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस ४० साल से गरीबी भगाने का नारा दे रही है और भाजपा अयोध्या में पिछले १६ साल से मंदिर बनवाने का नारा दे रही है.......तो साहब राजनेताओं को पता है कि यह नारे चल जाते हैं इसलिए ही तो वे लगातार साल-दर-साल यह नारे दे रहे हैं और सफल भी हो रहे हैं.......तो हम क्या कर रहे हैं......

हम लोग खासकर युवा और पढ़े-लिखे युवा राजनीति को अछूत मानते हैं। किसी को लगता है कि इस देश में रहकर ताश खेलने से ज्यादा अच्छा है बाहर जाकर मोटी कमाई की जाए, क्योंकि यहाँ डिग्रियाँ काम नहीं आतीं। तो भइया काम तो तभी आएँगीं ना जब हम इस देश को उस लायक बनाएँगे। हम क्रांति तो चाहते हैं लेकिन यह भी मानते हैं कि यह काम कोई और कर देगा......वही कहावत कि हर माँ चाहती है कि भगतसिंह पैदा हो लेकिन मेरे घर नहीं पड़ौसी के घर पैदा हो.....यानी कुल मिलाकर हम भारतीय चमत्कार पर विश्वास करते हैं.......महात्मा गाँधी ने राजनीति को लोकनीति कहा था....सही था क्योंकि तब उसे लोक यानी जनता की सेवा का कार्य माना जाता था और अब इसे राज करने की तिकड़म माना जाता है इसलिए इसका नाम बदलकर राजनीति हो गया है......तो यही काम आजकल के नेता कर रहे हैं.....वो जानते हैं कि जनता भावुक है उसे भड़काया जा सकता है.......... तो देश-दुनिया-विकास तो सब गए भाड़ में, बस चला देते हैं भावात्मक कोई सा मुद्दा....और हम पढ़े-लिखे लोग हैं कि राजनीति में जाते नहीं और जाहिल लोग अपने तरीके से टुच्चे नेताओं को राजनेता बना देते हैं........

वीर सावरकर २७ वर्ष जेल में रहे.....महात्मा गाँधी कई बार जेल गए......नेहरू जी तीन-चार जेलों में रह लिए.......मीसा के समय कई बड़े नेता जेल में रहे......चन्द्रशेखर आजाद ने १५ साल की उम्र में देश के लिए कोड़े खा लिए थे और २५ साल में शहीद हो गए थे......भगतसिंह २४ साल की उम्र में फाँसी के फंदे से झूल गए थे...लेकिन साहब हम तो रुपया कमाएँगे, अगर देश छोड़कर जाने की नीति आज से २५० साल पहले अमेरिकियों ने अपना ली होती तो उस देश का तो हो गया था बंटाधार....भला हो उन अब्राहीम लिंकन का जिन्होंने कह दिया था कि अब इस देश में वही रहेगा जो अपने को अमेरिकी मानेगा और हम इस देश को ऐसा बना देंगे कि लोग यहाँ आने के लिए तरसेंगे......और देखो उन्होंने ये कर दिखाया, हम वहाँ जाने के लिए तरस रहे हैं, दुनिया वहाँ जाने के लिए तरस रही है लेकिन इस देश के लिए कोई अब्राहीम लिंकन बनने को तैयार नहीं..??
....खैर यह चर्चा चलती रहेगी क्योंकि राजनीति को विकल्प के तौर पर देर-सबेर देखना ही होगा....हम युवा इससे यूँ ही अछूते रहकर देश का बेड़ा गर्क होते नहीं देख सकते......चर्चा जारी रहेगी।

आपका ही सचिन.......।

3 comments:

sarita argarey said...

राजनीति में पढे लिखे या अनपढ की बात का उतना मतलब नहीं ,जितना राजनीतिक शुचिता का सवाल है । आप चाहे जो कहें लोगों के लिए राजनीति जल्द से जल्द अमीर बनने और उससे कहीं ज़्यादा ताकतवर बन गलत को सही करने का ज़रिया है । जनता जिन्हें चुनती है ,उनकी नैतिकता का मुद्दा अहम होना चाहिए । सच पूछिए तो मौजूदा व्यवस्था इतनी बिगड चुकी है कि इसे बदलने के लिए विध्वंस की ज़रुरत है । मैंने ऎसे कई नेता देखे हैं जो नैतिकता का चोला सत्ता हाथ आते ही उतार फ़ेंकते हैं ।आखिर क्यों होता है ऎसा ...? व्यवस्था की खामियों को जान कर ही कोई बात बन सकती है ।

Dev said...

आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....

Arvind Gaurav said...

MAI AAPSE SAHMAT HUN DEAR